हर बार चीन ही भारत की सीमा पर हलचल की पहल क्यों कर जाता है? इसका जवाब 2013 में कॉन्ग्रेस सरकार के रक्षा मंत्री एंटनी ने दिया था, “आजादी के बाद से ही सीमावर्ती इलाकों में रोड इसलिए नहीं बनाईं गई क्योंकि भारत की सरकारों को डर था कि अगर चीन ने सीमा पर तैनात भारतीय जवानों को मार भी दिया तो भी वह खराब रास्तों की वजह से भारतीय क्षेत्र में ज्यादा अंदर नहीं घुस पाएगा!”


ये बेहद ही डरपोक और गिरे हुए मनोबल की सोच थी जिसके चलते चीन सीमा पर दुर्गम पहाड़ी इलाकों में सेना और हथियारों की तैनाती करने में जहां चीनी फौज कुछ घंटों में अपने ट्रकों से ठीक सरहदी पोस्ट तक पहुंच जाती थी, जबकि भारतीय सेना को उसी काम के लिए ट्रेकिंग और खच्चरों का इस्तेमाल करने के कारण कुछ दिन लग जाते थे। और पहाड़ी की लड़ाई में संख्याबल बहुत मायने रखता है, 1962 में भी चीन ने जब तक बर्फीली पहाड़ियों वाली सीमा पर 80000 से ज्यादा की फौज पूरे साजो-सामान के साथ उतार दी थी, तब तक हम केवल 20000 जवान ही भेज पाए। उन 20000 के पास भी न बर्फ में चलने वाले जूते मिले, न उचित गर्म कपड़े, हथियारों की तो बात ही न करें तो बेहतर है।
1962 के बाद जगह-जगह चीन ने अतिक्रमण करने के लिए सीमावर्ती इलाकों में सड़कें बनाई और जब-तब हमें चीनी घुसपैठ की खबरें सुनने को मिलीं। क्योंकि 1975 के बाद भारत-चीन सीमा पर कोई गोली नहीं चली और गलवान घाटी झड़प तक कभी किसी जवान की जान भी नहीं गई तो न हमारी मीडिया ने कुछ ध्यान दिया और न जनता ने, मगर चीन अपना जहां एक तरफ भारत से व्यापार कर के अपनी अर्थव्यवस्था मजबूत कर रहा था, वहीं उसी पैसों से सरहदी इलाकों में लगातार अपना इंफ्रास्ट्रक्चर बढ़ा रहा था! इतना कुछ हुआ तो देर से ही सही, हम जाग ज़रूर गए और हमने भी अपनी नीतियों में बदलाव किया।
वाजपेई सरकार ने 2002 में असम के बोगीबील पुल पर काम शुरू कर पूर्वोत्तर सीमा पर सेना की पहुंच को आसान बनाने की दिशा में काम किया। 2008 में दौलत बेग ओल्डी सेक्टर में भारतीय वायुसेना ने बिना सरकार को बताए(चीन के डर से सरकार पहले उस प्रस्ताव को नामंजूर कर चुकी थी) ही 1965 से बंद पड़ी हवाई पट्टी को फिर से चालू कर दिया, आज उसी हवाई पट्टी के द्वारा गलवान घाटी और आस-पास इलाकों में जवानों और साजो-सामान की तैनाती हो रही है। बॉर्डर रोड्स ऑर्गनाइज़ेशन(BRO) डोकलाम, पूर्वोत्तर सीमांत इलाकों और लद्दाख के कई इलाकों में भी सीमाओं को सड़कों से जोड़ने का काम कर रहा है, पुराने पुलों की जगह युद्ध टैंकों के लायक नए पुल बना रहा है, साथ ही नई लेह-बिलासपुर रेल लाइन जैसी अतिमहत्वपूर्ण परियोजनाओं और कई हवाई पट्टियों पर भी काम चल रहा है! इन परियोजनाओं ने ही चीन को चिंता में डाला हुआ है क्योंकि अभी तक वो ये सोच कर निश्चिंत था कि उसकी सेना तो कभी भी भारत में घुस सकती है, मगर भारत उसके इलाके में आने के बारे में सोच भी नहीं सकता, मगर अब चीन को ये डर भी है कि सही मौका देखकर कहीं भारत अपने इलाके वापस न छीन ले। पहले चीन को युद्ध का खतरा अपने पूर्वी क्षेत्रों में साउथ चाइना सागर की ओर से लगता था, भारत की तरफ से नहीं, मगर अब उसको भारत से सटी हजारों मील लंबी सीमा पर चिंता सता रही है।
ये सही बात है कि हम भारत-चीन से कई ज़्यादा भारत-पाकिस्तान के संभावित युद्ध की चर्चाएं सुनते हैं, पर सच यह है कि पाकिस्तान को तो हम कभी भी हरा सकते हैं, मगर पाकिस्तान को असली खुराक़ चीन से मिलती है, चीन हार गया तो पाकिस्तान अपने-आप घुटनों पर आ बैठेगा। चीन से इतना व्यापार, शिक्षा और कई मेल-जोल वाले काम होते रहे हैं मगर अक्साई चिन और अरुणाचल प्रदेश के खोए इलाके वापस लेने के लिए आज न सही कल ही सही, युद्ध होना तो निश्चित है। 1962 युद्ध के समय नवंबर 1962 को रेडियो संबोधन पर नेहरू ने भी कहा था “जो लड़ाई हमारे सामने है, उसको हमें जारी रखना है, थोड़े दिन नहीं बहुत दिन, महीनों नहीं सालों रखना है जारी, हम लड़ते जाएंगे!”
1962 में हमारी सरकार की एक बड़ी गलती यह भी थी कि हम रूस और अमरीका पर भी निर्भर थे, मगर उसी समय क्यूबा को ले कर उन दोनों की आपस में तनातनी चल रही थी, चीन ने इसका पूरा फायदा उठाया। दूसरे देश आपका कितना भी आर्थिक, वैचारिक और राजनैतिक समर्थन क्यों न करें, आपके युद्ध में अपने फौजियों को नहीं उतारेंगे। हमारी महाभारत के गीता उपदेश में भी श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है “अपने कर्तव्य को पहचानो और तब निर्णय लो क्योंकि निर्णय तो तुम्हीं को लेना पड़ेगा। यदि तुम ये चाहते को कि निर्णय मैं लूं और तुम इस युद्ध के उत्तरदायित्व से बच जाओ, तो ऐसा संभव नहीं है क्योंकि ये युद्ध भी तुम्हारा है और इस युद्ध का परिणाम भी तुम्हारा ही होगा!” प्रधानमंत्री मोदी भी आज-कल कह रहे हैं, “आत्मनिर्भर बनो!”