बैंगलुरु जैसी वारदात हमें एक दूसरे पर कीचड़ उछालने का बहाना दे देती है

31 दिसम्बर की रात को, अमूमन तौर पर महिलाओं के लिए सुरक्षित माने जाने वाला बेंगलुरू शहर, हैवानियत का नंगा नाच देख रहा था। प्रत्यदर्शी महिलाओं के अनुसार उस रात कुछ लोग राह चलती महिलाओं को जबर्दस्ती छू रहे थे, अपनी अश्लील हरक़तों से परेशान कर रहे थे और उनके शरीर को दबा रहे थे। कुछ प्रकाशित रिपोर्ट के मुताबिक उस रात हुड़दंगियों के बीच युवतियों को भागते हुए और रोते हुए भी देखा गया था।

बेंगलुरू में छेड़छाड़ की शर्मानक वारदात के दो दिन होने वाले हैं, लेकिन पुलिस को अभी तक कोई शिकायत दर्ज नहीं करवाई गई है। हालाँकि ये ज़रूर हुआ है कि हर बार की तरह इस बार भी लोगों ने इस घटना पर अपने घटिया विचार देकर बहुत सारी गन्दगी फैला दी है।

कर्नाटक के गृहमंत्री जी परमेश्वर ने पहले तो पश्चिमी पहनावे को जिम्मेदार ठहराया फिर गैर-जिम्मेदाराना तरीके से ये भी बोल दिया कि नए साल के अवसर पर इस तरह की घटना आम है। समाजवादी पार्टी नेता अबू आजमी ने तो महिलाओं को ही जिम्मेदार ठहरा दिया। मोरल पोलिसिंग से ओत-प्रोत होकर अगर मेरी बहन-बेटी सूरज डूबने के बाद गैर मर्द के साथ 31 दिसंबर मनाए और उसका भाई या पति उसके साथ नहीं है तो यह ठीक नहीं है। अबू आजमी इतने पर ही नहीं रुके, उन्होंने काव्यात्मक तरीके से ये भी कह दिया, ‘अगर कहीं पेट्रोल होगा और आग आएगी तो आग लगेगी ही। शक्कर गिरी होगी तो चींटी वहां जरूर आएगी।

परेशान करने वाली दो बातें ये है कि

  • हर बार ऐसे वारदात के बाद जनता के बीच से चुने गए प्रतिनिधियों से इस तरह के बयान क्यों आते हैं?
  • अगर लोगों में छेड़छाड़ के ख़िलाफ़ इतना गुस्सा है तो बसों में, सड़कों पर, गलियों में ऐसी घटनायें कम क्यों नहीं होती हैं?

पहले प्रश्न का उत्तर हम सभी जानते हैं। पुरुष और महिलाओं को समाज के हर मंच पर बराबर का दर्ज़ा मिलना चाहिए और किसी के व्यक्तिगत विकल्प पर नैतिकता थोपने का हक़ किसी पुरुष या महिला को नहीं है। लेकिन आदर्शवाद और व्यवहारिकता में अंतर है। हमने बड़े होते हुए अपने परिवार में, समाज में, और मोहल्ले में अकसर ये सुना है कि लड़कियों को ये नहीं पहनना चाहिए, लड़कियों को शराब से दूर रहना चाहिए और लड़कियों को रात को अकेले बाहर नहीं घूमना चाहिए। आज हम मिनी स्कर्ट पर ऊँगली उठाने वालों पर आश्चर्य कर लेते हैं, लेकिन ये भूल जाते हैं कि मात्र दस-पंद्रह साल पहले बड़े शहरों में भी जीन्स पहनने वाली लड़कियों को भौं सिकोड़कर देखा जाता था, हम ये भूल जाते हैं कि आज से मात्र दस-पंद्रह साल पहले स्कूटी चलाती हुई लड़कियों पर पूरे गली मोहल्ले की नज़र रहती थी। दस-पंद्रह साल में पूरे देश में इतना ज्यादा बदलाव सोचना थोड़ा कम व्यावहारिक है। हमारे द्वारा चुने गए प्रतिनिधि भी समाज के इसी वर्ग से आते हैं। हम केवल इनके सोच विचार को दोष नहीं दे सकते हैं क्योंकि उन्हें भी मालूम है कि उनका वोट बैंक क्या सुनना चाहता है।

दूसरे प्रश्न का उत्तर भी हम जानते ही हैं, जो थोड़ा हमारी सामाजिक व्यवस्था जुड़ा है और हमारे आडम्बर से। हम जब भी सडकों पर, ट्रेनों में या बसों में किसी को छेड़छाड़ करते हुए देखते हैं, अधिकतर बार हम आँख बंद करते हुए आगे बढ़ जाते हैं — कभी इस डर से कि विरोध के चक्कर में हमारा ज्यादा नुक्सान न हो जाए, कभी दूसरों का ‘पर्सनल मैटर’ में ‘टाइम वेस्ट’ का बहाना देकर। सोशल मीडिया पर बैठ कर बड़ी बड़ी बातें लिखने वाले हम लोग बहुत बार खोखले से होते हैं। नारीवाद का झंडा ढोने वाला बॉलीवुड और मीडिया कई ऐसे उदाहरणों से भरा पड़ा है जहाँ बड़े नामों के द्वारा किये गए छेड़छाड़ और बेहूदी हरक़तों को ढक कर दफना दिया जाता है। अपने स्वार्थ के लिए उस समय तो हम चुप रह जाते हैं, लेकिन सोशल मीडिया पर बड़ी बड़ी बातें करने में कभी चुप नहीं होते।

यदि 1500 पुलिस कर्मचारियों और हज़ारों लड़के लड़कियों के बीच कुछ मनचले आकर लड़कियों के साथ आराम से दुर्व्यवहार कर लेते हैं, तो हमारा ये सोचना कि कोई मसीहा आकर सब कुछ सुधार देगा कहाँ तक जायज़ है?

हमारी सामूहिक चेतना और हमारा सामूहिक गुस्सा इतनी जल्दी ठन्डे कैसे पड़ जाता है? समाज का एक पढ़ा लिखा हिस्सा कभी दूसरे देश की घटनाओं से तुलना कर के पल्ला झाड़ लेता है, या कभी किसी तबके या राज्य या धर्म से जोड़कर ऐसी घटनाओं की गंभीरता कम कर देता है, या समानता और व्यक्तिगत विकल्प के साथ बड़ा सा “लेकिन” जोड़ देते हैं, जैसे, लड़कियों को कपडा चुनने पर रोक टोक नहीं होना चाहिए, लेकिन…लड़कियों को रात में घूमने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, लेकिन…वही समाज का दूसरा पढ़ा लिखा हिस्सा ग्लानि ढोने के चक्कर में अतिशयोक्ति और अन्योक्ति की सारी सीमाएं तोड़ देता है। यदि #WeAreAshamed और #NotAllMen ट्रेंड कराने से या मोमबती जलाने से हमारी सामूहिक चेतना पर अंतर आता, तो निर्भया काण्ड के बाद बसों, ट्रेनों और गलियों में छेड़छाड़ में काफी कमी आती; ये दिखता नहीं है।

एक लंबे समय से हमारा समाज समाधान ढूंढने से ज्यादा कीचड उछालने पर विश्वास करता आया है। बैंगलुरु जैसी हर घटना के बाद पुलिस, नेता, हमारी संस्कृति, पाश्चात्य संस्कृति, उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय, मोबाइल, चाऊमीन, सिनेमा, कपडे, संस्कार, नैतिकता सब पर बहस होते हैं, सब की चीड़-फाड़ होती है और अंततः हम समाधान की जगह कीचड उछालने में जूड जाते हैं। अगर आप सोशल मीडिया पर देखेंगे, तो पाएंगे कि इस बार भी कुछ नया नहीं हो रहा है।

इन सभी उलझनों के बीच देश की लाखों लड़कियां और महिलाएं इसी आशा में हर सुबह जगती हैं कि जैसे वक़्त के साथ समाज ने लड़कियों का जीन्स पहनना मान लिए है वैसे ही एक दिन नारी-पुरुष समानता भी मान लेंगे।

Rahul Raj: Poet. Engineer. Story Teller. Social Media Observer. Started Bhak Sala on facebook
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