हिन्दू जातिवाद: संविधान बनाम मनुस्मृति- भाग-२

हे मित्रों पिछले अंक में आपने देखा कि किस प्रकार भारतीय सरकार अधिनियम १९३५ को आधार बनाकर संविधान की रचना की गयी और हिन्दू समाज को संवैधानिक रूप से अगड़ा (Forward), पिछड़ा (Backward) अनुसूचित जाती (Schedule Caste) और अनुसूचित जनजाति (Schedule Tribes) में सदैव के लिए बाँट दिया। इस अंक में देखेंगे कि किस प्रकार मनुस्मृति द्वारा प्रदान की गयी वर्ण व्यवस्था इस संवैधानिक जातिगत व्यवस्था से न केवल श्रेष्ठ है अपितु समाज को जोड़ने वाली है, थी और हमेशा रहेगी:

अनुच्छेद १५ (४) के अंतर्गत राज्य को सामाजिक और आर्थिक दृष्टि से पिछड़े वर्गों के लिए प्रावधान बनाने की शक्ति प्राप्त है। 

अनुच्छेद १६ (४) के अंतर्गत राज्य को इन वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में स्थान पर आरक्षित करने की शक्ति प्राप्त है। संविधान में पिछड़े वर्ग की कोई परिभाषा नहीं दी गई है। सरकार को श्रेणी में आने वाले लोगों को लिखित करने की शक्ति प्राप्त है। रामकृष्ण बनाम मैसूर राज्य के मामले में सरकार ने एक आदेश द्वारा राज्य की जनसंख्या के २५ % भाग को पिछड़ा वर्ग घोषित कर दिया। यह वर्गीकरण आर्थिक सामाजिक पिछड़ेपन के आधार पर नहीं बल्कि जातिगत आधार पर किया गया था।

मैसूर उच्च न्यायालय ने उक्त आदेश को अवैध घोषित कर दिया। न्यायालय ने कहा कि पिछड़े वर्गों को उल्लेखित करने वाला सरकारी आदेश न्यायिक जांच के अधीन है। इस विषय में सरकार का निर्णय अंतिम नहीं है। न्यायालय इस बात की मांग कर सकते हैं कि सरकार का निर्णय किसी युक्तियुक्त सिद्धांत पर आधारित है या नहीं। न्यायालय इस बात की भी जांच कर सकते हैं कि किसी पद के लिए आरक्षित स्थानों नियुक्त है या नहीं। 

मित्रों इसी संविधान के दायरे रहकर मंडल कमीशन की नियुक्ति की गयी। जी हाँ वर्ष १९७९ ई में सामाजिक और शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्ग  की स्थिति का मूल्यांकन करने के लिए मंडल आयोग को स्थापित किया गया। आयोग के पास उपजाति, जो अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी (OBC)) कहलाती है, का कोई सटीक आँकड़ा था और ओबीसी की ५२% आबादी का मूल्यांकन करने के लिए १९३० की जनगणना के आँकड़े का इस्तेमाल करते हुए पिछड़े वर्ग के रूप में १,२५७ समुदायों का वर्गीकरण किया। वर्ष १९८० ई में आयोग ने एक रिपोर्ट पेश की और मौजूदा कोटा में बदलाव करते हुए २२ % से ४९.५ % वृद्धि करने की सिफारिश की। वर्ष २००६ ई जनसंख्या विवरण के अनुसार  पिछड़ी जातियों की सूची में जातियों की संख्या ३७४३  तक पहुँच गयी, जो मण्डल आयोग द्वारा तैयार समुदाय सूची में ६०% की वृद्धि है। वर्ष १९९० ई में मण्डल आयोग की सिफारिशें विश्वनाथ प्रताप सिंह द्वारा सरकारी नौकरियों में लागू किया गया। छात्र संगठनों ने राष्ट्रव्यापी प्रदर्शन शुरू किया। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्र राजीव गोस्वामी ने आत्मदाह की कोशिश की। कई छात्रों ने इसका अनुसरण किया।

तो मित्रों इस प्रकार हम देखे तो संविधान के द्वारा निम्न तथ्यों को निर्धारित कर दिया गया:-

१:- व्यक्ति जन्म से जाती समूहों में बँटा होता है, अर्थात कोई यादव कुल में पैदा हुआ है तो वो यादव ही रहेगा और संविधान के अनुसार भले ही वो उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बन जाये पर वो पिछड़े में ही गिना जायेगा। इसी प्रकार यदि अनुसूचित जनजाति या जाती का मनुष्य देश का राष्ट्रपति ही क्यों ना बन जाये वो और उसके परिवार के लोग अनुसूचित जनजाति या जाती के ही रहेंगे; 

२:- संविधान ने भारत के कर्म प्रधान वर्ण व्यवस्था को नकार दिया;

३:- जातिगत दुर्व्यवस्था को संवैधानिक ढांचा और आरक्षण का आवरण प्राप्त हो जाने के पश्चात ये और भी मजबूत हो गयी ;

४:- अनुसूचित जनजाति या अनुसूचित जाती आयोग तथा पिछड़ा आयोग बनाकर सनातन समाज को पूर्णतया विभक्त कर दिया गया;

५:- संविधान की आड़ में जातिगत जनगड़ना की बात भी बड़ी ही बेशर्मी से उठायी जा रही है, ताकि संख्या के आधार पर पहले से विभक्त सनातन समाज को और बाँट दिया जाये;

अत: जिस सनातन समाज के वेद, सम्पूर्ण रामायण, भगवत गीता, उपनिषद, ब्राह्मण, पुराण तथा महाभारत जातिगत व्यवस्था का निषेध करते है और कर्म के आधार पर दी गयी वर्ण व्यवस्था को अपनाने का संदेश देते है, वंही हमारा संविधान जन्म पर आधारित जातिगत व्यवस्था को हो आधार मान कर अपनी सम्पूर्ण रूप रेखा तैयार करता है। 

अब आइये जरा मनुस्मृति के द्वारा दिए गए प्रावधानों को देखते हैं:-

मनुस्मृति मानव समाज को व्यवस्थित और सदाचारी बनाने का एक दर्पण है। वो असभ्य दो पैर वाले जीवो को सभ्यता की ओर अग्रसित करने वाला एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है।

मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक ८७

सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः।

मुखबाहूरुपज्जानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत्।।1/87

इस सारे संसार का कार्य चलाने के हेतु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्ण शरीर के चार भाग मुख, वाहु, उरु और पाँव के अनुसार बनाये। और चारों वर्णों के काम पृथक्-पृथक् निर्धारित किये।इस श्लोक के द्वारा मनुस्मृति स्पष्ट करती है की ब्रह्मा के शरीर को समाज मानकर “मानव समाज” की सम्पूर्ण व्यवस्था को चार वर्ण में विभाजित किया गया, जो शरीर के अंगों के कर्म से जुड़े थे, जो निम्न प्रकार है:-

मुख:- से ब्राह्मण के उत्पत्ति का अर्थ:- शरीर में मुख हि वो अंग है जो बोलने या वार्तालाप में भाग लेने के लिए उपयोग में लाया जाता है। 

मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक ८८

अध्यापनं अध्ययनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहं चैव ब्राह्मणानां अकल्पयत्।।1/88

अत: मुख को केंद्र बनाकर मानव समाज के जो मनुष्य

वेद पढ़ना, वेद पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना, इन छह कर्मो में युक्त थे उन्हें  ब्राह्मण वर्ण में रखा गया।

वाहु: – से क्षत्रिय की उत्पत्ति का अर्थ:- मानव समाज में जो मनुष्य अपने अपने समाज कि रक्षा करने और दुष्टो तथा शत्रुओ  से युद्ध करने के लिए तैयार रहते थे, उन्हें क्षत्रिय वर्ण में रखा गया। यंहा हमारे शरीर में जो “वाहु” नामक २अङ् हैं वो शरीर की रक्षा करने और शारीरिक व्यवस्था को बनाये रखने के लिए अन्य सभी प्रकार के कार्य करते हैं जिससे शरीर के सभी अंगों की बराबर देखभाल कर सके अत: क्षत्रिय को वाहु से जोड़ा गया।

मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक ८९

प्रजानां रक्षणं दानं इज्याध्ययनं एव च।

विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः।।1/89

दुसरे और आसान शब्दों में ” न्याय से प्रजा की रक्षा अर्थात् पक्षपात छोड़के श्रेष्ठों का सत्कार और दुष्टों का तिरस्कार करना, विद्या-धर्म के प्रवर्तन और सुपात्रों की सेवा में धनादि पदार्थों का व्यय करना, अग्निहोत्रादि यज्ञ करना, वेदादि शास्त्रों का पढ़ना, और विषयों में न फंसकर जितेन्द्रिय रह के सदा शरीर और आत्मा से बलवान् रहना, ये संक्षेप से क्षत्रिय के कर्म आदिष्ट किये” अर्थात समाज के जो भी नर या मादा उस प्रकार के गुणों से युक्त होते हैँ, उन्हें क्षत्रिय कहा गया।

उरु:- उरु से वैश्य की उत्पति का अर्थ है कि जिस प्रकार मानव शरीर का उरु या पेट भोजन को संग्रहित कर उसे पकाता है पचाता है और उससे उतपन्न ऊर्जा को सम्पूर्ण शरीर में परीसन्चरित कर देता है, ठीक उसी प्रकार वैश्य वर्ण के अंतर्गत आने वाले मनुष्य भी अपने देश या राष्ट्र या समाज के लिए व्यवसाय करते हैं।

मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक ९०

पशूनां रक्षणं दानं इज्याध्ययनं एव च।

वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिं एव च।।1/90

चौपायों की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, वेद पढ़ना, व्यापार करना, ब्याज लेना, खेती (कृषि) करना, ये सात कर्म वैश्यों के लिये नियत किये हैं।अर्थात समाज के जो भी नर या मादा उस प्रकार के गुणों से युक्त होते हैँ, उन्हें वैश्य कहा गया।

पैर: पैर से शूद्र की उत्पत्ति का अर्थ है कि जिस प्रकार पैर सम्पूर्ण मनुष्य शरीर को आधार प्रदान करता है, वैसे हि जो मनुष्य हर वर्ण को अपना सहयोग दे सकते हैं और उन्हें किसी ना किसी प्रकार अपना सहयोग प्रदान करते हैं, उन्हें शूद्र वर्ण में  रखा गया।

मनुस्मृति अध्याय १ श्लोक ९१

एकं एव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।

एतेषां एव वर्णानां शुश्रूषां अनसूयया।।1/91

इस श्लोक के द्वारा उन सभी व्यक्तियों के बारे में बात कि जा रही है, जिनकी इच्छा ना तो वेदो को पढ़ाने में, ना युद्ध इत्यादि में भाग लेने में और ना व्यापार में होती है परन्तु यदि उन्हें आधार प्रदान किया जाए और कार्य सौपा जाए तो वो पढ़ाने, रक्षा करने और व्यापार करने में अपना अमूल्य सहयोग दे सकते हैं, ऐसे मनुष्यों को शूद्र वर्ण में रखा गया।

ये सभी वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित है, किसी व्यक्ति के जन्म से संबंधित नहीं है।  संत रविदास  निम्न कुल में पैदा हुए थे परन्तु वो अपने कर्म से संत शिरोमणि बन गए और मीराबाई (जो कि एक क्षत्रिय कुल में जन्मी थी) उनकी शिष्या बनी और उन्हें अपना गुरु माना। इसी प्रकार वाल्मीकि समुदाय के वाल्मीकि अपने कर्म से भगवान् वाल्मीकि के पद को प्राप्त किये और महर्षि वशिष्ठ और महर्षि विश्वामित्र जैसे महान तपस्वीयों के रहते भी उन्हें प्रभु श्रीराम के जीवन चरित्र् को लेख बद्ध करने का शुभ कार्य प्राप्त हुआ।

इसी प्रकार महाराणा प्रताप ने भील प्रजाति की सहायता से युद्ध करके मुगलो के दांत खट्टे किये। इसी प्रकार भारत रत्न बाबासाहेब भीमराव रामजी अम्बेडकर भी अपने ज्ञान और कर्म से कानून मंत्री और फिर भारत रत्न बन गये, उन्होंने अपने कर्मो से ब्राह्मण तत्व को प्राप्त कर लिया। इसी प्रकार बिरसा मुंडा जी जो एक आदिवासी समुदाय से आते थे, उन्होंने अंग्रेजों से संघर्ष किया और तिर धनुष का प्रयोग करके युद्ध किया और अपने कर्म से वो भगवान बिरसा मुंडा कहलाने लगे।

निष्कर्ष:-

संविधान जंहा जातिगत व्यवस्था को अपनाने के कारण अनुसूचित जाति /जनजाति या पिछड़ा वर्ग को सामान्य वर्ग में आने से वर्जित करता है, वहीं मनुस्मृति कर्म प्रधान वर्ण व्यवस्था को अपनाती है, अत: यह शूद्र कुल में जन्में मनुष्य को उसके कर्मों के आधार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण में शामिल हो जाने का पूर्ण अवसर प्रदान करती है।

आज आधुनिक काल में कई मंदिरों में अनुसूचित जाती/जनजाति के मनुष्य मुख्य पुजारी का दायित्व संभालने लगे हैँ, अत: ये पुजारी संविधान की दृष्टि में तो आजीवन अनुसूचित जाति/जनजाति के हि बने रहेंगे परन्तु मनुस्मृति की दृष्टि से ये ब्राह्मण माने जाएंगे।

आज भारत के विभिन्न विश्व विद्यालयों में अनुसूचित जाति/जनजाति या पिछड़ा वर्ग के अनगिनत अध्यापक/प्रोफ़ेसर शिक्षा देने का कार्य कर रहे हैँ, अब ये सभी भले हि पढ़ने या पढ़ाने का कार्य कर रहे हैँ पर संविधान की दृष्टि से तो सदैव अनुसूचित जाति/जनजाति के हि बने रहेंगे, जबकी अपने कर्म के आधार पर ये सभी मनुस्मृति के अनुसार ब्राह्मण माने जाएंगे।

इसी प्रकार भारतीय सेना में जितने भी सैनिक अनुसूचित जाति/जनजाति या पिछड़ा वर्ग से आते हैँ, संविधान की दृष्टि में वो सदैव उसी जाति या जनजाति के माने जायँगे परन्तु मनुस्मृति की दृष्टि में ये सभी क्षत्रिय माने जायँगे।

खैर मित्रों मनुस्मृति को अत्यधिक अपमानित किया और बदनाम किया गया है और हम सनातनियों का यह कर्तव्य है कि हम इसको उचित सम्मान और समुचित स्थान दिलाये।

लेखन और संकलन:- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)

Nagendra Pratap Singh: An Advocate with 15+ years experience. A Social worker. Worked with WHO in its Intensive Pulse Polio immunisation movement at Uttar Pradesh and Bihar.
Disqus Comments Loading...