क्यों! अचंभित हो गए? सोच रहे हो कि ये क्या कुतर्क है? तो बंधुओ-भगिनीयों ये उदगार मेरे नहीं प्रपंच-शिरोमणियों में गणमान्य लेखिका राणा अय्यूब जी के हैं। उनके वाशिंगटन पोस्ट में प्रकाशित लेख जिसका हिंदी अनुवाद कुछ इस तरह है “हाथी के क़त्ल की आलोचना करने वाले और अश्वेतों के जीने के अधिकार की बात करने वाले पाखंडी हैं क्योंकि “कश्मीर तेरे खून से इंकलाब आएगा” जैसे नारों के माध्यम से नौजवानों को दंगे के लिए भड़काने वाली सफूरा जरगर के लिए क्यों नहीं रो रहे हैं। वैसे ये उद्द्गार एकलौते उनके नहीं हैं, दिल्ली के हिन्दू विरोधी दंगों में अपने भाषणों (संभवतः कुकृत्यों के माधयम से भी) सम्मिलित होने वाले लगभग हर प्रपंच विषदंतधारी सर्पन्त के हैं।
अगर गजरानी (जिसकी तुलना सफूरा से की जा रही है) जिन्दा होती और अगर बोल सकती तो कह उठती, “हे देवी, एक निरीह निःस्वर पशु की निर्मम हत्या से दंगे जैसे संगठित अपराध में संलिप्त एक सुशिक्षित व्यक्ति की तुलना कुतर्क और प्रपंच की पराकाष्ठा है। मैं विद्यालय प्रांगण में खून पीकर इंकलाब लिखने वाली बुद्धिजीवी नहीं हूँ, मैं तो एक अनपढ़ हथिनी हूँ जिसका दोष सिर्फ इतना था की वो अपने पेट में पलने वाले शिशु के लिए आहार ढूंढ रही थी।”
राणा अय्यूब जी को भली भांति ज्ञात है कि सफूरादेवी को मुर्गी चुराने के अपराध में नहीं पकड़ा गया है बल्कि देश के राजधानी की सड़को को रक्त रंजीत कर देने वाले भीषण दंगों में नेतृत्व करने के आरोप में UAPA की धाराओं में पकड़ा गया है। इसलिए रतन टाटा जैसे लोग ऐसे लोगों की रिहाई की मांग क्यों करेंगे जिनके भाषण कत्ले-आम की वजह बनते हैं , जैसा कि राणा अय्यूब चाहती हैं। राणा अय्यूब ये भी जानती हैं कि तिहार कारावास एक ऐसा कारावास है जहां हर २.५ महीने में एक जन्म होता है और इन शिशुओं को जन्म देने वाली माताएं सफूरा जरगर की तरह हत्याकांड रचने की आरोप में कैदी नहीं होती हैं फिर भी उनको कैद में ही रहकर गर्भावस्था, जन्म, शिशु पालन की जिम्मेदारियों का निर्वाह करना होता है तो फिर सफूरा जरगर में ऐसा क्या विशेष हैं?
अराजकतावादी लेखिका राणा अय्यूब ये भी जानती हैं कि जिस देश में सुनैना पटेल जैसी वीरांगनाएँ कोख में बच्चा लेकर सघन जंगलों में नस्कलियों से लोहा लेती हैं, तो कश्मीर को अपने खून से इंकलाब लिखने का आवाहन करने वाली सफूरा जरगर में ऐसा क्या विशेष है जिसके लिए उनको रिहाई चाहिए?
घृणावादी लेखिका ये भी जानती है कि भारत के जेलों में पश्चिमी दुनिया की जेलों की तरह पांच सितारा सुविधाएँ भले न हों, मगर यहाँ मानवता है, गर्भवादी महिला को आदर मिलता है, उनके खान-पान, आराम, स्वास्थ्य का उसी तरह ध्यान रखा जाता है जिस तरह कोई अपने परिवार के सदस्य का रखता है।
ये मोहतरमा सब जानती हैं, लेकिन इसके साथ ही ये यह भी जानती हैं कि इनको अपना आदर्श मानाने वाला समुदाय विशेष का एक बड़ा तबका शुद्ध रूप से कट्टर-पंथी और घृणारस में सूक्त है। वो अपने बुद्धि से सोचने के बजाय भेद चाल चलता है और कई बार जान-बूझकर उनके पाखण्ड को सूंघने से मना कर देता है क्योंकि इससे उसकी हिन्दुओं के प्रति घृणा वाड़ी विचारों पर ओले पड़ते हैं।
लेकिन देवी जी को याद रखना पड़ेगा कि इसी सफूरा जरगर की जमानत याचिका रद्द करते हुए न्यायधीश महोदय ने एक टिपण्णी की है ““when you choose to play with embers, you cannot blame the wind to have carried the spark a bit too far.” जज साहब की इस टिपण्णी को न्याय-शास्त्र की पवित्र आयत माननी चाहिए और नफरतका खेल बंद करना चाहिए।