जब भी भारत और चीन के बीच सीमा पर टकराव होता है कुछ पुरानी बातें और तक अपने आप अपने आप ही याद आ जाते हैं। भारत के लोगों को मन में हमेशा से यह पीड़ा रही है कि अगर चीन मामले में भारत ने इतिहास में इतनी बड़ी-बड़ी गलतियां ना की होती तो आज चीन भारत को धमकी देने की स्थिति में नहीं होता। हम सबको बचपन में स्कूल से लेकर कॉलेज तक यही बताया गया है कि चीन शक्तिशाली देश है और चीन से हम कभी जीत नहीं सकते। 1962 के युद्ध में हम उस चीन से हार कर शर्मिंदा हुए जिस चीन की उस समय दुनिया में कोई खास हैसियत तक नहीं थी। 1962 में करीब 1 महीने के युद्ध में चीन से हम हार गए थे। हमारे करीब साढे 3000 सैनिक शहीद हुए हुए थे और भारत में करीब 43000 वर्ग किलोमीटर जमीन पर कब्जा कर लिया था। हमें रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण अक्साई चिन को भी गंवाना पड़ा था। आज भी चीन अरुणाचल प्रदेश के बड़े हिस्से पर अपना दावा करता है और उसे तिब्बत का हिस्सा मानता है।
लेकिन यह सब कैसे हुआ और क्यों भारत को चीन के सामने इस तरह शर्मिंदा होना पड़ा था?
1962 की हार सेना की हार नहीं थी बल्कि राजनैतिक नेतृत्व की हार थी। राजनैतिक नेतृत्व में गलतियां की थी इसकी वजह से हुआ था। 1962 में चीन के साथ युद्ध से ठीक पहले यही हो रहा था। प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और जनरल थिमैया से जुड़ी हुई कहानी है।
जनरल थिमैया 8 मई 1957 को भारत के सेना प्रमुख बने थे. उनका युद्ध का बहुत पुराना अनुभव था, और इसमें खास तौर पर 1948 में उन्होंने लेह, लद्दाख, द्रास, कारगिल को पाकिस्तानी हमलावर से मुक्त करवाया था। जब जनरल प्रमुख सेना बने तो उनके लिए सबसे बड़ी चुनौती उन समय की राजनैतिक नेतृत्व से लड़ने के लिए बन गई। क्योंकि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और तत्कालीन रक्षा मंत्री वीके मेनन ने जनरल थिमैया को परेशान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी। उस वक्त के रक्षा मंत्री मेनन को नेहरू का बहुत खास माना जाता था। लेकिन मेनन के काम करने के तरीके से सेना में नाराजगी थी। सेना के अधिकारियों के साथ उनका बर्ताव अच्छा नहीं था। यह सब तब हो रहा था जब चीन भारत की सीमा पर सड़क बना रहा था और सैनिक धीरे-धीरे वहां पर जमा कर रहा था, लेकिन मेनन सेना की सलाह को अनदेखा करते गए। 1969 तक यह बात इतनी हद तक बढ़ गई कि उस वर्ष मई में सेना प्रमुख थिमैया की सलाह की अनदेखी करते हुए लेफ्टिनेंट जनरल बी एम कोल को रक्षा मंत्री सेना मुख्यालय में अहम भूमिका लेकर आ गए।
कोल भी नेहरू के बहुत करीब थे और यहीं से जनरल थिमैया के बीच तनाव और बढ़ गया। रक्षा मंत्री मेनन के व्यवहार से नाराज तीनों सेना अध्यक्षों ने प्रधानमंत्री नेहरू से मिलने का फैसला किया। लेकिन आखिरकार मुलाकात हो नहीं पाई। 31 अगस्त 1959 को जनरल थिमैया ने नेहरू को अपना इस्तीफा भेज दिया लेकिन उस वक्त नेहरू चीन को लेकर विपक्ष के निशाने पर थे। जवाहरलाल नेहरू ने जनरल थिमैया को अपने घर चुपचाप बुलाया और उसने इस्तीफा वापस लेने के लिए राजी किया। और कहा रक्षा मंत्री के खिलाफ हर शिकायत को देखेंगे। यह बात मीडिया में लीक हो गई और नेहरू को इस पर संसद में बयान देना पड़ा। संसद के इस बयान में नेहरू ने थिमैया पर ही सवाल उठा दिए। इसके बाद जनरल थिमैया पूरी तरह से हताश हो गए 1969 में चीन ने अक्साई चीन पर अपना कब्जा मजबूत कर लिया था वह तिब्बत को अभिन्न अंग घोषित कर दिया।
चीनी प्रधानमंत्री चाऊ एन लाई को गले लगाने और ‘हिंदी चीनी भाई-भाई’ के नेहरु के उदारवादी नारों को धूर्त चीन ने भारत की कमजोरी समझा. उस युद्ध के 58 सालों के बाद आज भी, चीन ने हमारे महत्वपूर्ण अक्साई चिन पर अपना कब्ज़ा जमा रखा है.