ज्ञानवापी, इस्लाम हि नहीं, अब्राहम से भी प्राचीन है

जी हाँ मित्रों जब इस धरा पर ना तो अब्राहम थे, ना यहूदी थे, ना ईसाई थे और ना इस्लाम था और यही नहीं जब ना तो रोमन सभ्यता थी, ना तो बेबिलोनिया की सभ्यता थी, ना तो मिश्र की सभ्यता थी, ना मेसोपोटामिया अस्तित्व में थी और ना माया और यूनानी सभ्यता थी, तब भी हमारे भोले बाबा की काशी थी जिसे आज आप बनारस या वाराणसी के नाम से जानते हैँ।

इसे मंदिरों के शहर के नाम से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में जाना और पहचाना जाता है। यह मोक्ष अर्थात मुक्ति का धाम है। चुंकि भोलेनाथ सुर और असुर दोनों को अवसर प्रदान करते हैँ अर्थात सुर को निरंतर सत्कर्म में रत रहने और असुरों को उनके दुश्कर्म से मुक्त होने का अवसर प्रदान करते हैँ अत: इस पवित्र धरा पर असुरों ने भी समय समय पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया।

महान तत्वज्ञानी, सनातन धर्म-दर्शन के ध्वजावाहक, जगद्गुरु शंकराचार्य द्वारा रचित पञ्चश्लोकी_काशीपञ्चकम् में काशी का वर्णन निम्न प्रकार से किया गया है:-

“काश्यां हि काशते काशी काशी सर्वप्रकाशिका।
सा काशी विदिता येन तेन प्राप्ताहि काशिका।।”

अर्थात आत्मज्ञान से काशी जगमगाती है। काशी सब वस्तुओं को अवलोकित करती है। जो इस सत्य को जान गया वो काशी में एकरूप हो जाता है।

मुगल काल के कई असुरों में से एक था औरंगजेब, ये अत्यंत उच्चकोटी का मलेच्छ था। ये इतना क्रूर राक्षस था कि इसने केवल सत्ता प्राप्त करने हेतु अपने बड़े भाई दाराशिकोह को अति क्रूरता से मौत के घाट उतार दिया और उसके शिश को काटकर अपने पिता, (जिसे उसने कारागार में बंद किया था जल और अन्न की एक एक बून्द के लिए तरसाता था तड़पाता था) को थाली में सजाकर पकड़ा दिया।

इस क्रूर मलेच्छ ने सम्पूर्ण जीवन सनातन धर्मियों पर अत्याचार करते हुए बिताया। और इसी मलेच्छ ने मथुरा में परमेश्वर श्रीकृष्ण की जन्मस्थली और काशी के ज्ञानवापी मंदिर को तोड़कर उन मंदिरों के ढांचो पर अपनी मस्जिदे बनवा दी, जो की इस्लाम के स्वयं की दृष्टि में नापाक और हराम है।

औरंगजेब ने अपने सम्पूर्ण जीवन काल में केवल “जिहाद” किया और इस नापाक कुआचरण के द्वारा लाखों सनातन धर्मियों को मुसलमान बनने को विवश कर दिया। काशी में मुसलमानों की जो जनसंख्या दिखाई दे रही है वो असल में तलवार के डर से या फिर लालच में आकर कन्वर्ट हुए पंडितों और राजपूतो का समूह है और आज वही कन्वर्ट पंडितों का और राजपूतों का समूह शांतिदूत बनकर औरंगजेब को अपना “आका” मान बैठा है। अब ये कन्वर्ट शांतिदूतीय चरमपंथी बन चुके हैँ।

ये कन्वर्ट अच्छे प्रकार से जानते हैँ कि “ज्ञान” अर्थात “इल्म” का शांतिदूतीय चरमपंथ से दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं है, क्योंकि इन्होंने अपने सम्पूर्ण क्रूरता से भरे अमानवीय जीवन में एक हि किताब पढ़नी है और अपने मन से उसका अर्थ निकालना है।

मित्रों ज्ञानवापी के अर्थ से हि भान हो जाता है “ज्ञान का कुंड” अर्थात ज्ञानरूपी जल स्त्रोत जिसका अस्तित्व केवल और केवल सनातन धर्म में संभव है, कन्वर्ट हुए शांतिदूतीय चरमपंथियों के मजहब में नहीं अरे इन्होंने तो अपने एक किताब के इतने अर्थ निकाले कि कई फिरके बन गये और लगभग हर फिरका एक दूसरे को काफिर कहता है, यँहा तक की ये मरने के पश्चात भी एक दूसरे के कब्रिस्तान में दफनाये नहीं जा सकते। अभी कुछ समय पूर्व हि इनके एक फिरके ने “अहमदिया” फिरके को इस्लाम से बेदखल कर “काफिर” करार दिया, अब आप बताएँ कैसे हैँ ये भारत के कन्वर्ट शांतिदूत।

आइये स्कंदपुराण के द्वारा ज्ञानवापी के महत्व को समझते हैँ।
स्कंदपुराण के काशी खंड के चतुर्थ भाग के ९७ अध्याय के २२० संख्या वाले श्लोक के अनुसार:-

“देवस्य दक्षिणी भागे वापी तिष्ठती शोभना।
तस्यास्त वोदकम् पित्वा पुनर्जन्म ना विद्यते।।”

अर्थात महादेव (प्राचीन विशेश्वर मंदिर) के दक्षिण दिशा की ओर वापी है, जिसके जल को पिने से पुनर्जन्म से मुक्ति मिलती है अर्थात मोक्ष की प्राप्ती होती है।इसी प्रकार स्कंदपुराण के एक अन्य श्लोक के अनुसार:-

“उपास्य संध्याम् ज्ञानोदे यत्पापम् कालोलपजम:।
क्षणेन तदपाकृत्यम ज्ञानवान जायते नर:।।”

अर्थात इसके जल से संध्यवादन करने पर बड़े फल की प्राप्ती होती है, इसके जल से ज्ञान प्राप्त होता है और इससे मोक्ष की प्राप्ती होती है।
स्कंदपुराण आगे कहता है:-

“योष्ठमूर्ति र्महादेव: पुराणे परिपठ्यते |
तस्यैषाम्बुमयी मूर्तिर्ज्ञानदा ज्ञानवपिका।” इसका सार यह है कि ” ज्ञानवापी का जल भगवान शिव का हि स्वरूप है।”

उत्तर महाशिवपुराण के २२ वे अध्याय के २१ श्लोक में स्पष्ट रूप से कहा गया है :-
“अविमुक्तं स्वयं लिंग स्थापितं परमात्मना |
न कदाचित्वया त्याज्यामिदं क्षेत्रं ममांशकम ||”

जिससे स्पष्ट है की मलेच्छों (औरंगजेब, रजिया सुल्तान, शाहजंहा तथा अन्य) ने शिव लिंगम को ले जाने का सम्पूर्ण प्रयास किया परन्तु अपने स्थान से हिला तक ना सके और अंतत: छोड़कर और खजाना लूटकर भाग गए |

मित्रो १६वीं शताब्दी में दत्तात्रेय संप्रदाय के सन्यासी गंगाधर सरस्वती जी ने अपने ‘गुरुचरित्र’ नामक ग्रंथ में ज्ञानवापी का वर्णन किया है।अपने ग्रंथ में उन्होंने अपने गुरु नरसिंह सरस्वती जी की काशी यात्रा का वर्णन किया है। “गुरुचरित्र” के ४२वें भाग की ५७वीं चौपाई में लिखा गया है…

महेश्वराते पूजोनि। ज्ञानवापीं करी स्नान।
नंदिकेश्वर अर्चोन।तारकेश्वर पूजोन। पुढें जावें मग तुवां ॥५७॥

श्री गंगाधर सरस्वती जी के अनुसार, १६वीं शताब्दी में काशी आने वाले तीर्थयात्री पहले ज्ञानवापी में आकर स्थान-ध्यान किया करते थे। इसके पश्चात वे नंदी की पूजा करके भगवान विश्वेश्वर का दर्शन किया करते थे। यही वो क्रम है जो हमें लिखित रूप में मिलता है। इस आधार पर ये कहा जा सकता है कि मंदिर विध्वंस से पहले से ये प्रक्रिया चलती आ रही थी। “गुरुचरित्र” के वर्णन से यह स्पष्ट है कि जो ज्ञानवापी परिसर हमें बाबा हि मिले हैँ।

अंग्रेजी अधिकारी (DM) वाटसन ने भी दिनांक ३० दिसम्बर १८१० में ” वाइस प्रेसिडेंट ऑफ़ कौंसिल” में स्पष्ट रूप से कहा था कि ज्ञानवापी हिन्दुओ को सौंप दिया जाए , पर लुटेरे अंग्रेज ना माने |

इतिहासकार श्री एलपी शर्मा अपनी पुस्तक ‘मध्यकालीन भारत’ के पृष्ठ संख्या २३२ पर लिखते हैं, “१६६९ में सभी सूबेदारों और मुसाहिबों को हिन्दू मंदिरों और पाठशालाओं को तोड़ देने की आज्ञा दी गई! इसके लिए एक पृथक विभाग भी खोला गया! यह तो संभव नहीं था कि हिन्दुओं की सभी पाठशालाएं और मंदिर नष्ट कर दिए जाते परंतु बनारस का विश्वनाथ मंदिर, मथुरा का केशवदेव मंदिर, पाटन का सोमनाथ मंदिर और प्राय: सभी बड़े मंदिर, खास तौर पर उत्तर भारत के मंदिर इसी समय तोड़े गए!

मंदिर के तोड़े जाने के संदर्भ में सबसे प्रथम उल्लेख मोहम्मद गोरी जैसे मलेच्छ का मिलता है, बहुत भयंकर नराधम था, एक नंबर का मक्कार तो था ही हवस और सेक्स का भूखा दैत्य था। वर्ष ११९४ ई में इस नापाक मलेच्छ मोहम्मद गोरी ने ज्ञानवापी को लूटने के बाद तोड़ा।

इसके पश्चात पुन: काशी वासियों ने इसे उस समय इसका निर्माण करवाया लेकिन वर्ष १४४७ में एक बार फिर इसे जौनपुर के हरम की पैदाइश और मोहम्मद गोरी से भी बड़े हवसी सुल्तान महमूद शाह ने तुड़वा दिया।

फिर वर्ष १५८५ में राजा टोडरमल की सहायता से पंडित नारायण भट्ट ने इसे बनवाया था लेकिन वर्ष १६३२ में अपनी बेटियों के साथ अपने हवस की आग बुझाने वाले और मुमताज़ महल को १३वा बच्चा पैदा करवाकर मार डालने वाले शाहजहाँ ने एक बार फिर काशी विश्वनाथ मंदिर को तुड़वाने के लिए मुग़ल सेना की एक टुकड़ी भेजी लेकिन हिन्दुओं के प्रतिरोध के कारण मुग़लों की सेना अपने इस बार यह घृणित कार्य ना कर पायी। हालाँकि, इस संघर्ष में काशी के ६३ जीवंत मंदिर नष्ट कर दिये गए।

इसके पश्चात सबसे बड़ा विध्वंश सबसे बड़े नराधम और मलेच्छ औरंगजेब ने करवाया जो काशी के माथे पर सबसे बड़े कलंक के रूप में आज भी विद्यमान है। मलेच्छ औरंगजेब के दरबारी लेखक साक़ी मुस्तइद खाँ ने अपनी किताब ‘मासिर -ए-आलमगीरी’ बताया है कि १६ जिलकदा हिजरी- १०७९ अर्थात दिनांक १८ अप्रैल १६६९ को एक फ़रमान जारी कर औरंगजेब ने मंदिर तोड़ने का आदेश दिया था। साथ ही यहाँ के ब्राह्मणों-पुरोहितों, विद्वानों को मुसलमान बनाने का आदेश भी पारित किया था।

इन्ही मुगलियाँ इतिहासकारों ने बताया है कि १५ रब- उल-आख़िर १०७९ अर्थात दिनांक २ सितम्बर १६६९ को बादशाह औरंगजेब को खबर दी गई कि मंदिर को न सिर्फ़ गिरा दिया है, बल्कि उसके स्थान पर मस्जिद की तामीर भी करा दी गई है।

आपको बताते चलें की वर्ष १९३६ ई में भी ज्ञानवापी मंदिर को लेकर मुकदमे बाजी हो चुकी है, जिसमें मंदिर के पक्ष में जो अकाट्य प्रमाण दिए गए थे यदि उन्हीं के आलोक में अभी भी सुनवाई हो तो नए सर्वेक्षण और पुराने ऐतिहासिक और पुरातात्विक प्रमाणों के आगे मुस्लिमों के दावे कहीं नहीं ठहरेंगे।
उस मुकदमे में ‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ और औरंगज़ेब के फ़रमान की भी चर्चा हुई। इसकी काट इन कन्वर्ट दो नंबरी शांतिदूतो ने यह चली की उर्दू में लिखी उलटी सुलती किताब ‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ आदरणीय न्यायालय में प्रस्तुत कर झूठ, फरेब और मक्कारी की नई मिशाल पेश की जिसमें विश्वनाथ मंदिर को तोड़े जाने और औरंगज़ेब के ऐसे किसी फ़रमान का ज़िक्र नहीं था। इन कन्वर्ट मलेच्चों के छल और कपट का उत्तर देते हुए काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के इतिहासकार डॉ. परमात्मा शरण ने फ़ारसी में लिखी और १८७१ में बंगाल एशियाटिक सोसाइटी के द्वारा प्रकाशित साकि मुस्तिद खान की असली ‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ अदालत के समक्ष प्रस्तुत कर दी।जिसकी पृष्ठ संख्या-८८ पर औरंगज़ेब के आदेश पर काशी विश्वनाथ मन्दिर को तोड़े जाने का विवरण है। कहते हैं तब जाकर उस साज़िश का पर्दाफ़ाश हुआ जो उस्मानिया यूनिवर्सिटी, हैदराबाद में रची गई थी। इसी यूनिवर्सिटी ने ‘मा-असीर-ए-आलमगीरी’ का 1932 में उर्दू अनुवाद प्रकाशित किया था। जिसमें से षडयंत्रपूर्वक श्री काशी विश्वनाथ के इतिहास वाले पन्नों को निकाल दिया गया था।

मित्रों ये कन्वर्ट शांतिदूत हैँ ये अरब और मध्य एशिया के शांतिदूतों के आसपास भी नहीं होते हैँ। ये हिन भावना से ग्रसित लोग हैँ। इनकी चिकत्सा चिन, रसिया और इजराइल जैसे देश हि अच्छी प्रकार से करते हैँ।

ये कहेंगे की किसी दूसरे के इबादतगाह को तोड़कर बनाई गयी मस्जिद हराम होती है, परन्तु उस हराम चीज को पाने के लिए हजारों प्रकार के झूठ, फरेब, मक्कारी और नीच कर्म करने से बाज नहीं आएंगे।

आज केवल कन्वर्ट मुसलमान हैँ और इनकी भिड़ है , इस्लाम को मानने वाले ना के बराबर हैँ। इसलिए हमें हर कसौटी पर इनके नापाक इरादों को हराना होगा और एकत्र रहकर अपने अधिकार को प्राप्त करना होगा। ज्ञानवापी हमारी है और हमारी हि रहेगी।

जय भोलेनाथ
ॐ नमः शिवाय ।
लेखक :- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
aryan_innag@yahoo.co.in

Nagendra Pratap Singh: An Advocate with 15+ years experience. A Social worker. Worked with WHO in its Intensive Pulse Polio immunisation movement at Uttar Pradesh and Bihar.
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