Monday, November 4, 2024
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aghoriamliofficial

काशी की धरा अब डोल रही है मुक्ति मुक्ति बोल रही है – कविता

काशी की धरा अब डोल रही है; मुक्ति मुक्ति बोल रही है. बाबा का नंदी जाग उठा है; प्रभु के दर्शन को खड़ा है

आबादी आबादी, बर्बादी बर्बादी

बढ़ रही है जनसंख्या तो बढ़ने दो; आ रही है मुश्किले तो आने दो, अगर यह भीड़ गायब हो गई; तो पत्थर कौन फेंकेंगा, शहर कौन जलायेगा; धरने कौन देगा, बढ रही है आबादी तो बढ़ने दो

एक कविता कार्यकर्ता के नाम

हार जीत का सबसे ज्यादा फर्क; उसको ही पड़ता है. नेता आते हैं जाते; कार्यकर्ता वहीं रह जाता है.

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