सशक्त होती भाजपा के परिपेक्ष्य में समर्थकों की राह

2022 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा आसानी से जीत गई। जीतना स्वाभाविक था। परंतु वोट शेयर बढ़िया रहा और पार्टी अच्छी सीट लेकर पूरी धमक के साथ वापस आई।

वस्तुतः श्रीराम जन्मभूमि आंदोलन से प्रभावित होकर राजसत्ता को धर्मोन्मुख बनाने का प्रयास जो चला था वो एक प्रकार से पूर्ण हुआ है। भारतीय राजनीति अब छद्म सेक्यूलरवाद की केंचुल अधिकांशतः उतार चुकी है। आत्म-चेतना, ऐतिहासिक गौरव और सांस्कृतिक पुनरुत्थान का दौर आरम्भ हो चुका है।

भाजपा अब आगामी 30-40 वर्षों तक सत्ता की धुरी बनी रहेगी। ऐसा नही है कि चुनाव कभी नही हारेगी। केंद्र में हो सकता है एक-दो चुनाव हार जाएं या कुछ गठबंधन जैसा भी हो सकता है एक आध बार। पर वो वैसा ही अल्पकालिक होगा जैसा 1977 में कांग्रेस के साथ हुआ था।

राष्ट्रीय स्तर पर इनका कुल मत प्रतिशत 32-35% से ऊपर ही रहेगा जिसमें अब 25% के आस पास तो इनका ‘कोर वोटर’ ही हो गया है जो लंबे समय तक हर परिस्थिति में इन्हीं को वोट देगा।

राज्यों में देखा जाए तो 2017 से प्रारंभ होकर यूपी में भी लगभग तीन दशकों की धमक का पूर्वानुमान किया जा सकता है। बाकी जगह हार-जीत लगी रहेगी। क्योंकि सरकार बनाना भावात्मक और गणितीय खेल है। परंतु अभी तमिलनाडु, केरल, आंध्र प्रदेश, पंजाब, मिजोरम,मेघालय के अलावा सभी राज्यों में दशकों तक ‘BJP vs ALL’ वाला समीकरण ही रहेगा। बिहार, बंगाल, महाराष्ट्र और तेलंगाना में भाजपा अगले दो चुनावों के भीतर ही अकेले सत्ता में आने की स्थिति में होगी।

केजरीवाल या ओवैसी की पार्टी के सीमित उभार का भाजपा को फायदा होगा क्योंकि ये विपक्षी दलों के वोटों में सेंधमारी करेंगे जिससे भाजपा का जीतना अपेक्षाकृत आसान रहेगा। जैसे 2020 के बिहार चुनाव में ओवैसी ने कई सीटें NDA को जितायी थी। ऐसे ही 2022 में आजमगढ़ के उपचुनाव में बसपा के प्रत्याशी गुड्डू जमाली के अच्छे वोट पाने से भाजपा का प्रत्याशी निरहुआ, अखिलेश के भाई को हराकर जीत गया। जबकि यह सपा की सुरक्षित सीट थी। तो भाजपा चाहेगी की अधिक से अधिक दल अच्छे से लड़ें।

भाजपा का संगठन अकल्पनीय स्तर पर सशक्त हुआ है। 90% से अधिक बूथों पर इनके कार्यकर्ता हैं। जहाँ अभी तक बूथ पर एक कार्यकर्ता था वहां अब कई लोगों की कमिटी बनाने का कार्य चल रहा है। लगभग सभी जिलों में भाजपा का कार्यालय बनकर तैयार हो गया है। तो संगठन को जिला स्तर पर भी आसानी से साधा जा सकेगा।

संघ की शाखाएं भी संभवतः RSS के शताब्दी वर्ष 2025 तक लगभग 1 लाख तक पहुच जाएंगी।

सभी बड़े मीडिया समूहों पर भाजपा का दबदबा है और यह बढ़ता ही जायेगा।

बड़े औद्योगिक घरानों से या तो पार्टी के संबंध पहले से ही अच्छे हैं या सत्ता में होने के कारण अच्छे बने रहेंगे। तो ये जब चाहेंगे विपक्षी दलों को आर्थिक रूप से घोंट सकते हैं।

वर्तमान भारतीय राजनीति के निर्विवाद मास्टरमाइंड अमित शाह की आयु अभी मात्र 57-58 वर्ष है। स्वास्थ्य सही रहा तो उनका अभी दो दशकों का राजनीतिक करियर बाकी है। भाजपा के पास 60s, 50s, 40s, और 30s की आयु वाले सक्षम नेताओं की पंक्तियाँ तैयार खड़ी हैं।

कहा जा सकता है कि संगठन की गहराती जड़ों के कारण भारतीय राजनीति के ध्रुव पर अभी भाजपा ही रहेगी।

जनसामान्य के एक बड़े धड़े की मनोवृत्ति भी अधिक धर्म-परायण और राष्ट्रवादी होती जा रही है। बॉलीवुड जैसी असीमित शक्ति का धराशायी होना इसका ज्वलंत उदाहरण है।

संघ के प्रभाव के कारण भाजपा की टॉप लीडरशिप भारत के सभी राजनीतिक दलों में सबसे कम भ्रष्टाचारी है। संघ की पृष्टभूमि से आये अधिकतर नेताओं को पता भी नहीं है कि धन का दुरुपयोग कैसे किया जाता है। निचले स्तर पर भ्रष्टाचार पर नियंत्रण इनको करना पड़ेगा जो एक कठिन कार्य है।

प्रो-बिज़नेस होना भाजपा के डीएनए में है तो विकास कार्यों में तीव्रता रहेगी ही रहेगी। साथ ही भाजपा के परिवारवादी दल न होने के कारण पार्टी के अंदर गला काट प्रतियोगिता भी है। अगर कोई नेता अलोकप्रिय या अकर्मण्य होगा तो पार्टी के ही प्रतिद्वंदी लोगों को उसे हटाने का अवसर मिल जाएगा। तो शासन व्यवस्था अच्छी नहीं तो ठीक-ठाक चला करेगी और ये ‘ठीक-ठाक’ भी बाकी ‘प्राइवेट-लिमिटेड’ या ‘फैमिली एंड संस’ वाले दलों से बेहतर होगी। क्योंकि वहाँ पर आंतरिक लोकतंत्र का अभाव होगा।

आंतरिक प्रतियोगिता का एक दुष्प्रभाव यह होगा कि ये जब भी जहाँ भी हारेंगे वो आंतरिक कलह के कारण हारेंगे। उदाहरण स्वरूप 2019 झारखंड के चुनाव में मरांडी-रघुबर-सरयू राय के विवाद के कारण अच्छे मत प्रतिशत के बाद भी भाजपा हारी। लेकिन वोट शेयर बना रहने के कारण हार के बाद भी अगले चुनावों में ये मजबूत वापसी करेंगे।

विगत कई दशकों से सभी जगह पर समर्थकों ने ही मोर्चा जमाकर लोगों को यह बताया है कि राष्ट्रीय सुरक्षा, सांस्कृतिक उन्नयन एवं तीव्र आर्थिक उत्थान के लिए भाजपा क्यों आवश्यक है। अब राजनीतिक शक्ति अर्जित करने के बाद भाजपा की बारी है वे उन मापदंडों पर खरा उतरें जो उन्होंने स्वयं प्रस्तुत किये थे। पिछले आठ वर्ष सही ही कहे जा सकते हैं। आगामी 10 वर्ष तो भाजपा को लगभग निष्कंटक मिलने वाले हैं। समय लें। अपने कार्यों से सभी प्रश्नों का उत्तर दें।

आवश्यक होगा कि भाजपा के समर्थक ही भाजपा पर सकारात्मक दबाव बनाएं। मौलिक रूप से समर्थन और विषय विशेष पर आलोचना का मंत्र अपनाएं। जिससे इनके निचले स्तर के नेताओं के दिमाग ठिकाने रहें। शीर्ष नेतृत्व पर भी दबाव बना रहे जिससे वो भूलें नहीं कि वो वहां क्यों हैं। क्योंकि विपक्ष का विरोध सकारात्मक नही है और उसका उद्देश्य केवल विरोध के लिए विरोध करना है। सरकार का विरोध करते करते अधिकतर वे राष्ट्र के विरोध पर पहुँच जाते हैं। राष्ट्र और संस्कृति के प्रति समर्पित एक नए राष्ट्रीय विपक्ष के उभरने तक ऐसी स्थिति बनी रहेगी।

कुल मिलाकर ‘वोट भाजपा को ही देना है और कान पकड़कर काम भी इन्ही से करवाना है’ वाली लाइन पर अड़े रहना है। दलीय राजनीति में जो ‘टेक्टॉनिक शिफ्ट’ होना था वो हो चुका है।

बाकी जो रोज के मीडिया जनित तमाशे, सोशल-मीडिया की हुल्लड़बाजी, आरोप-प्रत्यारोप, राजनीतिक नाटक-नौटंकी आदि हैं वो सब तो चलते ही रहेंगे। वो नेताओं के रोज का काम है तो उसमें बुद्धि खपाने की कोई आवश्यकता नहीं है।

समय अब अपने परिवार को आर्थिक, धार्मिक एवं सामाजिक रूप से शक्तिशाली बनाने का है। क्योंकि देश की वास्तविक शक्ति, राष्ट्र की मूल इकाई परिवार ही है और सुसंस्कारित एवं सक्षम भावी पीढ़ी ही राजनीति का भविष्य तय करेगी।

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