Friday, April 19, 2024
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राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के विरोधी, भ्रटाचारी, तानाशाह और आतंकी ही क्यों होते हैं? भाग-१

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Nagendra Pratap Singh
Nagendra Pratap Singhhttp://kanoonforall.com
An Advocate with 15+ years experience. A Social worker. Worked with WHO in its Intensive Pulse Polio immunisation movement at Uttar Pradesh and Bihar.

मित्रों आपने हमेशा ध्यान दिया होगा कि “आर एस एस” अर्थात संघ अर्थात राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की आलोचना करने वाले और इसके धुर विरोधी अक्सर हि वो लोग होते हैं, जो समाज के छटे हुए कुख्यात भ्रष्टाचारी, आतंकी या देश को तोड़ने वाली विदेशी ताकतों के जरखरीद गुलाम होते हैं।

अब तनिक ध्यान दीजिये जब “पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया” जैसे चरमपन्थी और आतंकी संगठन जिस पर सैकड़ो हत्या करने और दर्जनों दंगा करवाने के आरोप सच साबित हो चुके हैं, जो भारतवर्ष को २०४५ तक एक इस्लामिक राष्ट्र बनाने का सपना पाले हुए था, उसको ५ वर्ष के लिए प्रतिबंधित करते हि, विपक्ष में बैठे सभी ऐसे लोग बिलबिला कर उल्टियां करने लगे और दो बार जेल की सजा काट चुके और अपने जीवन के अंतिम पड़ाव पर पहुंच चुके श्रीमान लालू प्रसाद यादव जी ने तो यंहा तक कह दिया कि “PFI पर बैन लगाने से पहले आरएसएस को बैन करना चाहिए”।

मित्रों किसी संगठन या व्यक्ति की आलोचना करना कोई अपराध नहीं है, परन्तु किसी एक मजहब से जुड़े उन्मादी लोगों के समूह को खुश करने के लिए किसी के चरित्र और चाल पर लान्क्षन लगाना पूर्णतया सामाजिकता के परिधि से बाहर है।

मित्रों आरएसएस और कांग्रेस दो ऐसे संगठन हैं जिनका इतिहास लगभग १०० वर्ष के आसपास का है। कांग्रेस तो लगभग १२५ से १४० वर्ष पुरानी है। आइये देखते हैं दोनों संगठनों के उतार और चढाव को और समझते हैं कि दोनों में बुनियादी अंतर क्या है?

कांग्रेस:- भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस की स्थापना ७२ प्रतिनिधियों की उपस्थिति के साथ २८ दिसम्बर १८८५ को बंबई (मुंबई) के गोकुल दास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय में हुई थी। इसके संस्थापक महासचिव (जनरल सेक्रेटरी) ए ओ ह्यूम थे जिन्होंने कलकत्ते के व्योमेश चन्द्र बनर्जी को अध्यक्ष नियुक्त किया था। अपने शुरुआती दिनों में काँग्रेस का दृष्टिकोण एक कुलीन वर्ग की संस्था का था। इसके शुरुआती सदस्य मुख्य रूप से बॉम्बे और मद्रास प्रेसीडेंसी से लिये गये थे।

स्थापना का प्रारम्भिक उद्देश्य:- मित्रों १८५७ ई. में हुए प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम से चोर और लुटेरे समुदाय के अंग्रेज अत्यधिक भयभीत थे और वो चाहते थे कि इस प्रकार के आंदोलन कि पुनरावृत्ति ना हो, अत: ५०० से अधिक पन्नो से तैयार की गई एक रिपोर्ट का अध्ययन करने के पश्चात Allan Octavian Huem (ऐ ओ ह्यूम) जो १८५७ ई मे आज के उत्तर प्रदेश के इटावा क्षेत्र का प्रशासक था, ने तत्कालीन वायसराय के निर्देश पर एक ऐसे संगठन को खड़ा करने की बुनियाद डाली जो भारतीय जनमानस और अंग्रेजो की सरकार के मध्य एक बिचैलिए का कार्य करें और इसके साथ हि क्रांतिकारियों के बारे में गुप्त सूचनाये अंग्रेजो को दे सके।

आर एस एस:-राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना २७ सितंबर सन् १९२५ में विजयादशमी के दिन डॉ॰ केशव हेडगेवार द्वारा की गयी थी। डाक्टर साहेब ने मात्र ५ से १० सामान्य भारतीय नागरिकों को लेकर इसकी शुरुआत की थी।

उद्देश्य:- ईसाई अंग्रेजो और चारमपंथी इस्लामिक मजहबीयो के षड्यंत्र द्वारा विभिन्न प्रकार के जातियों में स्वय को विभक्त मान लेने वाले हिंदुओ के अंदर एकता की भावना का विस्तार करना। हिन्दुओ में अपने सभ्यता, संस्कृति और धर्म के प्रति अटूट विश्वास को जागृत करना। हिन्दू समाज में अनुशासन के माध्यम से चरित्र प्रशिक्षण प्रदान करना और भारतवर्ष को उसका सनातन स्वरूप पुन: दिलाने के लिए हर संभव अत्मविश्वास का सन्चार करना। यह संगठन भारतीय संस्कृति और नागरिक समाज के मूल्यों को बनाए रखने के आदर्शों को बढ़ावा देता है और बहुसंख्यक हिंदू समुदाय को “मजबूत” करने के लिए सनातन धर्म की विचारधारा का प्रचार करता है।

मित्रों उपर्युक्त विश्लेषण से स्पष्ट है कि कांग्रेस का गठन , आरएसएस के गठन से लगभग ४० वर्ष पूर्व हुआ था। जंहा कांग्रेस को तत्कालीन ब्रिटिश साम्राज्य का आशीर्वाद प्राप्त था, वही आरएसएस पूर्णतया गरीब और असहाय हिन्दू समाज के राष्ट्रभक्ति, अनुशासन, धर्मपरायणता और निस्वार्थ  कर्तव्यशीलता पर आश्रित था। कांग्रेस जंहा अंग्रेजो के दया धर्म पर निर्भर थी, वही आरएसएस स्वाभिमान से शीश उठाकर और आँखों में आंखे डालकर अपना समाजिक उत्थान का कार्य कर रहा था। कांग्रेस जंहा हमारे देश के महान क्रांतिकारियों आज़ाद, बिस्मिल, भगत, राजगुरु, सुखदेव, अशफाक़, बटुकेश्वर दत्त, रास बिहारी बोस, सरदार उधम सिंह और सुभाष चन्द्र बोस इत्यादि का जंहा खुलकर विरोध करती थी और इनकी मुखबिरी करती थी, वही आरएसएस इन्ही भारत माँ के बलिदानी सपूतो का हर संभव (तन मन और धन से) सहायता करती थी। भारत छोड़ो आंदोलन जिसकी बुनियाद सुभाष बाबू ने १९३९ ई में ही रख दिया था, उसे मोहनदास करमचंद गांधी जी ने १९४२ ई में अपनाया। यह आंदोलन संघ के अनुशासित और राष्ट्रभक्त स्वय सेवकों ने क्रांतिकारियों के साथ मिलकर अभूतपूर्व सफलता की ओर ले जाने लगे की तभी कांग्रेस ने इसे एक षड्यंत्र की भांति वापस ले लिया।

खैर अब आते हैं तथाकथित आजादी के ठीक एक वर्ष पूर्व और उसके पश्चात के घटनाक्रम पर।

गाँधी जी के नेहरू प्रेम ने भारत से उसका प्रथम राष्ट्र्वादी प्रधानमंत्री सरदार पटेल छीन लिया और बाहुबली के स्थान पर भलालदेव ने, ब्रिटेन के राजवंश कि शपथ लेकर प्रधानमंत्री का पद हासिल कर लिया और उनके नेतृत्व में कांग्रेस सत्ता का स्वाद लेने में जुट गई पर आरएसएस सदैव की भांति अपनी तय कि गई दिशा में हि कैरी करता रहा। निस्वार्थ भाव से वो सनातन धर्म को शसक्त बनाता रहा और अपने समाजिक कार्यों  के दम पर आम जनमानस से जुड़ता रहा।

स्वतन्त्रता के पश्चात कांग्रेस और आरएसएस:-

मित्रों सबको पता है कि किस प्रकार महाराज हरी सिंह के प्रारम्भिक ना नुकुर का लाभ लेते हुए, नापाक पाकिस्तान को बनाने वाले जिन्ना ने कबाइलियो के भेष में पाकिस्तानी सैनिको को जम्मू कश्मीर को हथियाने के लिए भेज दिया और फिर जब महाराज हरी सिंह ने भारत में विलय को स्वीकार कर लिया तो यही आरएसएस के सेवक भारतीय सेना के साथ मिलकर ना केवल कबाइलियो को भगाया अपितु जम्मू कश्मीर को नापाक सुअरो के कब्जे में जाने से भी बचाया।

मित्रों सबको पता है कि किस प्रकार चिन को भारत पर आक्रमण करने का खुला आमंत्रण नेहरू जी की पूर्णतया अन्धकारपूर्ण नीतियों के द्वारा दिया गया। वर्ष १९६२ के भारत-चीन युद्ध में प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू संघ की भूमिका (उसके निस्वार्थ सेवा भाव, त्याग, समर्पण, राष्ट्र भक्ति इत्यादि) से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने संघ को सन १९६३ के गणतंत्र दिवस की परेड में सम्मिलित होने का निमन्त्रण दिया और मित्रों केवल दो दिनों की पूर्व सूचना पर तीन हजार से भी ज्यादा स्वयंसेवक पूर्ण गणवेश में वहाँ उपस्थित हो गये। एक ओर जंहा आरएसएस आम जनता के मध्य अपनी पैठ बनाता चला गया, वंही कांग्रेस अपने कुख्यात उद्देश्यों और तुष्टिकरण की नीतियों और राष्ट्रवादी नेताओं के अलगाव से जनता से दूर होती चली गई।

एक और उदाहरण देख लेते हैं जो कि गोवा राज के मुक्ति संग्राम से जुड़ा है। भारत में संविधान लागु हुए ४ वर्ष हो चुके थे, परन्तु गोवा में पुर्तगाली लुटेरों का कब्जा अभी भी बना हुआ था। आरएसएस ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू से सेना का उपयोग कर गोवा के मुक्ति की आवाज उठाई, परन्तु अंग्रेजो के राजवंश की शपथ, संविधान के शपथ से ज्यादा बड़ी समझने वाले नेहरू जी ने सेना का उपयोग करने से इंकार कर दिया।

 (इसके पूर्व २१ जुलाई १९५४ को दादरा को पुर्तगालियों से मुक्त कराया गया, २८ जुलाई को नरोली और फिपारिया मुक्त कराए गए और फिर राजधानी सिलवासा मुक्त कराई गई। संघ के स्वयंसेवकों ने २ अगस्त १९५४ की सुबह पुतर्गाल का झंडा उतारकर भारत का तिरंगा फहराया, पूरा दादरा नगर हवेली पुर्तगालियों के कब्जे से मुक्त करा कर भारत सरकार को सौंप दिया।) इसी प्रकार संघ के स्वयंसेवक १९५५ से गोवा मुक्ति संग्राम में प्रभावी रूप से शामिल हो चुके थे। गोवा में सशस्त्र हस्तक्षेप करने से जवाहरलाल नेहरू के इनकार करने पर श्री जगन्नाथ राव जोशी के नेतृत्व में संघ के कार्यकर्ताओं ने गोवा पहुंच कर आंदोलन शुरू किया, जिसका परिणाम श्री जगन्नाथ राव जोशी सहित संघ के कार्यकर्ताओं को दस वर्ष की सजा हुई। पूरे भारत में जनाक्रोश बढ़ने से तत्कालीन परिस्थितिया बिगड़ने पर अंततः भारत को सैनिक हस्तक्षेप करना पड़ा और १९६१ में गोवा स्वतन्त्र हुआ।

एक बात तो स्पष्ट थी जंहा कांग्रेस एक ओर सत्ता में बने रहने के लिए देश की सुरक्षा, संस्कृति और सभ्यता से समझौता करने में लगी रही, वही दूसरी ओर आरएसएस हिन्दू जनमानस के अस्तित्व को बचाने में सतत प्रयत्नशील रहा, दोनों ने अपने जन्म के उद्देश्यों के अनुसार ही कार्य करना जारी रखा।

मित्रो जंहा कांग्रेस सत्ता और शक्ति के मिश्रित लड़ाई में संगठनात्मक रूप से कमजोर होती गयी, वंही आरएसएस सनातन धर्म से जुड़े हर क्षेत्र को स्पर्श करते हुए अपनी सेवा के बल पर संगठनात्मक रूप से दिन दूनी रात चौगुनी विस्तार करती गयी | सहकार भारती, भारतीय किसान संघ, भारतीय मजदूर संघ, सेवा भारती, राष्ट्र सेविका समिति, अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद, विश्व हिन्दू परिषद, हिन्दू स्वयंसेवक संघ, स्वदेशी जागरण मंच,सरस्वती शिशु मंदिर, विद्या भारती, वनवासी कल्याण आश्रम, मुस्लिम राष्ट्रीय मंच, बजरंग दल, लघु उद्योग भारती,भारतीय विचार केन्द्र, विश्व संवाद केन्द्र। राष्ट्रीय सिख संगत, हिन्दू जागरण मंच और विवेकानन्द केन्द्र नामक इत्यादि संगठनों ने समाज के बच्चो, युवाओ, प्रौढ़ों और वरिष्ठों इत्यादि के साथ साथ, छात्रों, दलितों, वनवासियों, मजदूरों और किसानो में अपनी गहरी पैठ बना ली, जिसके कारण आरएसएस समाज के हर वर्ग तक पहुंच कर उसका सम्मान अर्जित कर सका|

आगे का विश्लेषण हम भाग-२ में करेंगे |

Nagendra Pratap Singh

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