लोकतंत्र के मंदिरों को अपवित्र करते अपराधी तत्व

इतिहास के पृष्ठ पलट कर देखने पर हम पाते है कि भारत मे तुष्टिकरण कर नाजायज़ तात्कालिक समझोतों द्वारा छद्म शांति स्थापना की तदर्थवादी प्रवृत्ति मे कोई नवीनता ना होकर यह हमारे देशी सत्ताधीशों की सदियों पुरानी फितरत है। जातीय वैमनस्य से उत्पन्न संगठित समाज की समन्वित शक्ति के अभाव मे सत्ता सुरक्षित रखने हेतु अधिकांश भारतीय रियासतों ने मुग़लों से समझोते कर तात्कालिक शांति स्थापित की थी। ​आधुनिक भारत मे भी ज़िन्ना समर्थकों के दबाव मे विभाजन स्वीकार कर शांति की कल्पना की गई, यही भूल विभिन्न राजनीतिक दलों से समझोते कर बड़ी संख्या मे असामाजिक तत्वों के विधान सभा एवं लोकसभा मे निर्वाचन के रूप मे फिर से दोहराई जा रही है।

परंतु कालांतर मे मुग़लों से समझोते टिकाऊ नही रहे और देशी रियासतें एक के बाद एक मुग़लों की विस्तारवादी नीति का शिकार हुई एवं भारत पहली बार परतंत्र हुआ, ज़िन्नावादियों के तुष्टिकरण के लिये शर्मनाक देश विभाजन की स्वीकृति के बाद भी सीमा पर स्थायी अशांति है। यही परिणति भविष्य मे भारतीय लोकतंत्र की होगी जब राजनीति मे शुचिता का अभाव स्थायी होकर लोकसभा एवं विधान सभा मे असामाजिक तत्वों के बहुमत का रूप लेगा। इन्हे प्रश्रय देने वाले राजनीतिक दल एवं नेता इनके इशारे पर नाचने को विवश होंगे। यह एक नई प्रकार की परतंत्रता होगी जिसमे हम अपने ही लोगों के ग़ुलाम होंगे।

किसी भी देश मे असामाजिक तत्वों का बाहुल्य तब खतरा बनता है जब इन तत्वों को सामाजिक मान्यता मिल जाती है। मुग़लों के पूर्व विदेशी आक्रमणों का हमने प्रबल सशस्त्र प्रतिकार किया था परंतु मुग़लों की सत्ता देशी रियासतों ने स्वीकार कर ली यहीं से भारत की परतंत्रता का आरंभ हुआ। आधुनिक युग मे भी जिन्ना की नाजायज़ मांग स्वीकार करने पर भारत खंडित हुआ।

इसी प्रकार वर्तमान राजनीति मे भी जाति धर्म के नाम पर समाज मे नफ़रत के बीज बोना एवं नैतिक पतन के अंतिम पायदान तक जाकर भी अपनी क्षूद्र राजनीतिक महत्वाकांक्षा पूर्ण करना शर्मिंदगी का विषय अब नही रहा, उप्र की योगी सरकार द्वारा असामाजिक तत्वों पर कठोर कार्यवाही की लगभग सभी राजनीतिक दलों के शीर्ष नेतृत्व द्वारा एक स्वर से निंदा एवं इन्ही नेताओं का चुनाव मे निर्वाचन, समाज द्वारा नैतिक मूल्यों के पतन की सामाजिक स्वीकार्यता है। तात्पर्य यह कि राष्ट्रीय एकता को खंडित करती इतिहास की उपरोक्त भूलों से सबक ना लेकर हम उन्हे दोहरा रहे है।

भारत के अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यक दोनो ही वर्गों की विभिन्न धर्मानुयायी जातियां कट्टर पंथ और प्रतिक्रियात्मक कट्टरपंथ की और प्रवृत्त हुई है। समाज मे व्याप्त इस कट्टरपं​थी मानसिकता का सख्ती से उपचार ना कर यदि हम इन प्रवृत्तियों को अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की पूर्ति का ज़रिया बनाने लगे तो शीघ्र ही इतिहास चक्र उलटा घूम कर भारतीय समाज को वहीं पहुंचा देगा जहां हम विदेशी आक्रमणो के काल मे थे। और देश की गाड़ी अगर पटरी से उतर गइ तो इतिहास गवाह है उबरने मे दशकों नही सदियों का समय लगता है।

कट्टरपंथी तत्वों एवं बाहुबलियों को नेस्तनाबूद करने की संवैधानिक शक्तियां शासन के पास है, परंतु निहित स्वार्थ एवं राजनीतिक विवशता वश सरकारें इन शक्तियों के प्रयोग से परहेज करने लगे तो समाज मे असामाजिक तत्व सर उठाएंगे। आज पंजाब एवं कश्मीर के हालात यही बयान करते है। पंजाब मे खालिस्तानी तत्वों द्वारा पुलिस थाने पर हमला कर अपराधी को मुक्त कराने की गुंडागर्दी के सामने राजनीतिक दबाव के कारण मजबूर पुलिस बल, एवं कश्मीर मे आए दिन निर्दोषों की हत्या कर कानून को दी जा रही चुनौती, आदि घटनाऐं सरकारों के संकल्प की दृढ़ता एवं प्रतिबद्धता पर प्रश्नचिन्ह है। एसी घटनाओं का अतिरेक और इनके प्रति सरकारों की यथास्थितिवादी उदासीनता अथवा तदर्थवादी सोच के चलते समाज का सभ्य वर्ग भी प्रतिक्रिया देने पर विवश होता है।

यह क्रिया और प्रतिक्रिया की क्रमिक आवृत्ति समाज मे अराजकता के दृश्य निर्मित करती है। राज सत्ताओं के पसंदीदा यथास्थितिवाद एवं तदर्थवाद के शार्टकट का दुष्परिणाम इतिहास मे कई स्थानों पर दर्ज है। महाभारत के महाविनाश के बीज धृतराष्ट्र द्वारा देश विभाजन कर स्थापित अस्थायी शांति की तदर्थवादी मनोवृत्ति मे छिपे है। पिछले सात दशकों से असामाजिक तत्वों के दमन मे तदर्थवादी नीतियों के परिणाम हम आज कश्मीर बंगाल राजस्थान केरल आदि प्रांतों मे व्याप्त अराजकता के रूप मे देख रहे हैं क्योंकि यह स्थिति एक दिन या एक वर्ष मे उत्पन्न नही हुई है इसलिये इस प्रवृत्ति पर नियंत्रण के पिछले दिनों हुए सफ़ल प्रयास भी नाकाफी है। 

1947 मे छद्म शांति के लिये देश विभाजन रूपी भारी मूल्य चुकाने का आत्मघाती निर्णय तुष्टीकरण की नीति का कुपरिणाम था यह नीति आज़ादी के अनंतर भी कायम रही। आज शासन के लिये इस नीति से मुक्त हो इतिहास की भूलों से सबक लेना, अपनी संवेधानिक शक्तियों के दृढ़ता पूर्वक प्रयोग द्वारा असामाजिक तत्वों को निर्मूल कर लोकतंत्र के मंदिरों मे इनका प्रवेश निषेध करना अत्यावश्यक है।

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