अफगानिस्तान पर अपने आतंक से कब्जा करने वाले ये खूंखार तालिबानी किस विचारधारा से पैदा हुए है- यदि पता नहीं तो आइये हम आपको बताते हैं।
जी हाँ तालिबान का हर खूंखार शांतिदूत भारत के उत्तर प्रदेश राज्य के सहारनपुर जीले के एक छोटे से शहर देवबन्द में सन १८६७ ई में स्थापित देवबंदी मदरसे दार अल-उलूम से निकली देवबंदी विचारधारा से पैदा हुआ है।
देवबंदी मदरसे अर्थात “दार अल-उलूम” (ज्ञान का घर) की स्थापना 1867 में उत्तर-पश्चिम उत्तर प्रदेश के/सहारनपुर जीले के देवबंद कस्बे की एक मस्जिद में हुई थी जिसके संस्थापक शाह वलीउल्लाह द्वारा स्थापित दिल्ली मदरसा के तीन पूर्व छात्र- मौलाना मुहम्मद कासिम नानोतवी (1832-1880), मौलाना रशीद अहमद गंगोही (1826-1905) और मौलाना जुल्फिकार अली (1819-1904) थे। दोस्तों जैसा कि हम जानते हैं कि वहाबी_आंदोलन के प्रवर्तक उत्तरप्रदेश के रायबरेली के सैय्यद अहमद थे, जो इस्लाम में हुए सभी परिवर्तनों एवं सुधारों के विरुद्ध। उन्होंने हजरत मुहम्मद साहब के समय के इस्लाम को पुनः स्थापित करने के क्रम में तथा भारत को ‘दार-उल-हर्ब’ से ‘दार-उल-इस्लाम’ में परिवर्तित करने के लिये पंजाब के सिक्खों के विरुद्ध जेहाद की घोषणा की थी।
वहाबी आंदोलन की भाँति देवबंद_आंदोलन भी पुनरुत्थानवादी आंदोलन था। इसने मुसलमानों में कुरान एवं हदीस की शुद्ध शिक्षा के प्रसार तथा विदेशी शासकों के विरुद्ध ‘जेहाद’ की भावना को जीवित रखने पर बल दिया। यह आंदोलन अपने स्वरूप में इतना अधिक कठोर एवं रूढ़िवादी था कि इसने सुधारवादी ‘अलीगढ़ आंदोलन’ का तीव्र विरोध किया।
देवबन्दी (देवबंदी) सुन्नी इस्लाम के हनफ़ी पन्थ की एक प्रमुख विचारधारा है जिसमें कुरान व शरियत का कड़ाई से पालन करने पर ज़ोर दिया जाता है। यह भारत के उत्तर प्रदेश राज्य में स्थित दारुल उलूम देवबन्द से प्रचारित हुई है जो विश्व में इस्लामी शिक्षा का दूसरा बड़ा केन्द्र है। इसके अनुयायी इसे एक शुद्ध इस्लामी विचारधारा मानते हैं। ये इस्लाम के उस तरीके पर अमल करते हैं, जो अल्लाह के नबी हजरत मुहम्मद स० ले कर आये थे, तथा जिसे ख़ुलफ़ा-ए-राशिदीन (अबु बकर अस-सिद्दीक़, उमर इब्न अल-ख़त्ताब, उस्मान इब्न अफ़्फ़ान और अली इब्न अबू तालिब), सहाबा-ए-कराम, ताबेईन ने अपनाया तथा प्रचार-प्रसार किया।
यह भारत, पाकिस्तान, अफगानिस्तान और बांग्लादेश में केंद्रित था जो यूनाइटेड किंगडम और दक्षिण अफ्रीका में भी फैल गया। यह आंदोलन विद्वान शाह वलीलुल्लाह मुहद्दिस देहलवी (1703-1762), के विचारो से प्रेरित था। इस्लामी दुनिया में दारुल उलूम देवबन्द का एक विशेष स्थान है जिसने पूरे क्षेत्र को ही नहीं, पूरी दुनिया के मुसलमानों को प्रभावित किया है। दारुल उलूम देवबन्द केवल इस्लामी विश्वविद्यालय ही नहीं एक विचारधारा है,इस्लाम को अपने मूल और शुद्ध रूप में प्रसारित करता है। इसलिए मुसलमानों में इस विचाधारा से प्रभावित मुसलमानों को ”देवबन्दी“ कहा जाता है।
भारत में
भारत में देवबंदी आंदोलन को दारुल उलूम देवबंद और जमीयत उलेमा-ए-हिंद द्वारा नियंत्रित किया जाता है। लगभग 20% भारतीय मुस्लिम देवबंदी के रूप में पहचान रखते हैं। हालांकि अल्पसंख्यक, मुस्लिम निकायों में राज्य संसाधनों और प्रतिनिधित्व के उपयोग के कारण देवबंदिस भारतीय मुसलमानों के बीच प्रमुख समूह बनाते हैं। देवबंदियों को उनके विरोधियों – बरेलवियों और शियाओं द्वारा ‘ वहाबिस’ के रूप में जाना जाता है। हकीकत में, वे वहाबिस नहीं हैं, भले ही वे अपनी कई मान्यताओं को साझा करते हैं। भारतीय मुसलमानों के बीच वहाबियों की संख्या मुस्लिम समुदाय की संख्या मे 5 प्रतिशत से कम माना जाता है।
पाकिस्तान में
पाकिस्तान के सुन्नी मुसलमानों का अनुमानित 15-20 प्रतिशत खुद को देवबंदी मानते हैं। हेरिटेज ऑनलाइन के अनुसार, पाकिस्तान में कुल सेमिनारों (मद्रास) का लगभग 65% देवबंदियो द्वारा चलाया जाता है, जबकि 25% बेरेलवियो द्वारा संचालित होते हैं, अहल-ए हदीस द्वारा 6% और विभिन्न शिया संगठनों द्वारा 3%। 1980 के दशक की शुरुआत से लेकर 2000 के दशक तक पाकिस्तान में देवबंदी आंदोलन प्रमुख रूप से सऊदी अरब से वित्त पोषण प्राप्त करता था, इसके बाद इस वित्त पोषण को प्रतिद्वंद्वी अहल अल-हदीस आंदोलन में बदल दिया गया था। इस क्षेत्र में ईरानी प्रभाव के लिए देवबंद को असंतुलन के रूप में देखते हुए, सऊदी निधि अब अहल अल-हदीस के लिए सख्ती से आरक्षित है। पाकिस्तान में कई देवबंदी स्कूल वहाबी सिद्धांतों को पढ़ते हैं।
देवबंदि तकलीद के सिद्धांत के मजबूत समर्थक हैं। दूसरे शब्दों में, उनका मानना है कि एक मुस्लिम को सुन्नी इस्लामी कानून के चार स्कूलों (मदहब) में से एक का पालन करना चाहिए और आम तौर पर अंतर-स्कूल को हतोत्साहित करना चाहिए। वे स्वयं हनफी स्कूल के मुख्य रूप से अनुयायी हैं। देवबंदी आंदोलन से जुड़े मदरसो के छात्र हनफी कानून जैसे नूर अल- इदाह, मुख्तसर अल-कुदुरी, शारह अल-वाकायाह और कन्ज़ अल-दाक़िक की क्लासिक किताबों का अध्ययन करते हैं, और् अल-मारघिनानी के हिदाह के साथ अपने अध्ययन को समाप्त करते हैं।
इस देवबंदी विचारधारा से प्रेरित कुछ जिहाद करने वाले संगठन निम्नवत हैं।
१:-लश्कर-ए-झांगवी
लश्कर-ए-झांगवी (एलजे) (झांगवी की सेना) एक आतंकवादी संगठन है। इसकि स्थापना 1996 में कि गई। यह सिपाह-ए-सहबा (एसएसपी) के बाद से पाकिस्तान में संचालित हुआ है। इस् समूह को पाकिस्तान और संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा एक आतंकवादी समूह माना जाता है। ये समूह मुख्य रूप से शिया नागरिकों और उनके संरक्षकों पर हमलों में शामिल है। लश्कर-ए-झांगवी मुख्य रूप से पंजाबी है। इस समूह को पाकिस्तान में खुफिया अधिकारियों द्वारा एक प्रमुख सुरक्षा खतरे के रूप में चिन्हित किया गया है।
२:-तालिबान।
तालिबान (“छात्र”), वैकल्पिक वर्तनी तालेबान, अफगानिस्तान में एक इस्लामी कट्टरपंथी आतंकी आंदोलन है। यह एक सुन्नी इस्लामिक आधारवादी आन्दोलन है जिसकी शुरूआत 1994 में दक्षिणी अफ़ग़ानिस्तान में हुई थी।
तालिबान पश्तो भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ होता है ज्ञानार्थी (छात्र)। ऐसे छात्र, जो इस्लामिक कट्टरपंथ की विचारधारा पर यकीन करते हैं। इनको तालिब(छात्र)भी कहते है।तालिबान इस्लामिक कट्टपंथी आतंकी आंदोलन हैं। इसकी सदस्यता पाकिस्तान तथा अफ़ग़ानिस्तान के मदरसों में पढ़ने वाले छात्रों को मिलती है। 1996 से लेकर 2001 तक अफगानिस्तान में तालिबानी शासन के दौरान मुल्ला उमर देश का सर्वोच्च धार्मिक नेता था। उसने खुद को हेड ऑफ सुप्रीम काउंसिल घोषित कर रखा था।
और आपको जानकर ये ताज्जुब होगा कि ये मुल्ला उमर इसी देवबन्द के मदरसे से ज्ञान प्राप्त कर गया और इसने ऐसे खूंखार शांतिदूतो का संगठन तैयार किया।
तालेबान आन्दोलन को सिर्फ पाकिस्तान, सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात ने ही मान्यता दे रखी थी। अफगानिस्तान को पाषाणयुग में पहुँचाने के लिए तालिबान को जिम्मेदार माना जाता है। दारुल उलूम देवबंद ने लगातार 2001 में अफगानिस्तान में तालिबान का समर्थन किया है, जिसमें 2001 के बामियान के बुद्धों के विनाश, और तालिबान के अधिकांश नेता देवबंदी कट्टरतावाद से प्रभावित थे। पश्तुन जनजातीय कोड पश्तुनवाली ने तालिबान के कानून में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। महिलाओं के क्रूर उपचार के लिए तालिबान को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर निंदा की गई थी। तालिबान ने अब 2021 में अफगानिस्तान पर पूरी तरीके से कब्जा कर लिया है।
सामाजिक प्रतिबंध।
शरिया कानून के तहत महिलाओं पर कई तरह की कड़ी पाबंदियां लगा दी गईं थी। सजा देने के वीभत्स तरीकों के कारण अफगानी समाज में इसका विरोध होने लगा।
तालिबान ने शरिया कानून के मुताबिक अफगानी पुरुषों के लिए बढ़ी हुई दाढ़ी और महिलाओं के लिए बुर्का पहनने का फरमान जारी कर दिया। टीवी, म्यूजिक, सिनेमा पर पाबंदी लगा दी गई। दस की उम्र के बाद लड़कियों के लिए स्कूल जाने पर मनाई। तालिबान ने 1996 में शासन में आने के बाद लिंग के आधार पर कड़े कानून बनाए। इन कानूनों ने सबसे ज्यादा महिलाओं को प्रभावित किया। अफगानी महिला को नौकरी करने की इजाजत नहीं दी जाती थी। लड़कियों के लिए सभी स्कूल, कॉलेज और यूनिवर्सिटी के दरवाजे बंद कर दिए गए थे। किसी पुरुष रिश्तेदार के बिना घर से निकलने पर महिला का बहिष्कार कर दिया जाता है। पुरुष डॉक्टर द्वारा चेकअप कराने पर महिला और लड़की का बहिष्कार किया जाएगा। इसके साथ महिलाओं पर नर्स और डॉक्टर्स बनने पर पाबंदी थी। तालिबान के किसी भी आदेश का उल्लंघन करने पर महिलाओं को निर्दयता से पीटा और मारा जाएगा।
तालिबानी सजा।
तालिबानी इलाकों में शरीयत का उल्लंघन करने पर बहुत ही क्रूर सजाएं दी जाती हैं। एक सर्वेक्षण के अनुसार, 97 फीसदी अफगान महिलाएं अवसाद की शिकार हैं।
घर में बालिका विद्यालय चलाने वाली महिलाओं को उनके पति, बच्चों और छात्रों के सामने गोली मार दी जाती है। प्रेमी के साथ भागने वाली महिलाओं को भीड़ में पत्थर मारकर मौत के घाट उतार दिया जाता था। गलती से बुर्का से पैर दिख जाने पर कई अधेड़ उम्र की महिलाओं को पीटा जाता था। पुरुष डॉक्टर्स द्वारा महिला रोगी के चेकअप पर पाबंदी से कई महिलाएं मौत के मुंह में चली गई। कई महिलाओं को घर में बंदी बनाकर रखा जाता था। इसके कारण महिलाओं में आत्महत्या के मामले तेजी से बढ़ने लगे। ऐतिहासिक घटनाओं के आधार पर पता चलता है कि ये बिल्कुल सत्य है।
३:-तेहरिक-ए-तालिबान पाकिस्तान !
जिसे वैकल्पिक रूप से पाकिस्तानी तालिबान के रूप में जाना जाता है, पाकिस्तान में अफगान सीमा के साथ उत्तर-पश्चिमी संघीय प्रशासित जनजातीय क्षेत्रों में स्थित विभिन्न इस्लामवादी आतंकवादी समूहों का एक छाता संगठन है। दिसंबर 2007 में तेतुल्लाह मेहसूद के नेतृत्व में तह्रिक-ए-तालिबान पाकिस्तान बनाने के लिए लगभग 13 समूह एकजुट हुए। तहरीक-ए-तालिबान के बीच पाकिस्तान के निर्दिष्ट उद्देश्यों में पाकिस्तानी राज्य के खिलाफ प्रतिरोध, शरिया की व्याख्या की प्रवर्तन और अफगानिस्तान में नाटो सेनाओं के खिलाफ एकजुट होने की योजना है। टीटीपी मुल्ला उमर की अगुवाई में अफगान तालिबान आंदोलन से सीधे संबद्ध नहीं है, दोनों समूह अपने इतिहास, रणनीतिक लक्ष्यों और हितों में काफी भिन्न हैं, हालांकि वे दोनों इस्लाम की मुख्य रूप से देवबंदी व्याख्या साझा करते हैं और मुख्य रूप से पश्तुन हैं।
४:-सिपाह-ए-सहबा!
पाकिस्तान (एसएसपी) एक प्रतिबंधित पाकिस्तानी आतंकवादी संगठन है, और एक पूर्व पंजीकृत पाकिस्तानी राजनीतिक दल है । 1980 के दशक के आरंभ में झांग में आतंकवादी नेता हक नवाज झांगवी द्वारा स्थापित, इसका मुख्य लक्ष्य मुख्य रूप से ईरानी क्रांति के चलते पाकिस्तान में प्रमुख शिया प्रभाव को रोकना है।
2002 में राष्ट्रपति परवेज मुशर्रफ ने 1997 के आतंकवाद विरोधी अधिनियम के तहत एक आतंकवादी समूह के रूप में संगठन पर प्रतिबंध लगा दिया था। अक्टूबर 2000 में एक अन्य आतंकवादी नेता मसूद अज़हर और जयश-ए-मोहम्मद (जेएम) के संस्थापक को यह कहते हुए उद्धृत किया गया था कि “सिपाह-ए-सहबा जयश-ए-मुहम्मद के साथ कंधे के कंधे खड़े हैं जेहाद। ” एक लीक यूएस राजनयिक केबल ने जेएम को “एक और एसएसपी ब्रेकअवे देवबंदी संगठन” बताया।
अब आप स्वयम् ये अनुमान लगा सकते हैं कि:-
१:-लश्कर-ए-झांगवी,
२:-तालिबान,
३:- तेहरिक-ए-तालिबान पाकिस्तान और
४:-सिपाह-ए-सहबा जैसे खूंखार आतंकी जिहादी संगठनों को पैदा करने वाली विचारधारा उत्तरप्रदेश के सहारनपुर जीले के देवबन्द शहर के एक छोटे से मदरसे निकलती है और पूरा का पूरा अफगानिस्तान (जो कि मोमिनो का हि देश है)जैसा देश निगल जाती है, फिर हमारा मुल्क तो हम हिन्दू काफिरो का है हमारा हश्र ये क्या करेंगे।अभी भी वक्त है हिन्दुओ ये जात पात के झूठे अहँकार से मुक्त हो जाओ वरना आज अफगानिस्तान कल हिंदुस्तान……..
नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)