रक्षाबंधन और श्री रामजन्मभूमि आन्दोलन की स्मृतियाँ

इस वर्ष रक्षाबंधन अवर्णनीय आनन्द का वाहक बन कर आया है। आज से श्री रामजन्मभूमि पर आगामी 5 अगस्त 2020 को होने वाले भूमि पूजन सम्बन्धी अनुष्ठान और पूजा कार्यक्रम प्रारंभ हो गए है। उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सम्पूर्ण भारत वर्ष में उल्लासऔर उत्सव का प्रकाश है।

आह्लाद के इन क्षणों में जन्मभूमि आन्दोलन की अनेकानेक स्मृतियाँ उभर रही हैं।

विश्व हिन्दू परिषद आन्दोलन के केंद्र में था किन्तु संस्कार भारती से लेकर दुर्गा वाहिनी तक प्रत्येक शाखा की सचेष्ट भागीदारी थी। सब एक ही दिशा, एक ही मंतव्य, एक ही ध्येय से एक पथ पर चल रहे थे। स्वयंसेवक परिवार होने के नाते अन्यान्य कार्यक्रमों में हमारा कुछ न कुछ नियमित उत्तरदायित्व होता था।

व्यक्तिगत बात करूँ तो उस समय मेरे लिए ये एक पारिवारिक दायित्व जैसा था, भावनाओं का जुड़ाव न इससे कम न इससे अधिक।

इसी काल में संघ के एक रक्षा बंधन उत्सव ने अंतर्मन में बहुत कुछ बदल दिया। वर्ष ठीक से स्मरण नहीं आ रहा संभवतः 1989 रहा होगा। लखनऊ के डी.ए.वी. कॉलेज मैदान में आयोजित वृहद रक्षा बंधन उत्सव में श्रद्धेय अशोक सिंघल जी मुख्य वक्ता के रूप में पधारे – चमत्कारिक उद्बोधन था, जैसे किसी ने झकझोर के नींद से जगा दिया हो। उस रक्षा बंधन उत्सव में अशोक जी की सशक्त कलाई पर राखी बांधकर स्वयं को धन्य अनुभव करते हुए अपने आप को ही वचन दिया था, श्री राम जन्मभूमि आन्दोलन के यज्ञ में सामर्थ्य भर समिधा डालने का।

आन्दोलन में समाज के प्रत्येक परिवार की भूमिका सुनिश्चित करने के लिए कितने छोटे –बड़े कार्यक्रम कितने व्यवस्थित रूप से संचालित हुए, कितने सूक्ष्म स्तर पर कितनी स्पष्ट योजना बनी और तमाम राजनैतिक अवरोधों और उतार चढ़ाव के मध्य उसका क्रियान्वयन सुनिश्चित हुआ ये प्रबंधन विशेषज्ञों के लिए अध्ययन का विषय होना चाहिए।

1990 में उसी डी.ए.वी. कॉलेज मैदान में साध्वी ऋतंभरा की सभा का आयोजन था। मुलायम सिंह जी की सरकार अपने निहित राजनैतिक स्वार्थ के कारण आन्दोलन को कुचलने में लगी थी। आन्दोलन के प्रमुख नेतृत्व कर्ता अपनी सभाओं में पहुँच पाएंगे उसमें असमंजस रहता था। उस दिन भी ऐसा ही था। अपराह्न 3.00 बजे सभा होनी थी। उस समय तक हम 5-6 कार्यकर्ता ही वहां पहुँच सके थे। माइक- लाउड स्पीकर पहले ही लग चुके थे। हमारे पास इतनी ही सूचना थी कि ऋतंभरा जी अपने गुरुदेव के साथ आ रही है। शाम का लगभग 4.00 बज गया न श्रोता थे न वक्ता, हमें लगा सभा निरस्त हो गयी होगी  किन्तु ऊपर से ऐसी कोई सूचना भी नहीं आ रही थी। तभी धीरे धीरे जन सामान्य मैदान में आना प्रारंभ हुआ और देखते ही देखते पूरा भर गया। अब प्रतीक्षा थी तो बस ऋतंभरा जी की।

1990 की ऋतंभरा- आनन पर दैवीय आभा वाली वल्कल धारिणी एक तरुणी।

जय श्रीराम के गगन भेदी उच्चारण के साथ जो वक्तव्य प्रारंभ हुआ उसमें जोश नहीं था वरन भारत, भारतीय संस्कृति और इसके प्रतीक श्री राम के प्रति श्रद्धा और समर्पण का एक ज्वार था जो जनमानस को बहाकर अपने साथ ले जाने में समर्थ था।

कालांतर में मीडिया, कुछ राजनैतिक दलों और वामपंथ के झंडाबरदारों ने जिस तरह श्री रामजन्मभूमि आन्दोलन या मुक्ति यज्ञ को मंदिर की लड़ाई कहकर न्यून करने का प्रयास किया (आज भी कर रहे हैं) उन्हें ऋतंभरा जी सहित आन्दोलन के सभी प्रमुख महानुभावों – अशोक सिंघल जी, लाल कृष्ण अडवाणी जी, उमा श्री भारती जी आदि के उस समय के वक्तव्य सुनकर यह समझना चाहिए कि यह किसी मंदिर की लड़ाई नहीं थी वरन श्री रामजन्मभूमि मुक्ति का महायज्ञ था और साथ ही ये कि भारत की राष्ट्रीय एकता के लिए यह क्यों अनिवार्य था।

1990 में मुलायम सिंह यादव द्वारा अयोध्या में कराए गए कार सेवकों के नर संहार ने हमें अन्दर तक हिला दिया था। कितने मरे, कितने घायल, कितने गायब, कितने दफ़न और कितने सरयू में बह गए ये आज भी किसी को सही सही नहीं पता। हमारे परिवारों में आक्रोश और दुःख के सिवा मानों कुछ शेष नहीं रहा था।

1991 में राष्ट्रधर्म के सहसंपादक स्मृति शेष श्री राम नारायण त्रिपाठी, पर्यटक जी के साथ, आन्दोलन के शलाका पुरुष दिगंबर अखाड़े के महंत परमहंस रामचंद्र दास जी से भेंट का सुयोग बना। पर्यटक जी पत्रिका के लिए उनका साक्षात्कार करने गए थे। अखाड़े सहित अयोध्या के प्रमुख मार्गों पर गोलियों के निशान तब भी वैसे ही थे।

अपने रामभक्त योद्धाओं की नृशंस हत्या से आहत उस महामानव के सजल नेत्र मुलायम के क्रूर कर्मों की गवाही थे। श्रद्धेय अशोक सिंघल जी का नाम लेकर उन्होंने कहा था, “अपना अशोक बहुत भोला है, उसको राजनीति नहीं आती। उससे कहा था मैंने, ये (मुलायम) कुछ भी करवा सकता है। अपने बच्चों को भी कम से कम लाठी लेकर जाने दो लेकिन वो नीति से नहीं भटका”।

उस शून्य में, जब लगने लगा था कि अब कौन जायेगा कारसेवा करने? आन्दोलन फिर उठ खड़ा हुआ।

छुप छुप कर, कई बार तो जीवन हथेली पर रखकर 1990 की क्रूरता के कैसेट्स, घर घर दिखाए जाते थे। दो गुने जोश से कारसेवक तैयार हो रहे थे।

अंततः श्री रामजन्मभूमि की मुक्ति का ऐतिहासिक क्षण आ ही गया। मेरे विचार में भाजपा अध्यक्ष के रूप में लाल कृष्ण अडवाणी जी के आन्दोलन को राजनैतिक समर्थन का निर्णय और 6 दिसंबर 1992 के विवादित निर्माण ध्वंस की घटना इस मुक्ति यज्ञ के दो निर्णायक मोड़ थे जिन्होंने हमें आज ये सौभाग्य प्रदान किया है।  

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