आधुनिक राजनैतिक इतिहास के प्रथम भारतीय गणराज्य की स्थापना सन 1950 में हुई थी। भारतीय उपमहाद्वीप अभी कुछ ही वर्ष पूर्व पंथीय विभाजन की विभीषिका से गुज़र चुका था। नेहरू के नेतृत्व में कुछ गणतांत्रिक व प्रजातांत्रिक मूल्य स्थापित हुए। 2014 से हो रही घटनाएं इस बात की ओर संकेत करती हैं कि भारत का बहुसंख्यक हिन्दू वर्ग स्वयं को उन छद्म मूल्यों की दासता से मुक्त करना चाहता है।
हाल के वर्षों में पश्चिमी देशों के समाचारपत्र, प्रमुख समाचार चैनल, ज़ोर शोर से इस बात का प्रचार कर रहे हैं कि भारत असहिष्णु होता जा रहा है, विशेष रूप से हिंदू समाज। उनके विचार से भारत एक पंथ निरपेक्ष लोकतंत्र से एक फासीवादी राष्ट्र के रूप में उभर रहा है, या उस दिशा में अग्रसर हो रहा है। यदि हम अपनी इनकार करने की मानसिकता को एक ओर रख भारतीय मानचित्र पर दृष्टि डालें, तो हम पाएंगे कि भारत में इस समय अराजकता व अशांति व्याप्त है। दिल्ली में हुए दंगे, शाहीन बाग में अकारण प्रदर्शन, प्रधानमंत्री की हत्या का छोटे छोटे बच्चों द्वारा आह्वान करना, मुस्लिम कार्यकर्ताओं व नेताओं द्वारा शाहीन बाग में आज़ादी या शेष भारत से पूर्वोत्तर राज्यों को काटकर अलग करने की बात करना व उनकी बातों को व्यापक समर्थन मिलना, इत्यादि अराजकता के कुछ प्रत्यक्ष प्रमाण हैं।
भारतीय राजनैतिक व आर्थिक प्रक्रियाएं एक सशक्त केंद्र सरकार के होते हुए भी अनिश्चितता से गुज़र रही हैं। ये सभी घटनाक्रम एक संकेत हैं। यह अराजकता अपने आप में के संकेत है। एक पुरानी व्यवस्था के पतन, व नई व्यवस्था के उदय का। यही है आधुनिक भारत के प्रथम गणतांत्रिक राज्य, जिसे हम नेहरूवादी गणतंत्र भी कह सकते हैं, उस राज्य के मूल्यों व व्यवस्थाओं का पतन। इन सबके साथ ही यह भारत के प्रथम गणतन्त्र की स्थापना के साथ आये बौद्धिक व अकादमिक मिथकों, व उस समय की राज्य व्यवस्था द्वारा किये गए छद्म पंथनिरपेक्षता के प्रोपोगंडा(दुष्प्रचार) का भी अंत है। यह उस पूरी गणतांत्रिक व्यवस्था के भवन का ध्वंस है जो भारत के एक हिन्दू राष्ट्र के मार्ग में बाधक थीं, क्योंकि यह अराजकता दो कारणों से आने वाले वर्षों में बढ़ती ही रहेगी।इसके दो प्रमुख कारण हैं।
पहला कारण है भारत का तीव्रता से जागृत व एकीकृत होता बहुसंख्यक हिन्दू वर्ग।यह जागृत वर्ग सात सौ वर्षों की आर्थिक व सांस्कृतिक, एवं सत्तर वर्षों की कठोर मानसिक दासता के
बंधनों से स्वयं को मुक्त करने के लिए छटपटा रहा है। इसी क्रम में इस वर्ग ने एक राष्ट्रवादी दल को 2014 में सत्ता पर बैठा दिया, व 2019 में उसे पुनः सिंहासन पर स्थापित किया। इसके बाद इस दल ने भारत के राष्ट्रवादी मनोबल को बढ़ाने के लिए अनेकानेक कदम उठाए।निस्संदेह उससे कई त्रुटियाँ भी हुईं।
दूसरा कारण है कि भारत में रहने वाले मुसलमान व ईसाई साधारणत: इस राष्ट्रवाद व हिंदुत्व के उदय को पचा नहीं पा रहे हैं, क्योंकि यह उनके भारत को एक इस्लामिक/ईसाई देश बनाने के दिवास्वप्न के पूर्ण होने के मार्ग में बाधक है।इस ना पचा सकने की स्थिति की घबराहट में वो इस राष्ट्र व हिंदुओं के विरुद्ध इतना विष वामन कर चुके हैं, कि जो हिन्दू कल तक पंथनिरपेक्षता की बातें करते थे, उनका भी विश्वास इस छद्ममूल्य से उठ चुका है। यही वर्ग आने वाले वर्षों में हिन्दू राष्ट्रवाद व हिंदुत्व को सुदृढ़ करेगा व इस सुदृढ़ीकरण से आहत ईसाई व मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग भारत में अशांति व अराजकता फैलाने का का भरपूर प्रयास व कुछ सीमा तक सफल भी होगा। और यह स्वाभाविक भी है क्योंकि यह हर पुरानी व्यवस्था के अंत व नई व्यवस्था के उदय के समय होता है।
इस पूरी परिस्थिति में में हमें कई विषयों का पुनरावलोकन करना चाहिए। इन विषयों में पहला है यह मिथक कि भारत एक पंथनिरपेक्ष राष्ट्र है अथवा कभी था। इस मिथक का भारत में उदय व स्थापन ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्रता के बाद ही कर दिया गया था।यह मिथक एक ऐसे भारतीय राष्ट्र व राज्य व्यवस्था की बात करता था जो पूर्ण रूपेण पंथनिरपेक्ष है, जहाँ हिन्दू मुसलमान वर्षों से खुशी खुशी साथ रह रहे थे।तथ्यात्मक रूप से, हिन्दू और मुसलमान भारत में एक साथ तो रह रहे थे, परन्तु यह सह-अस्तित्व जबरन था, और इसे खुशी खुशी कहना बहुत हास्यास्पद है, और इस मिथक को भारत के ही मुसलमानों ने भारत का विभाजन करके तोड़ दिया था।
हिंदुओं को हमेशा से यही पाठ पढ़ाया जाता रहा है कि आधुनिक भारतीय राज्य व्यवस्था का निर्माण भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की बुनियाद पर हुआ और यह संग्राम कथित ‘सेक्युलर’ प्रकृति का था जिसमें हिन्दू मुसलमान साथ मिलकर लड़े थे। यह मिथक तभी टूट जाता है जब हम इस संघर्ष के इतिहास की ओर दृष्टि डालते हैं और पाते हैं कि 1857 का विद्रोह, सन्यासी आंदोलन, संथाल विद्रोह,भारतीय राष्ट्रवाद का उदय,कांग्रेस में राष्ट्रवादी गरम दल का उदय, आदि, सभी अपने विचार व संस्कृति के मूल में हिन्दू थे। इन सभी आंदोलनों के मूल उद्देश्य हिन्दू भारत को सदियों के विदेशी शासनों से मुक्त कराना था। इनमें से किसी भी भी आंदोलन में भारतीय मुसलमानों ने तब तक भाग नहीं लिया जब तक उन्हें इसमें अपना निजी अथवा साम्प्रदायिक हित नहीं नज़र आया। उदाहरण के लिए,1857 के विद्रोह में भारतीय मुसलमानों के भाग लेने का मूल कारण भारत या उसकी संस्कृति से प्रेम नहीं बल्कि मुगल शासक बहादुर शाह जफर को पुनः सिंहासन पर बैठाने की लालसा थी।
कालांतर में तो हमने यह भी देखा कि मुसलमान कई मौकों पर एक राष्ट्र के रूप में हिंदुओं के विरुद्ध खड़े रहे। उन्होंने राष्ट्रवाद के हर उस प्रतीक का विरोध किया जिसके मूल में हिन्दू संस्कृति थी।वे भारत को माता मानने की विचारधारा के भी मुखर विरोधी थे। पूर्व में जब भी भारत में मुस्लिम शासन दुर्बल होता दिखाई दिया, भारतीय मुसलमानों ने किसी बाहरी शक्ति को पुकार लगाई। उदाहरण के लिए, मराठा साम्राज्य का उदय होता देख दिल्ली के शाह वलीउल्लाह देहलवी ने अहमदशाह अब्दाली को पत्र लिख कर भारत पर आक्रमण करने व भारत में मुस्लिम शासन पुनः स्थापित करने के लिए आमंत्रित किया था जिसका अंतिम परिणाम पानीपत के युद्ध में मराठों की पराजय के रूप में सामने आया। ज्ञात हो कि यह व्यक्ति सबसे कट्टरपंथी इस्लामिक विचारधारा यानी वहाबी विचारधारा के जनक अब्द-अल-वहाब का शिष्य रह चुका था।
एक अन्य उदाहरण टीपू सुल्तान का है।जिस टीपू सुल्तान का गुणगान करते आजके वामपंथी इतिहासकार थकते नहीं, उसका ब्रिटिश शासन से संघर्ष किसी राष्ट्रप्रेम के कारण नहीं था। उसके मालाबार की हिन्दू जनता पर किये गए अत्याचार उसकी हिन्दू विरोधी मानसिकता के प्रमाण हैं।उसके ही किये हुए अत्याचारों का अंतिम परिणाम मालाबार में मापिल्ला (अंग्रेजी अपभ्रंश मोपला) मुसलमानों द्वारा हिंदुओ के व्यापक नरसंहार के रूप में सामने आया था।
कांग्रेस ने, जिसकी प्रमुख पहचान एक हिन्दू दल की थी, अपनी स्थापना के कुछ समय बाद ही अपने राजनैतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए, अथवा अपनी मूर्खता/दास मानसिकता के वशीभूत होकर भारत में हिन्दू मुस्लिम एकता का मिथक गढ़ा जिसके अनुसार भारत में हिन्दू मुस्लिम सदियों से सौहार्दपूर्ण संबंध निभाते हुए साथ रह रहे थे। कांग्रेस ने बंगाल में हो रही राष्ट्रवादी गतिविधियों को छिटपुट, अलग थलग, निर्बल व सतही सिद्ध करने का भरपूर प्रयास भी किया, जो कि वास्तव में अंदरूनी व व्यापक थीं। परंतु सत्य यह था कि कांग्रेस की स्थापना से कई वर्ष पूर्व से चल रहे समाज सुधार के प्रयास हिन्दू प्रकृति के थे। जब भारतीय इतिहास का पुनर्लेखन हुआ, तब भारत के प्राचीन नायकों जैसे चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य आदि से भारतीयों को अवगत कराया गया।ये सभी नायक अपने मूल में हिन्दू राष्ट्रवाद की भावना ही तो लिए हुए थे।
उस समय का हर दल, हिन्दू मुस्लिम एकता की बात करते हुए भी हिन्दू संस्कृति को मूल में लेकर कार्य कर रहा था। यहाँ तक कि कम्युनिस्ट पार्टी के शहीद भगतसिंह व उनके साथियों ने आंदोलन का आरंभ देवी काली के सामने शपथ लेकर की थी। वस्तुतः यह हिन्दू राष्ट्रवाद लिया हुआ आंदोलन कोई नया आंदोलन ना होकर उसी आंदोलन का विस्तार था जो हिन्दू भारत में आंग्रेज़ों के आगमन के पूर्व मुग़ल व अन्य मुस्लिम आक्रांताओं के विरुद्ध कर रहे थे। यह भारत में हिन्दू शासन के ही पुनरोदय की एक कड़ी था। प्रचलित मत के विपरीत, भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का आगमन हिन्दू शासन के उदय में बाधक ही बना था, अन्यथा यदि भारत का कभी विभाजन होता भी, तो भी हमें मुसलमान वर्ग इतना बड़ा भूभाग नहीं देना पड़ता, व वह विभाजन पूर्ण होता जिसमें जनसंख्या की सम्पूर्ण अदलाबदली होती।निस्संदेह भारत में कुछ शक्तिवान इस्लामिक राज्य जैसे हैदराबाद, मैसूर, बंगाल आदि थे, परंतु व्यापक रूप में भारत में इस्लामिक शासन का सूर्य अस्त ही हो रहा था। निस्संदेह हमें यह नहीं भूलना चाहिये कि भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की विजय अत्यंत क्रूर प्रकृति की थी, जिसमें कई नरसंहार थे।इसी ब्रिटिश सत्ता ने अपनी जड़ें मजबूत करने के लिए बाद में मुसलमानों का हिंदुओ के विरूद्ध भरपूर उपयोग भी किया था।
यदि हम मूल हिन्दू मानसिकता पर दृष्टि डालें तो यह पाएंगे कि हिन्दू वर्ग के बीच कभी भी अपनी मूल सनातन पहचान का कभी अभाव या उसको लेकर कोई संशय नहीं था। एक समग्र भारतवर्ष का विचार आदिकाल से ही अपने अस्तित्व में था।हिन्दू यह जानता था कि वह कौन है,परंतु वह यह नहीं जानता था कि वह कौन नहीं है।जबकि मुसलमान व ईसाई हमेशा से जानते थे कि वे मूर्तिपूजक नहीं हैं, वे बहुईश्वरवादी नहीं हैं। ब्रिटिश शासकों ने हिन्दू स्वतंत्रता सेनानियों के समक्ष सबसे बड़ी चुनौती यह रखी कि वे अपनी के ऐसी पहचान सिद्ध करें जो जाति, भाषा, क्षेत्रीयता से परे सभी हिंदुओ को एकजुट दिखा सके। हिंदुत्व इसी चुनौती का सबसे शक्तिशाली प्रतिउत्तर था, जिसने सभी सनातनधर्मियों को एक सूत्र में बांधने का कार्य किया। हिंदुत्व वास्तव में हिंदू/सनातन धर्म का एक राजनैतिक अवतार था व है।यह इस्लामिक एवं पश्चिमी साम्राज्यवाद को एक चुनौती थी, जो कि यह आज भी है। यह अलग अलग सनातन परंपराओं को मानने वाले राष्ट्रवादियों को साथ लाकर बना है जो साम्राज्यवाद का प्रतिघात करना चाहते थे।
जहाँ एक तरफ भारत में हिंदू शासन के पुनर्स्थापन की प्रक्रिया चल रही थी, दूसरी तरफ भारतीय उपमहाद्वीप में इस्लामिक साम्राज्यवाद अब अपने अखिल भारतीय रूप में पुनः अपना सिर उठा रहा था, जिसका मूल उद्देश्य अपने सामंती विशेषाधिकारों की सुरक्षा करना था। इसका स्पष्ट उदाहरण हम मालाबार नरसंहार में देखते हैं। यह नरसंहार ज़मींदारों के विरोध, व खिलाफत आंदोलन के रूप में शुरू हुआ था, परंतु कुछ ही समय में इसने अपना हिंदू विरोधी रूप दिखाना शुरू कर दिया। बिना किसी जातिगत भेदभाव, सभी वर्ग के हिंदुओं की हत्याएं की गईं, महिलाओं का बलात्कार किया गया, अनेकानेक मंदिरों का विध्वंस हुआ, हिंदुओं की पीढ़ियों की संपत्तियां लूट ली गयीं। और यदि मोहम्मद अली व शौकत अली के उस समय के हिंदू विरोधी भाषणों को देखें तो स्पष्ट होता है कि यह सब किसी आवेश में नहीं होकर के सुनियोजित हिंसात्मक षड्यंत्र था। यदि हम खिलाफत आंदोलन की बात करें तो पाएंगे कि इस आंदोलन का भी मूल उद्देश्य एक राष्ट्र के रूप में भारत की ब्रिटिश साम्राज्य से स्वतंत्रता नहीं थी। इसका उद्देश्य तुर्की में खलीफा शासन की पुनः स्थापना करना था जिसे ब्रिटिश साम्राज्य ने अपदस्थ किया था व स्वयं तुर्की की जनता ने अस्वीकृत कर दिया था।
स्पष्ट है कि मुस्लिम समाज अब भी स्वयं को भारतीय राष्ट्र का हिस्सा नहीं मानकर स्वयं को एक वैश्विक इस्लामिक उम्मा से जोड़कर देखता था।यहाँ तक कि स्वयं को एक मुस्लिम समाज सुधारक कहने वाले सैयद अहमद खान ने मेरठ में भाषण देते हुए यहाँ तक स्पष्ट कह दिया कि हिंदू और मुसलमान कभी भी एक साथ सत्ता में बैठकर सत्ता की शक्तियां नहीं बाँट सकते।वह यहाँ तक कह चुके हैं कि यदि भारत में सत्ता की लड़ाई में मुसलमान हिंदुओं से परास्त होते हैं तो उनके मुसलमान भाई पठान पहाड़ों से निकल कर एक टिड्डी दल की तरह भारत पर आक्रमण कर देंगे उत्तरी पहाड़ों से बंगाल के छोर तक रक्त की नदियाँ बहा देंगे। सैयद अहमद ने मुसलमानों द्वारा भारत में ब्रिटिश साम्राज्य को मजबूत बनाने में पूरा सहयोग देने का आह्वान भी किया।व्यापक जनसमर्थन के बीच उन्होंने बंगाल के राष्ट्रवादियों पर भरपूर निशाना साधा।यह प्रत्यक्ष प्रमाण था मुसलमानों व उनके नेताओं की हिंदू विरोधी मानसिकता का।
भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के हिंदू चरित्र को 1920 के दशक के मध्य तक साधारणतया कभी अस्वीकार नहीं किया गया।परन्तु जब इस्लामिक साम्राज्यवाद सिर उठाने लगा, तब उसको रोकने के उद्देश्य से, कांग्रेस ने मोहनदास करमचंद गांधी के नेतृत्व में हिंदू-मुस्लिम एकता के मिथक को गढ़ने का कार्य प्रारंभ कर दिया।यहाँ पर यह उल्लेखनीय है कि जब बात इस्लामिक विचारधारा की कट्टरता,उसके विचारों में घुले साम्राज्यवाद, व उसके कट्टर बुद्धिजीवी वर्ग की आती है,तब हिंदू समाज सबसे अनभिज्ञ व सबसे अधिक अज्ञान की स्थिति में होता है।इसी कारण से हिंदुओं के बीच यह मिथक फैलाना कांग्रेस के लिए और भी सरल हो गया।कांग्रेस को लगा कि यह कथित गंगा जमुनी तहजीब का मिथक, उपमहाद्वीप के मुस्लिम प्रश्न का उत्तर होगा। यद्यपि यह मिथक पाकिस्तान के बनने के बाद टूट गया,परंतु कांग्रेस ने राज्य तंत्र द्वारा दुष्प्रचार के माध्यम से इस मिथक को फैलाना सतत जारी रखा।
हिंदू मुसलमान भारत में रह तो रहे थे,परंतु साथ साथ नहीं। वे साधारणतः कभी भी एक मोहल्ले या एक गाँव में नहीं रहते थे।जिस हिंदू मुस्लिम मिश्रित संस्कृति की कांग्रेस बात कर रही थी, वह वास्तव में केवल सतही थी। इसका निर्माण दो कारणों से हुआ था। पहला यह कि मुस्लिम आक्रांताओं ने बलपूर्वक कई हिंदुओं का पंथ परिवर्तन करवा दिया था। यह हिंदू,समाज के सभी वर्णों से आते थे। बलात पंथ परिवर्तन करने के बाद भी इन्होंने हिंदू संस्कृति का कुछ अंश अपनाए रखा। परंतु अब वह भी स्वयं को मूल भारतीय संस्कृति अर्थात हिंदू संस्कृति से अलग मानते थे वह स्वयं को मुस्लिम उम्माह से जोड़कर देखते थे। स्मरण रहे कि 19वीं शताब्दी में भारत में देवबंदी व वहाबी विचारधारा के काफी प्रचलित होने के कारण सभी बची हुई परंपराएं भी इस्लाम से निकाल कर फेंक दी गयीं। दूसरा कारण यह है कि हिंदू और मुस्लिम दोनों के ही उच्च वर्ग के सामंत व धनी लोग नगरों में साथ बैठकर संगीत व नृत्य का आनंद अवश्य लेते थे परंतु यह कोई समग्र, मिश्रित या एकीकृत संस्कृति ना होकर, केवल उच्च वर्ग तक सीमित कुलीन संस्कृति थी। जबकि आम जनता के बीच अब भी, हिंदू संस्कृति ही व्यापक थी व मुस्लिम संस्कृति अभी स्वयं में अलगाव की भावना समेटे हुए थी। यह कथित मिश्रित संस्कृति या गंगा जमुनी तहजीब कभी भी व्यापक ना होकर केवल सतही थी, व यह भी कुछ प्रमुख नवाब शासित नगरों जैसे दिल्ली लखनऊ मुर्शिदाबाद तक सीमित थी। इस अलगाववाद की सत्यता तो भारत के विभाजन ने स्वयं ही सिद्ध कर दी थी।
दुर्भाग्य से,या कहें एक ऐतिहासिक दुर्घटना के रूप में, इस हिंदू मुस्लिम एकता के मिथक को फैलाने वाले नेहरूवादी अभिजात वर्ग ने भारत के विभाजन व स्वतंत्रता के बाद सत्ता हथिया ली व इस मिथक को फैलाना जारी रखा गया। यह भारतीय अथवा हिंदू राष्ट्रवाद के लिए एक बड़ा झटका अवश्य था, परंतु अभी भी वह परास्त नहीं हुआ था। वास्तव में भारत का पहला गणराज्य, जो कि एक पंथ निरपेक्ष राज्य होने का दावा करता था, अपनी मूल प्रकृति में कभी भी एक पंथ निरपेक्ष राज्य था ही नहीं। बल्कि वह एक सुधारवादी हिंदू राज्य था। उदाहरण के लिए, भारत के हजारों वर्षों के इतिहास में यह पहली राज्य व्यवस्था थी जिसने स्पष्ट रूप से अस्पृश्यता को न केवल समाप्त किया बल्कि उसे एक अपराध भी घोषित किया। इस राज्य में भारत के प्राचीन प्रतीकों व मंदिरों का जीर्णोद्धार का कार्य प्रतिरोध के बाद भी जारी रखा। यह राज्य व्यवस्था कभी भी मुस्लिम व ईसाई मतों के धार्मिक मामलों में अधिक हस्तक्षेप नहीं करती थी, परंतु समय-समय पर हिंदू समाज के सुधार हेतु कदम उठाती रहती थी, जो कि यद्यपि हिंदू विरोधी दुर्भावना लिए होते थे।
इन सुधारों का अर्थ यह बिल्कुल भी नहीं था, कि भारत का शासक वर्ग हिंदुओं के प्रति कोई विशेष सद्भावना रखने लग गया था। वह अभी भी हिंदुत्व अथवा हिंदू राष्ट्रवाद के मार्ग में अपने हिंदू मुस्लिम एकता के मिथक के द्वारा बाधा उत्पन्न कर रहा था। परंतु राज्य प्रणाली व कई अन्य घटनाक्रमों से हिंदू समाज में सुधार होते रहे व हिंदू एकीकृत होते रहे। हिंदू कोड बिल ने अपने पीछे की दुर्भावना के रहते हुए भी भारत के अलग-अलग परंपराओं को मानने वाले हिंदू समाज को कहीं ना कहीं वैधानिक रूप से एक छत्र के नीचे ला खड़ा किया। इस राज्य प्रणाली ने भारत के कई प्रांतों से राजकीय भाषा के रूप में फारसी अथवा उर्दू को अपदस्थ करके भारतीय भाषाओं को स्थान दिया उनके विकास का कार्य किया। राज्य प्रणाली ने बहुत हद तक दलितों व आदिवासियों को हिंदू समाज की मुख्यधारा में समायोजित करने का कार्य किया व पुनः हिंदुओं को एकीकृत करने का कार्य किया। यद्यपि उस समय के शासक वर्ग की मंशा, जातिगत व वर्ग के आधार पर हिंदुओं को बांटने की ही थी परंतु हिंदू समाज एकीकृत होता रहा। शासक वर्ग के दुर्व्यवहार के बीच ही, हिंदू अपनी शास्त्रीय व लोक कलाओं को मजबूत व समृद्ध करते रहे। भले ही आज के धुर दक्षिणपंथी हिंदू, राज्य को हिंदू मंदिरों से बाहर करना चाहते हों, परंतु प्रारंभ में राज्य के हस्तक्षेप से ही कई मंदिरों का उद्धार हुआ था और इसमें उन्हें काफी जन समर्थन भी प्राप्त था। निस्संदेह इसी शासक वर्ग ने आगे चलकर मंदिरों व हिंदू समाज में अवांछनीय हस्तक्षेप करना भी प्रारंभ कर दिया। भारतीय राज्य प्रणाली या गणराज्य हमेशा से ही अपने मूल रूप में सुधारवादी हिंदू गणराज्य था। यह हिंदू सुधारवाद हमेशा से ही राज्य की मूलधारा में था ना कि सतही। यदि कुछ अल्पमात्रा या अल्पसंख्या में था तो वह था कथित पंथनिरपेक्ष नेहरूवादी राजनैतिक वर्ग जो दुर्भाग्य से सत्ता पर बैठा हुआ था।भारतीय गणराज्य इंकार की स्थिति में रहने वाला हिंदू गणराज्य था।
इस समय जो अराजकता या अशांति भारत में दिख रही है, वह वास्तव में उसी इंकार की स्थिति में रहने वाले हिंदू गणतंत्र की टूटती अथवा बदलती व्यवस्था का प्रतीक है, क्योंकि जब भी पुरानी व्यवस्था के स्थान पर नई व्यवस्था आती है, अराजकता व अशांतिपूर्ण विद्रोह अपरिहार्य होता है।
इस पुरानी व्यवस्था के टूटने के प्रमुख कारण हैं: नगरीकरण,औद्योगिकरण,समाज सुधार,बढ़ती मुस्लिम जनसंख्या,आज के भारत में इस्लामिक साम्राज्यवाद का पुनः उदय, 2014 के आम चुनाव के परिणाम व उससे पहले के शासन की हिंदू विरोधी नीतियां।
हिंदू समाज के सुधार की प्रक्रिया तो 19वीं शताब्दी में ही शुरू हो चुकी थी। परन्तु भारत के नए गणतंत्र ने इसे एक त्वरित व संस्थागत रूप किया। जब भारत का नगरीकरण व औद्योगिक करण होने लगा,तो गांव से सभी वर्गों और वर्णों के हिंदू शहरों में आकर साथ-साथ रहने लगे उनके बीच की सामाजिक दीवारें टूटने लगी जो कि गांव में रहने की स्थिति में कभी नहीं टूटतीं। इससे हिंदू धीरे-धीरे सभी वर्गभेद बुलाते हुए हिंदुत्व की भावना से एकीकृत होने लगे। 90 के दशक के उदारीकरण के बाद हिंदूओं के निर्धन वर्ग ने कई सफलता की कहानियां देखीं, और उसका लक्ष्य अब कोई क्रांति लाना ना होकर संपन्नता लाना हो चुका था, जिससे भारत में साम्यवाद का बचा हुआ प्रभाव भी खत्म होने लगा। हिंदुओं की अपनी सांस्कृतिक जड़ों की पकड़ वापस मजबूत होने लगी।
प्रथम भारतीय गणराज्य की स्थापना के प्रारंभ में, भारत में मुस्लिम जनसंख्या अत्यंत अल्प रह गई थी। आम हिंदू जनमानस स्वयं को पहले से अधिक सुरक्षित व भयमुक्त अनुभव करने लगा था। परंतु इस सुरक्षा की भावना से अति उत्साहित भारतीय शासन व्यवस्था ने,स्वयं को हिंदू विरोधी मानसिकता से ग्रस्त कर लिया,व मुस्लिम जनसंख्या को निरंकुश बढ़ने दिया। कालांतर में देश के अलग-अलग कोनों में बढ़ी हुई मुस्लिम जनसंख्या ने, आम हिंदू के प्रतिदिन के जीवन को हिंसा अशांति व अराजकता से भर दिया। कल तक जो मुसलमान हिंदुओं के लिए मित्रवत अल्पसंख्यक थे, अब अपने कुकृत्यों व बढ़ती जनसंख्या के कारण हिंदुओं के भावी शत्रु बन चुके थे। हिंदुओं के एकीकरण की मजबूत शुरुआत के बाद उनका कथित पंथनिरपेक्षता से भरोसा उठने लगा था। वहीं दूसरी ओर देश के मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में रहने वाले मुसलमान इस्लामिक शासन का दिवास्वप्न देखने लगे थे। हिंदुत्व के महायज्ञ में इस साम्राज्यवाद ने घी की आहुति का कार्य किया।
2005 से 2014 तक भारत पर शासन करने वाले यूपीए घटक दलों ने अपनी हिंदू विरोधी मानसिकता से हिंदू समाज को आतंकवादी सिद्ध करने का भरपूर प्रयास किया, चरणबद्ध रूप से उसे शक्तिहीन करने का प्रयास किया, उसे अलग-थलग करने का कार्य भी किया। इन सब से त्रस्त होकर उसने अपनी पूरी शक्ति के साथ इस छद्म पंथनिरपेक्ष गणराज्य इस व्यवस्था को उखाड़ फेंकने का निर्णय लिया। इसका अंतिम परिणाम हमें 2014 के चुनाव में देखने को मिला। तब सत्ता में बैठा दल यह तो जानता था कि आम हिंदू जनता उससे क्या चाहती है, परंतु पहली बार सत्ता में स्पष्ट बहुमत के साथ होने के कारण वह तेज़ी से अपने हिंदुत्ववादी निर्णय को आगे बढ़ाने का साहस नहीं कर पा रहा था। तब उसने भारत को अंतरराष्ट्रीय मंच पर सामर्थ्यवान राष्ट्र के रूप में स्थापित करने का कार्य किया। पाकिस्तान समर्थित आतंकवादियों पर की हुई अपनी सीमा पार कार्यवाही में उसने भारत का शक्ति प्रदर्शन किया। इस दौरान भारतीय राजनीति का गढ़ माने जाने वाले उत्तर प्रदेश राज्य में बहुसंख्यक हिंदुओं ने अत्यंत सांप्रदायिक कहे जाने वाले श्री योगी आदित्यनाथ को सत्ता के सिंहासन पर बैठाया। संदेश स्पष्ट था। हिंदू केवल विकास नहीं चाहता था। वह भारत की एक एक हिंदू विरोधी व्यवस्था को ध्वस्त करना चाहता था। वह देख रहा था कि मुसलमानों का एक बड़ा वर्ग भारतीय सरकार द्वारा आतंकवादियों पर की गई कार्यवाही का अप्रत्यक्ष विरोध व पाकिस्तान का अप्रत्यक्ष समर्थन कर रहा है। संभवतः यह उस कथित हिंदू मुस्लिम एकता के मिथक के ताबूत की अंतिम कील थी।
2019 के आम चुनाव में हिंदुओं ने भारतीय जनता पार्टी को पहले से भी प्रचंड बहुमत देकर सत्ता में भेजा व सभी अनुमानों को मिथ्या सिद्ध कर दिया। अपने 5 साल के कार्यकाल से सीखते हुए सत्ताधारी दल ने हिंदू भावनाओं को समझा, व 5 अगस्त 2019 को जम्मू कश्मीर राज्य का पूर्णरूपेण एकीकरण भारत के साथ अनुच्छेद 370 एवं 35a को निष्प्रभावी बनाकर कर दिया गया। शासकों ने अपने पिछले कार्यकाल में ही हज सब्सिडी समाप्त कर व तीन तलाक के विरुद्ध दंड का विधान बनाकर अपना संदेश स्पष्ट कर दिया था।
9 नवंबर 2019 को उच्चतम न्यायालय के निर्णय से अयोध्या में राम मंदिर के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो गया। अब तक के घटनाक्रमों से मुस्लिम साम्राज्यवादियों की घबराहट बढ़ रही थी, जो कि उनके नेताओं के राष्ट्र विरोधी वक्तव्यों में झलक भी रही थी। 9 दिसंबर को आए नागरिकता संशोधन अधिनियम ने मुसलमानों के एक बड़े वर्ग को एक बहाना दे दिया, भारत की सड़कों पर उतरकर हिंसा व अराजकता फैलाने व सत्ता को अपनी शक्ति का परिचय देने का। यह रोष नए नागरिकता नियमों के विरुद्ध नहीं था। वास्तव में यह क्रोध था हज सब्सिडी, तीन तलाक, अनुच्छेद 370 एवं अयोध्या के निर्णय के लिए। उन्हें आपत्ति थी भारत में नए हिंदू नागरिकों के शामिल होने से। मुसलमान यह समझ चुके थे, कि बहुसंख्यक हिंदू के संगठित होने के कारण अब कोई संभावना नहीं है, कि वे वापस भारत के शासक वर्ग का हिस्सा बन, हिंदुओं पर फिर वही अत्याचार कर सकेंगे जो उनके पूर्वज करते थे। इसी कारण से वह हर जगह अशांति व अराजकता फैलाकर भारत की ओर विश्व का ध्यान आकृष्ट कर स्वयं की सत्ता वर्ग में वापसी चाहते हैं या कम से कम हिंदुओं को भयभीत तो करना ही चाहते हैं।
बदलते घटनाक्रमों ने यह तो स्पष्ट कर ही दिया है कि इस्लामिक अराजकता आने वाले समय में केवल इस जंग खा चुकी गणतांत्रिक व्यवस्था को उखाड़ फेंक नई गणतांत्रिक व्यवस्था बनाने के हिंदू संकल्प को मजबूत ही करेगी। वास्तव में भारत हिंदू राष्ट्र बनने की ओर अग्रसर होते हुए भी कोई अप्राकृतिक या अकल्पित दिशा नहीं ले रहा है।यह दिशा तो भारत ने मराठा साम्राज्य के उदय के साथ ही पकड़ ली थी। ब्रिटिश आगमन व 1950 में स्थापित प्रथम भारतीय गणराज ने भारत की उस दिशा में बाधा का ही काम किया था।वस्तुतः भारतीय जनता पार्टी भारत के लिये उसी दिशा में बढ़ने का एक राजनैतिक साधन है, जिसकी यात्रा भारत सदियों से कर रहा था, जिसका गंतव्य भारत में हिंदू शासन की पुनर्स्थापना है।
संघर्षों के कई दौर से होते हुए हम सब यहां तक आ गए हैं। यह यात्रा 2014 से और भी त्वरित हो गयी।परंतु यहाँ से आगे का मार्ग सरल नहीं है। समाप्त होते प्रथम भारतीय गणतंत्र का केवल एक ही विकल्प है- हिंदुत्व।आज सुदूर दक्षिण में हिंदुओं का सशक्त एकीकरण हो रहा है। कश्मीर भारत में पूर्णता के साथ एकीकृत हो चुका है। द्रविड़ राजनीति भी अब समाप्ति की ओर है। नागरिकता संशोधन अधिनियम मूर्त रूप में है। निकट भविष्य में एनआरसी भी आएगा। परंतु हमे रुकना नहीं है व अनवरत हिंदू समाज का एकीकरण जारी रखना है।सभी के बीच जातिगत,भाषा,प्रान्त इत्यादि के भेद समाप्त करने हैं।
अब भी भारत में हमारे लाख इनकार करने के बावजूद, जातिगत हिंसा की घटनाएं हो रही हैं।इनका समाप्त होना भारत के हिंदू राष्ट्र बनने के लिए नितांत आवश्यक है।दुर्भाग्य से भारत के कई दक्षिणपंथियों व दिल्ली पर विजय प्राप्त करने वाले मराठा योद्धाओं में एक समानता है।दोनों को ही नहीं पता कि शासन स्थापित करने के बाद आगे क्या करना है।अभी तक हिंदुत्ववादियों के पास कोई व्यापक शासन योजना नहीं है, जिसके ना होने के कारण यह विचारधारा केवल प्रतिक्रियावादी लगने लगती है। वे नहीं जानते कि भारत को हिंदू राष्ट्र (संवैधानिक या अन्य रूप में) बनाने के बाद का मार्ग क्या होगा उस समय का शासन तंत्र किस प्रकार कार्य करेगा। उस समय न्याय व्यवस्था कैसी होगी, न्याय शास्त्र कैसा होगा।वह राज्य हिंदू संस्कृति के शत्रुओं का किस प्रकार दमन करेगा अथवा उन्हें किस प्रकार हिंदू संस्कृति के प्रति स्वामी भक्त बनाएगा।राज्य की राजभाषा क्या होगी राज्यों के बीच के संबंध किस प्रकार होंगे। उनके बीच की भाषा क्या होगी। बदलते समय के साथ किस प्रकार हिंदू संस्कृति को संरक्षित करना है। यह सभी इस समय के हिंदुत्ववादी नेताओं के लिए गहन चिंतन व हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए गहन शोध एवं योजना का विषय होने चाहिए। इस समय का अकाट्य सत्य यही है कि हिंदू राष्ट्र एक अटल भविष्य है। यदि कोई अनिश्चितता है तो वह इसकी स्थापना के बाद की व्यवस्था को लेकर के हैं। जितनी जल्दी यह अनिश्चय की स्थिति समाप्त हो उतना ही उज्जवल हिंदू राष्ट्र का भविष्य होगा।