शहीदों का अपमान करती नेताओं की गर्वोक्तियां

स्वातंत्र्योपरांत सत्तर वर्षों मे अधिकांश समय भारत मे शासन कर चुके राजनीतिक दल के शीर्ष नेतृत्व का यह विवादास्पद बयान कि आज़ादी की लड़ाई मे केवल कांग्रेस ने कुर्बानी दी दूसरे दल का एक कुत्ता भी नही मरा, स्वतंत्रता संग्राम मे शहीद हुए उन लाखों हुतात्माओं का अपमान है जिन्होनें देश के लिये कुर्बानी दी थी। करोड़ों देशवासियों ने लाठियाँ खाई अपना खून बहाया यकीनन उनमें अधिकांश कांग्रेस के विधिवत् सदस्य नही थे परंतु इससे उनके त्याग और बलिदान का मूल्य कम नही होता। इसी प्रकार वीर सावरकर के संबंध मे भी शीर्ष राजनेताओं द्वारा अकारण बेबुनियाद टिप्पणियां की जाती रही है।

स्मरण रहे आज़ादी केवल कांग्रेस के संघर्ष का प्रतिफल नही है वास्तविकता तो यह है कि ऐसे अनेक दृष्टांत मिलते है जब तत्कालीन कांग्रेस के प्रति अंग्रेज सरकार का नरम रूख देखा गया है। इसी प्रकार कांग्रेस का भी ब्रिटिश सरकार के प्रति नरम रूख रहा। श्री प्यारेलाल जी अपनी पुस्तक ” गांधी जी का जीवन चरित्र ”  मे लिखते है कि सर फिरोज शाह मेहता भारत मे ब्रिटिश राज को भगवान की कृपा का प्रसाद मानते थे एवं उन्होने कहा था कि यह भगवान की अज्ञात कृपा है कि आज भारत और इंग्लैंड साथ साथ है। 1902 के अहमादाबाद कांग्रेस अधिवेशन मे प्रधान पद से वक्तव्य देते हुए  सुरेन्द्रनाथ बैनर्जी ने भारत मे ब्रिटिश राज सदा बने रहने की वकालत की थी। तत्कालीन कांग्रेस मे नरम दल के शीर्ष नेताओं का यह आचरण सर ए ओ ह्यूम के उन्ही उद्देश्यों को क्रियात्मक रूप देता है जिन उद्देश्यों के लिये कांग्रेस की स्थापना की गई थी। भारत मे व्याप्त असंतोष के दुष्प्रभाव से ब्रिटिश राज की सुरक्षा हेतु सेफ्टीवाल्व के रूप मे ह्यूम द्वारा कांग्रेस की स्थापना की थी। यह तथ्य ए ओ ह्यूम की जीवनी के लेखक सर विलियम वेडर बर्न ने लिखा है। दूसरा उद्देश्य भारत को स्वराज देने की स्थिति मे ब्रिटिश राज के समर्थकों को दिया जा सके।

राष्ट्रवादी लेखक गुरूदत्त ने नरम दल एवं गरम दल को क्रमश: सरकार समर्थक एवं स्वराज समर्थक कहा था। सन 1907 मे सूरत के कांग्रेस अधिवेशन में सरकार समर्थक कांग्रेस नेतृत्व को पदच्युत करने की मांग रखने एवं स्वराज मेरा जन्म सिद्ध अधिकार है का उद्घोष करने वाले तिलक जैसे राष्ट्रवादियों को अधिवेशन स्थल से धक्के मार कर निकाला गया था। यही नरम पंथी आज़ादी के बाद सत्ता पर क़ाबिज़ हुए पिछले सत्तर वर्षों मे रही कांग्रेस सरकारें उन्ही की विचारधारा का प्रतिनिधित्व करती रही। पंडित जवाहरलाल नेहरू जब भारत आए थे तब भी कांग्रेस मे गोपाल कृष्ण गोखले जैसे नरमपंथी नेताओं का वर्चस्व था लोकमान्य तिलक जेल मे थे। अंग्रेज सरकार को भारत के लिये ईश्वरीय वरदान मानने वाली इस नरम पंथी मंडली मे पंडित मोतीलाल नेहरू भी सम्मीलित थे इस समूह के विचारों का प्रभाव पंडित नेहरू पर भी था यही कारण है कि भारत के राष्ट्रीय स्वाभिमान से जुड़े स्वदेशी आंदोलन को भी उन्होने मज़हबी राष्ट्रवाद  कहा।

अंग्रेजों के विरूद्ध राष्ट्रीयता की भावना का ज्वार पूरे देश के जनमानस मे व्याप्त था तब राष्ट्रीयता के संबंध मे पंडित नेहरू के विचार उनकी ऑटोबायोग्राफी से उद्धृत है ” राष्ट्रीयता एक विरोधी विचार है जो दूसरी कौमों के प्रति घृणा और द्वेष पर फलता फूलता है एवं विदेशी शासकों के प्रति घृणा और क्रोध से पनपता है।”  गुरूदत्त द्वारा उपरोक्त उद्धरण के संदर्भ मे अपनी प्रतिक्रिया लिखी जिसका भावार्थ है कि  देशवासियों मे अंग्रेजों के प्रति घृणा उनके अमानवीय अत्याचारी शासन के विरूद्ध थी इस घृणा को राष्ट्रवाद से जोड़ कर नही देखा जाना चाहिये।” उस समय भारत ग़ुलाम था और कांग्रेस के बड़े नेताओं के उपरोक्त वक्तव्य यदि तत्कालीन परिस्थिति मे समयानुकूल रणनीति थी तो उनके वर्तमान उत्तराधिकारीयों को यह स्वीकारने मे एतराज़ नही होना चाहिये कि सावरकर का अंग्रेजों से पत्र व्यवहार भी उनकी रणनीति थी। स्वतंत्रता संग्राम मे कांग्रेस के अलावा शेष भारतीयों की भूमिका को सिरे से नकार देना न्यायोचित नही है।

अपने दल के शीर्ष नेतृत्व की श्रंखला का महिमामंडन स्वाभाविक है इसमे कुछ भी आपत्तिजनक नही है परंतु स्वतंत्रता संग्राम का सारा श्रेय स्वयं लेकर अन्य दलों की देश भक्ति पर उंगली उठाना एवं उनके संघर्ष और त्याग के मुल्यांकन मे पूर्वाग्रह सर्वथा अनुचित है। महात्मा गांधी के नेतृत्व मे उस समय के एकमात्र दल कांग्रेस के ध्वज तले पूरे भारत ने आज़ादी की लड़ाई लड़ी थी देश के वर्तमान सभी राजनीतिक दलों के संस्थापक एवं उनके पूर्वज इस संग्राम मे सक्रिय भागीदार थे जिन्हे सम्मान पूर्वक स्मरण किया जाना चाहिये। कांग्रेस के नेतृत्व मे लड़े गए स्वतंत्रता संग्राम मे समस्त देश वासियों के त्याग और बलिदान को केवल एक वर्ग भुनाने की कोशिश ना कर सके संभवत: इसीलिये महात्मा गांधी ने आज़ादी का लक्ष्य प्राप्त होने के बाद कांग्रेस नामक संस्था को भंग कर इसे नया रूप देने संबंधी ड्राफ्ट तैयार किया था। दुर्भाग्यवश इसके अगले दिन उन्होने अंतिम सांस ली।

श्रीमती इंदिरा गांधी एवं श्री राजीव गांधी की हत्याऐं धार्मिक एवं सामाजिक प्रतिशोध से प्रेरित अपराधिक कार्यवाही थी इनकी शहादत को शत शत नमन है परंतु इनकी तुलना मे नेताजी सुभाष, भगत सिंह, राजगुरू, सुखदेव, चन्द्रशेखर आजाद, राम प्रसाद बिस्मिल, खुदीराम बोस एवं बटुकेश्वर दत्त यतिन्द्रनाथ दास, अश़फ़ाकुल्ला खॉ जैसे लाखों भारतीयों के त्याग और बलिदान को कमतर नही आंका जा सकता जिन्होनें कांग्रेस के अहिंसात्मक आंदोलन से मोह भंग होने पर सशस्त्र क्रांति का मार्ग अपनाया था। इनके मूल्यांकन मे कृपणता घोर कृतघ्नता होगी।  

स्वस्थ और दीर्घायु लोकतंत्र के लिये सबल विपक्ष अनिवार्य है भाजपा का विकल्प कांग्रेस ही हो सकती है। कांग्रेस इस तथ्य को गंभीरतापूर्वक समझ ले और वर्तमान युग की नब्ज़ पहचान कर तदनुसार अपने समर्थकों के लिये सार्वजनिक आचरण संबंधी आचार संहिता नीयत करे। पार्टी का शीर्ष नेतृत्व भाषा का संयम रखते हुए मज़बूत विपक्ष की भूमिका अदा कर अपनी विश्वसनीयता स्थापित करे। किसी भी संगठन का विश्वसनीय होने के साथ विश्वसनीय दिखना भी आवश्यक है।

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