बंगाल का यह चुनाव तृणमूल बनाम भाजपा मात्र दो दलों के बीच का चुनाव नहीं रह गया है बल्कि यह चुनाव देश की राजनीति के लिए भविष्य की दिशा भी तय करेगा। बंगाल की धरती शायद एक बार फिर देश के राजनैतिक दलों की सोच और कार्यशैली में मूलभूत बदलाव की क्रांति का आगाज़ करे।
असम सरकार ने हाल ही में घोषणा की है कि अगले माह यानी नवंबर में वो राज्य में राज्य संचालित सभी मदरसों और संस्कृत टोल्स या संस्कृत केंद्रों को बंद करने संबंधी एक अधिसूचना लाने जा रही है।
नीतीश कुमार जो कि वर्तमान में मुख्यमंत्री हैं और सुशासन बाबू के नाम से जाने जाते हैं उन्होंने जेडीयू की पूर्व मंत्री मंजू वर्मा जो कि मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड की आरोपी हैं और फिलहाल जमानत पर बाहर हैं उन्हें टिकट देकर अपने सुशाशन की पोल खोल दी है।
आज भारत विश्व में अपनी नई पहचान के साथ आगे बढ़ रहा है। वो भारत जो कल तक गाँधी का भारत था जिसकी पहचान उसकी सहनशीलता थी, आज मोदी का भारत है जो खुद पहल करता नहीं, किसी को छेड़ता नहीं लेकिन अगर कोई उसे छेड़े तो छोड़ता भी नहीं।
गर्व करने योग्य देश की उपलब्धियां हैं बल्कि जनमानस में सकारात्मकता फैलाने वाली खबरें हैं- आपदा को अवसर में बदलने की बहुत से कदम भी उठाए गए जैसे आत्मनिर्भर भारत की नींव और वोकल फ़ॉर लोकल का संकल्प। लेकिन शायद ही खुद को चौथा स्तंभ मानने वाली देश की मीडिया ने इन खबरों का प्रसारण किया हो अथवा किसी भी प्रकार से देश की इन उपलब्धियों से देश की जनता को रूबरू कराने का प्रयत्न किया हो।
दिवासी अथवा जनजातियों को उनके अधिकार दिलाने की मुहिम दिखने वाला "आदिवासी दिवस" नाम का यह आयोजन ऊपर से जितना सामान्य और साधारण दिखाई देता है वो उससे कहीं अधिक उलझा हुआ है।
आज जब हिजाब के खिलाफ आवाज उठाने वाली छात्रा हो या लाउडस्पीकर पर अजान का न्यायसम्मत विरोध करने वाली महिला हो या फिर इसके समर्थन में उतरी एक अन्य छात्रा हो, इनके समर्थन में महिला अधिकारों की बात करने वाले उपर्युक्त किसी उदारवादी संगठन की कोई आवाज क्यों नहीं सुनाई दी।
क्या प्यारेमियाँ को दंडित करने मात्र ही समस्या का हल है? क्या प्यारेमियाँ अकेला अपराधी है? ऐसे अनेक सवाल हैं जो एक समाज के रूप में हमें स्वयं से पूछने ही चाहिए।