कल किसी ने विदेश मंत्री सुषमा स्वराज से Amazon Canada पर बिक रहे तिरंगे वाले डोरमैट की शिकायत की। सुषमा स्वराज को गुस्सा आया, तो उन्होंने पहले हाई कमीशन को Amazon से बात करने को बोला, फिर Amazon से मांफ़ी मांगने को कहा, और अंत में उन्हें वीजा की धमकी भी दे डाली। ये सब स्टेनगन की तरह तेज़ी में हुआ — ढाएं, ढाएं, ढाएं — और पलक झपकते ही सुषमा स्वराज जी जय जयकार होने लगी।
कुछ लोगों ने जब बोला कि Amazon ख़ुद से ये पायदान नहीं बनाता इसलिए आवेश में आकर उन्हें धमकी देना सही नहीं है, तो इन्टरनेट पर मौके की तलाश में बैठे हुए राष्ट्रवादियों ने कह दिया, ‘अबे, अब तुम हमें बताओगे कि क्या करना चाहिए’। कुछ प्यारे लोगों ने पूछने वालों की माँ-बहन भी एक कर दी, और कुछ देशभक्तों ने सिक्का उछाल कर ये निर्णय कर लिया कि कौन देश-भक्त है और कौन देश-द्रोही|
हमारा इतिहास, हमारा परिचय और हमारी संस्कृति हज़ारों साल पुरानी रही है, लेकिन दो सौ साल की ग़ुलामी के बाद बनी आधुनिक दुनिया के भूराजनीतिक अवधारणाओं में हम अभी नए ही हैं। जब एक सदियों पुरानी सभ्यता बेड़ियों से आज़ाद होती है, तो ऐसी स्थिति में अपनी पहचान बताने और बनाने के लिए उसका इतिहास और उसकी संस्कृति बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है। अफ़सोस कि हमारा पूरा परिचय ही सालों से उथल-पुथल होकर बिखरा हुआ था, इसलिए हर तरह के (एकीकरण) यूनिफिकेशन के लिए चिन्हों और प्रतीकों की बहुत आवश्यकता थी। हमारे स्वत्रंत्रता सेनानियों ने इसी यूनिफिकेशन के लिए राष्ट्रीय ध्वज, राष्ट्रीय गान और राष्ट्रीय गीत पर इतना बल दिया। बाद में राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान के अपमान के रोकथाम के लिए नियम और अधिनियम ही बनाये गए।
आज़ादी के सत्तर साल होने वाले हैं। जिन पीढ़ियों ने अंग्रजों की ज़ुल्म सही थी, वो बहुत पीछे छूट गयी हैं। आज के पीढ़ियों के लिए वो काला इतिहास क़िताबों के कुछ चैप्टर भर ही सीमित है। इसका मतलब ये बिलकुल नहीं है कि आज की पीढ़ियां अपने पूर्वजों के बलिदान को सम्मान नहीं देती हैं, परंतु उनके लिए आज़ादी के पहले के माहौल का अनुभव करना व्यावहारिक है। सत्तर सालों में बहुत कुछ बदल गया है।
क्या राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान का महत्व उतना ही है जितना आज़ादी के समय था? क्या राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान का उद्द्देश्य भी वही है जो आज़ादी के समय था? दोनों प्रश्न काफ़ी बड़े और पेचीदे हैं, इसपर कोई निर्णायक निष्कर्ष देना आसान नहीं है, लेकिन अपना आयाम ढूंढती पीढ़ियों के लिए ये प्रश्न पूछना और समझना ज़रूरी है। राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान हमारे लिए हमारी पहचान हैं, ये हमारी आशाओं और आकांशाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं, ये हमारे राष्टीय गौरव के प्रतीक हैं। सामूहिक और राष्ट्रीय स्तर पर इनका महत्व कभी कम नहीं हो सकता। जहाँ तक उद्देश्य की बात है, सत्तर सालों में वो तो सही में बदल चूका है। राष्ट्रीय ध्वज और राष्ट्रीय गान अंग्रेजों के ख़िलाफ़ खड़े होना का प्रतीक थें; अंग्रेज तो जा चुके हैं। अब इन्हें देश की एकता, अखण्डता और सौहार्द के प्रतीक के रूप में देखा जाता है।
विचारधाराएं जैसे जैसे फैलती हैं, विचार को पीछे ठेल दिया जाता है और लोग धारा के पीछे लग जाते हैं। इसमें सबसे ज्यादा फ़ायदा उनका होता है जिनके लिए भीड़ ज्यादा महत्वपूर्ण होता है, और इसका सबसे ज्यादा नुक्सान उन्हें होता है जो भीड़ के लिए एक्सेप्शन या ऑउटलायर हो जाते हैं। राष्ट्रवाद के साथ भी हमने ऐसा देखा है। राष्ट्र की एकता और अखण्डता के लिए बुना गया तिरंगा और जन गण मन भी समय के साथ साथ राजनीतिक हथियार बन गए हैं। सिनेमा हॉल में राष्ट्रगान के नाम पर बहुत नौटंकी हो चूका है|
- 2016 के अक्टूबर में एक विकलांग व्यक्ति पर इसलिए हमला कर दिया गया क्योंकि सिनेमा हॉल में जब राष्ट्रगान बज रहा था, वो खड़ा नहीं था।
- 2014 के अक्टूबर में भी एक आदमी के साथ दुर्व्यवहार किया गया, क्योंकि उसकी प्रेमिका, जो दक्षिण अफ्रीकी थी, वो राष्ट्रगान के समय खड़ी नहीं हुई
- कुछ अन्य उदाहरण भी है जब लोगों को राष्ट्रीय गान के लिए खड़े नहीं होने के लिए बाहर फेंक दिया गया था।
ये अलग बात है कि इतना होने के बाद भी सिनेमा घरों में लोगों पर राष्ट्रगान थोप दिया गया।
सुषमा स्वराज ने आवेग में Amazon को खुलेआम धमकी देकर जय जयकार तो बटोर लिया, लेकिन उन्होंने कुछ वैसे लोगों को राष्ट्रवाद के नाम पर ट्रोल और परेशान करने का बहाना भी दे दिया, जिनमें भ्रष्टाचार, अपराध, ग़रीबी और अत्याचार को देखकर राष्ट्रवाद नहीं जागता, लेकिन राष्ट्रगान और तिरंगा देखकर जाग जाता है।
स्कूल और कॉलेज में पढ़ते समय जब भी मैं पंद्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को राष्ट्रीय ध्वज के नीचे जन गण मन सुनता था, मेरे रोंगटें खड़े हो जाते थे। मैं जानता हूँ कि आप में कई लोगों ने भी ऐसा ही कुछ अनुभव किया होगा, लेकिन मैं ये भी जानता हूँ कि हर सोलह अगस्त और सताइस जनवरी को जब आप सड़कों पर कागज़ और प्लास्टिक के झंडे देखते होंगे, तब आपको भी वैसे ही बुरा लगता है, जैसा मुझे लगता है। सड़कों पर फैले झंडों को देखकर हम लोगों को धमकी नहीं देते हैं, हम ये आशा करते हैं कि ये कम हो जाएगा। राष्टवाद एक भावना है, इसे लोगों पर थोपा या ठूंसा नहीं जा सकता।