व्यापारिकता
यदि आप गहन निरीक्षण करें तो सफ़ल व्यक्तियों मे एक गुण अवश्य देखेगें, वह है “व्यापारिकता” (Commercialism). व्यापारिकता वह गुण है जो व्यक्ति को सोचा-समझ कर कार्य करने वाला, भावुक ना होने वाला, लाभ को अर्जित करने वाला एव विस्तारवादी बनाता है। ये सभी गुण व्यापार जगत मे अति सराहनीय है और होना भी चहिये। सोचने समझने की क्षमता व्यक्ति के निर्णयों मे निष्पक्षता लाती है, भावुक ना होना व्यापारीयो को अतिशीघ्रता व अतिविलम्बता से बचाता है, लाभ का आतुर होना व्यापारी को अपने ध्येय से हटने नही देता एव विस्तारवादीता व्यापारी को तृप्त नहीं होने देती।
फलतः व्यक्ति इन गुणों के लाभ में लीन होकर इनका उपयोग व्यापार के बाहर भी करने लगता है। निरन्तर प्रतिस्पर्धा का व्यापारिक मनोभाव उसे सभी छेत्रों उत्तीर्ण बना देता है एव छणिक सुख का आनन्द भी देता है। व्यक्ति को बोध ही नहीं होता कि कब वह व्यापारिकता को अपने परिवार में भी प्रयोग करने लगा। व्यक्ति व्यापारिकता एव व्यवहारिकता में अन्तर भूल जाता है। वह व्यापारिकता और उसके गुणों को ही परिवार का सामान्य आचरण समझने लगता है जिसके दूरगामी परिणाम अच्छे नही होते।
परिवार बनाम व्यापार
परिवार के मूल मे भावना होती है। परिवार के सदस्यों का एक दूसरे के लिये स्नेह का भाव ही उन्हे बान्धे रखता है। परिवार में पदक्रम (Hierarchy) सम्मान का होता है। उस पदक्रम का मान, ग्रहस्थ जीवन की मर्यादा एव सदविचार से पूर्ण आचरण को पारिवरिक आचरण माना जाता है।
परन्तु जब पारिवारिकता के विरूद्ध व्यापारिकता आती है तब ग्रह कलेश का पहला बीज पड़ता है। तब संबंध भी लाभ और हानि से बनते है, पदक्रम पूंजी के आधार पर तय होता है, व्यापारिक व्यक्ति अधिक लाभ देने वालों से ही सम्बन्ध रखता है अथवा अपने सीमित समय को लाभ ना देने वालों पर व्यर्थ नही करता, परिवार में भावात्मक व्यक्ति अपना महत्व खोने लगता है फ़िर या तो वह भी व्यापारिक् हो जाता है या अपने भावों को समेट कर वह अपने परिवार को व्यापार बनते देखता रहता है।
अपने आस पास खोजने पर ही आपको अनेक उदाहरण मिल जाऐगें जो स्वयम को परिवार पर समर्पित करने के बाद भी इसलिये अपमानित हुए क्युंकि वे पारिवारिक तो थे परन्तु पूंजी में पिछड़ गये। वे परिवार के सदस्य को लाभ नही दे पाये, उनका परिश्रम धन के बोझ मे दब गया, वो “तुमसे क्या लाभ?” के प्रश्न के सामने निरुत्तर हो गये। व्यापारिकता के प्रभाव से कोइ सम्बन्ध अछूता नहीं रहा, भाई-बहन्, भाई-भाई, माता-पिता व पुत्र, अदि सभी इसकी भेंट चड़ गये।
निष्कर्ष
इस व्यापारिकता को परिवार मे आने से रोकना अति आवश्यक है। हर व्यक्ति को समझना होगा कि परिवार और व्यापार भिन्न है। परिवार कोइ रणभूमि नही जहाँ एक को दूसरे पे विजय प्राप्त करनी हो ना ही कोइ धर्म युद्ध है जहा धर्म के समक्ष सम्बन्धों का महत्त्व निम्न हो। सम्मान कोइ स्पर्धा नहीं जिसमें साम-दाम्-दन्ड-भेद से अग्रणीं होना ही लक्ष्य हो। परिवार मे पारिवारिक और व्यापार मे व्यापारिक होना ही सही नीति है और इसी भूमिकाओं के विभाजन से ही से परिवार बच सकता है।
परिवार के उपासक को, निज स्वार्थ ने ललकारा है,
अब वचनों का मोल नही, तू व्यापारी का मारा है,
धन जीवन पर है भारी, अश्रु बस जल की धारा है,
तू परिवारों से जीत गया, पर युद्ध स्वयम से हारा है ।
-जयेन्द्र