छबील
“आज मैने रास्ते में शरबत पीया, लेकिन वो क्यों पिला रहे थे?”
“वो तुम्हारे मे एक होता है ना जब शरबत पीलाते हैं।”
ऐसा मेरे दोस्त कहते थे और आज भी कहते हैं, छबील के बारे में। मुझे आज भी याद है जब मैं अपने परिवार के साथ गुरुद्वारे में जाया करता था और गुरुद्वारे के मुख्य द्वार पर २-३ बड़े ड्रमों में ठंडा ठंडा शर्बत भरा रहता था। कुछ लड़के एक हाथ में गिलास और दूसरे हाथ में शरबत से भरा जग लेकर तैयार खड़े रहते थे आने वाली संगत और राहगीरों को पिलाने के लिए और कुछ लड़के उनसे जूठे गिलास वापस ले लेते थे।
गुरुदवारे में ज्यादातर आने वाली संगत उस दिन गुलाब वाले शरबत की बोतल और चीनी दान किया करते थे।
मैं माथा टेक कर फटाफट बाहर आता और जग ढूंढ़ता, लेकिन जग भी तभी मिलता था जब कोइ दूसरा व्यक्ति सेवा करके चला जाए, क्योंकि जब तक मैं गुरुद्वारे पहुंचता तब तक सभी जग लिए जा चुके होते थे। जब मुझे जग नहीं मिलता, तो मैं ग्लास ले लेता और उनमें शरबत भर भर के आने वाले लोगों को देता। या फिर किसी जग वाले के साथ चिपक जाओ और गिलास बांटते रहो, वो भरता रहेगा, बहुत मज़ा आता था।
रासते से गुज़रने वाले कुछ लोग शरबत पीने से हिचकीते, कुछ पूछते कि ये क्या है और क्यों पिला रहे हो? कुछ पूछे बिना ही १-२ गिलास पी जाते और साथ में अपनी बोतल भी भरवा लेते। कुछ तो यह भी कहते कि हम तो पहले से ही कहीं और से पी कर आ रहे हैं।
गुरुद्वारे में, कुछ अंकल और बड़े भईया बैठ कर एक बड़े से टब में चीनी को पानी में घोलते रहते, जब ड्रम खाली होने लगते तो हम उनमें चीनी वाला पानी ला कर डाल देते, शरबत की पूरी बोतलें खाली कर देते, दूध और पानी डाला जाता। गुरुद्वारे में जो बरफ की सिल्लीयां पड़ी रहती उसे एक बड़े़े खुरचने से तोड़ते और धो कर सीधा ड्रम में डाल देते। ये सारा दिन चलते रहता।
छबील केवल गुरुद्वारों में ही नहीं बल्कि और भी कई जगहों पर मनाई जाती है। अगर मैं केवल अपने शहर की बात करूं, तो जहाँ कहीं भी सिख भाईचारा है वहीं पर। उदाहरण के लिए, जहाँ सिखों के गैरेज होते हैं वहीं एक छोटा सा स्टाल लगा कर सड़क से आने जाने वाले लोगों, ट्रक, बसों और गाड़ीयों को रोक रोक कर शरबत पिलाते हैं। मेरे भी एक दोस्त के घर के सामने हर साल छबील लगायी जाती है। एक दो बार मैं भी गया था वहाँ सेवा करने। मैं भी औरों की तरह बसों में चड़ कर लोगों को शरबत पिलाता था। हाँ वहाँ जा कर सेवा करने का एक कारण यह भी था कि वहाँ लंगर में छोले भटूरे बनते थे।
लेकिन हम छबील क्यों मनाते हैं? क्यूंकी, इस दिन सिखों के पांचवें गुरु अर्जन देव जी शहीद हुए थे। लेकिन अगर वह शहीद हुए थे तो ये तो बडे़ दुख की बात होनी चाहिए और हम लगे मीठा शरबत पिलाने, ऐसा क्यों?
गुरु अर्जन देव जी
पहले तो मैं यह स्पष्ट कर दूं की मेरी इतनी हैसियत नहीं कि गुरु अर्जन देव जी के जीवन या उनकी शहादत को मैं शब्दों में पिरो सकूँ। पर जितनी हो सके उतनी कोशिश ज़रूर करूँगा।
गुरू अर्जन देव जी सिखों के पांचवे गुरु होने के साथ साथ चौथे गुरु राम दास जी और माता भानी जी के सुपुत्र भी थे।
आपने अपने पिता द्वारा शुरू करवाए गए रामदास सरोवर को पक्का करवाया और उसके पश्चात् सरोवर के बीचों बीच दरबार साहिब जिसे बहुत से लोग हरमिंदर साहिब या स्वर्ण मंदिर के नाम से भी जानते हैं, उसका निर्माण भी करवाया। आपने भाई गुरदास जी द्वारा सारे गुरु साहिबान और अन्य कई विद्वानों की वाणी को राग अनुसार संग्रह करवाया और इस प्रकार अदि ग्रन्थ की संरचना हुई जिसका प्रकाश दरबार साहिब में किया गया।
इतिहासकार गुरु जी के शहीद होने का कारण कुछ भी या किसी को भी बताएं, पर सच यही है की उनके बढ़ते प्रभाव और अनुयाईयों से मुग़ल और खासकर उलेमा बिलकुल नाखुश थे या यूँ कहलें कि उनमें ख़ौफ़ था, जी हाँ ख़ौफ़ अर्बी वाला। वो तो बस मौके की तलाश में थे, फिर चाहे वो मौका उन्हें दीवान चंदु शाह ने दिया हो या नक़्शबन्दी संप्रदाय के शेख़ अहमद सिरहिंदी ने। जहाँगीर के आदेश पर गुरु अर्जन देव जी को अमृतसर से गिरफ़्तार कर लाहौर लाया गया।
मुग़ल दरबार में उन पर शेख़ अहमद सिरहिंदी और शेख़ फरीद बुखारी जो कि जहाँगीर का विशेष सैन्य अधिकारी था द्वारा जहाँगीर के बेटे खुसरो तथा उसके साथिओं को पनाह देने, इस्लाम के प्रचार में बाधक बनने, इस्लाम के विरुद्ध प्रचार करने तथा अदि ग्रंथ में इस्लाम का अपमान करने जैसे कई सारे मिथ्या आरोप लगा कर जहाँगीर से उन पर एक बड़ी राशि देने का दण्ड दिलवाया। यहाँ कुछ इतिहासकार इस राशि को एक और कुछ दो लाख बताते हैं।
जब गुरु जी ने दण्ड स्वरुप मांगी गयी राशि देने से मना कर दिया तो शेख़ अहमद सिरहिंदी ने शाही क़ाज़ी से उनके नाम का फ़तवा जारी करवाया। फ़तवे में यह कहा गया था कि अगर गुरु जी दण्ड की राशि का भुक्तान नहीं कर सकते तो उन्हें इस्लाम कबूल करना होगा अन्यथा मृत्यु के लिए त्यार हो जाएं। तब गुरु जी ने उन्हें यह उत्तर दिया कि जीवन मरण तो सब उस अकाल पुरख के हाथ में है, इस्लाम कबूल करने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता।
इस पर क़ाज़ी ने उन्हें यासा के कानून के अंतर्गत मृत्यु दण्ड का फतवा दिया। ऐसे में अहमद सिरहिंदी ने गुरु जी को यातनाएं दे कर इस्लाम कबूल करवाने की योजना बनाई। उसने पहले गुरु जी को कड़ी धूप में भूखे प्यासे खड़े रखा। जब उसका गुरु जी पर कोई असर नहीं हुआ तो उन्हें लोहे के बड़े तवे पर बिठा कर उनके ऊपर गरम रेत डाली गयी। परन्तु तब भी गुरु जी अपने निश्चय पर अडिग रहे। ऐसा देख कर जलादों ने उन्हें उबलती हुई देग में बिठा दिया और इस प्रकार गुरु जी का देहांत हो गया। उनके शरीर को रावी नदी में बहा कर ये कह दिया गया की उन्होंने ने नदी में सनान करने की इच्छा प्रकट की थी और वापिस नहीं लौटे अथवा जल समाधी ले ली।
गुरु जी द्वारा सहे गए इन्ही कष्टों को ध्यान में रखते हुए और उनकी शहादत से प्रेरणा लेते हुए हर साल उसी समय सिख संगत सारी दुनिया में छबील लगाती है। तपती धुप में लोगों को ठंडा शरबत पिलाया जाता है। कई गुरुद्वारों में इस महीने हर सप्ताह शबील लगाई जाती है।
मुग़ल
गुरु अर्जन देव जी के शहीद होने के पश्चात् शेख़ अहमद सिरहिंदी ने अपनी चिठ्ठी “मकतूबत इमाम रब्बानी” उनके बारे में लिखा कि,
मुझे व्यक्तिगत रूप से इस बात पूरा भरोसा है कि शेख़ अहमद सिरहिंदी को ऐसा कोई सपना नहीं आया होगा अपितु दिन रात खुली आँखों से वह ये सपना देखता जरूर होगा।
मुग़लों ने हमारे गुरुओं के इलावा भी और कई सारे सिखों को मरवाया था। परन्तु इस सब के बारे में हम में से शायद ही किसी ने कभी पढ़ा या सुना होगा। इसका सबसे बड़ा कारण यह भी है की हमने अपने स्कूलों में जो इतिहास की पुस्तकें पढ़ी हैं उनमें यह सब लिखा ही नहीं गया था। उदाहरण के तौर पर सी.बी.एस.ई की सातवीं कक्षा की इतिहास की पुस्तक ही ले लीजिये, रोमिला थापर वाली। १३३ पृष्ठों की इस पुस्तक में ४२ पृष्ठों पर तो सिर्फ मुग़लों का ही कब्ज़ा था और जहाँ हमारे गुरु नानक देव जी का उल्लेख आता है वहां उनके जीवन और उनके द्वारा किये गए समाज कल्याण के कार्यों पर पूरा एक पृष्ठ भी नहीं।
हमरे नौवें गुरु तेग बहादर जी के बारे में लिखा गया है कि औरंगज़ेब ने सिखों के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए उन्हें मारने का आदेश दिया था, परन्तु ये नहीं लिखा गया की गुरु जी ने हिन्दुओं के हो रहे जबरन धर्म परिवर्तन के विरुद्ध आवाज़ उठाई थी और खुद इस्लाम को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था और इसीलिए उन्हें शहीद करवा दिया गया था। पुस्तक में कुछ पंक्तियों में हमारे दसवें गुरु गोबिंद सिंह जी और बाबा बंदा सिंह बहादर जी का भी उल्लेख आता है परन्तु उन्हें सिर्फ मुग़लों का एक विरोधी ही बताया जाता है।
इन मुग़लों की महिमा दिखाने के लिए इनपे बहुत सारी फिल्मे भी बनायीं गयी और जहाँगीर पर तो पूरी पांच। मैं ये नहीं कहता कि सारे मुग़ल बुरे होंगे शायद कुछ अच्छे भी हों जो की मेरी जानकारी में नहीं है परन्तु जिन्होंने इस देश और देश क लोगों का साथ बुरा किया उनके बारे में लिखने या बोलने से संकोच कैसा?
यहाँ मैं जहाँगीर का धन्यवाद् भी करना चाहूंगा, वो कहते है ना अंग्रेजी में “क्रेडिट वेयर क्रेडिट इस डिउ”, अगर ये मुग़ल हमारे गुरु जी को शहीद ना करवाता तो हमें कहाँ मौका मिलता लोगों की सेवा करने का?
धन्यवाद से याद आया, असदुद्दीन ओवैसी जी आपका बहुत बहुत धन्यवाद् अपने राजनीतिक दल के पदाधिकारी और कोषाध्यक्ष ऐैडवोकेट डी.एस. बिंद्रा जी को अपना फ्लैट बेच कर शाहीन बाग़ में लंगर लगाने के लिए प्रेरित करने के लिए।