अभी जागना बाकी है; कई फाइलें ऐसी हैं जो अभी खुलना बाकी है

कई फाइलें ऐसी हैं जो अभी खुलना बाकी है,
खून अगर तन में है तो अभी उबलना बाकी है।

Cinexplex के नारे बस दीवारों से लौटेंगे,
हर गली-चौराहों पर हुन्कार तुम्हारा बाकी है।

मित्र कौन है शत्रु कौन, आंख खोल कर देखो,
गद्दारों के दरबाजों पर श्रीराम लिखना बाकी है।

जो रोटी देश की खायें, तुमको पापी बतलाये,
ऐसे नमकहरामो को दण्डित करना बाकी है।

मन्दिर का एक दीप हर ओर प्रकाश कर सकता है,
अन्धों के घर के आगे मशाल जलाना बाकी है।

सौहार्द की बातें जो करते हैं, माला में उलझे रहते हैं,
नारायण चक्रधरी हैं यह उन्हें समझाना बाकी है।

आतंकी तलवारों पर जाति अंकित नहीं होती,
दलितों को अब “जोगेंद्र” [1] कथा सुनाना बाकी है।

उंचे चाहे बंगाले हो, लोहे के दरबाजे,
पहले भी सब टूटे हैं, यह याद दिलाना बाकी है।

हम राणा के बालक हैं, गुरू गोविन्द के शिष्य,
दरिंदों-शैतानों के सर को अभी झुकना बाकी है।

हाल के दिनों में कुछ घटनाएं बहुत तेजी से घटित हुई। 10 मार्च 2022 को भारतीय जनता पार्टी को चार राज्यों में बहुमत प्राप्त हुआ,  11 को “The Kashmir Files” रिलीज हुई, 14 मार्च को हिजाब पर कर्नाटक हाईकोर्ट का निर्णय आया और बाबा का Bulldozers तेजी से काम पर लग गया। दूसरी ओर, पश्चिम बंगाल में एक बार फिर हिंसा शुरू हो गई और राजस्थान हिंसा में एक कदम आगे बढ़ गया।

उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम से यह सिद्ध होता है कि मुसलमानों का वोट polarize हुआ [2]। उन्होंने एकजूट होकर समाजवादी पार्टी को वोट दिया (79%)। बहुत सम्भावना है कि मुस्लिम नेताओं/ मुल्लाओं के तरफ से निर्देश आया हो। तभी तो ओवैसी के भड़काऊ भाषणों, प्रियंका के बड़े-बड़े प्रलोभनों के बाद भी मुसलमानों के वोट केवल समाजवादी को मिले। 

हिन्दुओं के कुछ विशेष जातियों ने भी समाजवादी पार्टी को एकजूट हो कर वोट दिया। वह यह फिर से भूल गये की गलबहियां दे कर आप के साथ घूमने वाले सबसे पहले आपका ही गला घोटेगें। प्रगतिशील समझने वालों का शव ही पहले गिद्धों का निवाला बनता है। यही प्रकृति का नियम है। जो डाली झुकी रहती है वही पहले नोची जाती है। वैसे भी अगर समाजवादी पार्टी (उत्तर प्रदेश में) सत्ता में रहती तो कुछ वर्षों में यह पार्टी मुस्लिम अपराधियों के हाथों में चली जाती। मुलायम सिंह का 1993 में कारसेवकों पर गोली चलवाना, आजम खां के कहने पर 84 कोसी यात्रा पर रोक लगाना, कांवड़ यात्रा पर रोक लगाना, इत्यादि क्या पार्टी में मुस्लिम वर्चस्व के संकेत नहीं हैं [3], [4]? वैसे भी समाजवादी पार्टी मुस्लिम समुदाय के प्रति दयावान रही है [5]। इफ्तार पार्टी में टोपी पहन कर बोटियों को चबाते नेताजी को आप ने देखा होगा, परन्तु क्या इन नेताओं को गोवर्धन पूजा करते देखा है? शायद नहीं?

सत्य तो यह है कि “जाति” का राग गाने वाले नेता कभी भी अपनी जाति से जुड़े नहीं रहते। और यह अंबेडकर, मुलायम, पासवान से लेकर तेजस्वी यादव तक चरितार्थ है। जाति से बाहर विवाह करके क्या अपने जाति से विश्वासघात नहीं करते?

सत्य तो यह भी है कि इन नेताओं की “दुकान” बन्द होते ही, ये यहाँ की जनता को छोड़ अपने बच्चों के साथ विदेशी कोठियों में छिप जायेंगें। जैसा की पाकिस्तान में होता है। भारत में रहना उनके लिए अभी तक इसलिए सम्भाव है क्योंकि चारा डकार कर भी ये खुले मंच से उपदेश दे सकते हैं।

दूसरी समस्या हमारे बुद्धिजीवियों (?) और इतिहासकारों की है और यह जग जाहिर है  [6]। इधर कुछ वर्षों में इनके चेहरे का मुखोटा उतर चुका है।

मेरा सभी सनातनी धर्म-गुरुजनो से करबद्ध निवेदन है कि अपने अनुयायियों को समाज, देश, धर्म एवं संस्कृति के प्रति सजग होने के लिए प्रेरित करें [7]। हम राधे-श्याम के प्यार और भक्ति में कुछ इस तरह डूब गये हैं कि कुरुक्षेत्र के श्रीकृष्ण का शंखनाद नहीं सुन पाते हैं। धर्म के प्रति सजग होना सर्वथा अवश्यक है। यह देश की संस्कृति तथा सम्प्रभुता के लिए  भी अवश्यक है।  ज्ञान, ध्यान, योग से अर्जित उर्जा का सदुपयोग करना ही धर्म है। अकर्मण्यता नपुंसकता है, अधर्म है। हम “वसुधैव कुटुंबकम्” के जाल में फंसे हैं और एक वर्ग देश की संस्कृति को समाप्त करने के लिए तत्पर है। हिन्दू साधुओं को आपने “ईश्वर-अल्लाह” का भजन करते सुना होगा। क्या किसी मौलवी को राम-नाम का जाप करते देखा है? मस्जिदों के अजान पर हिन्दू विद्वानों को अपना प्रवचन रोकते देखा होगा। परन्तु क्या मस्जिद के अन्दर भारतीय संस्कृति पर कोई चर्चा हुई है?

मस्जिद से Voting instruction आ जाता है परन्तु  देश की संस्कृति की रक्षा एवं उत्थान के लिए हिन्दू गुरुजनो का कभी कोई दिशानिर्देश नहीं आता है। सत्य तो यह है कि जाति का झंडा उठाने के पहले, सड़कों पर भजन गाने के पहले, देश की संस्कृति का दीप जलाना होगा एवं उस दीप की ज्योति की अविरलता के लिए मशाल भी थामे रहना होगा। मंदिर की घंटी एवं गाय के गले की घंटी दोनों देश के संस्कृति के डोर से बंधी हुई है। याद रहे, फूल पाने के लिए झाड़ियों को हटाना ही होता है। 

युवावर्ग को भी यह सदा याद रखना चाहिए कि किसी भी Residential complex के Steel gates आततायियों को रोकने में समर्थ नहीं हैं। जिस बंग्लादेशी को आप घर की सफाई के लिए बुलाते हैं उसे गला घोटते कितना समय लगेगा [8]? अपना, परिवार तथा समाज की रक्षा के उपक्रम आपको ही करने होगें [[11]। कोई भी प्रशासन एवं व्यवस्था यह नहीं कर सकती है। यह तभी संभव है जब हम अपने संस्कार, धर्म एवं अधिकार  के प्रति सजग रहें।












Dr Bipin B Verma: The author is a retired professor of NIT Rourkela. He follows a nationalistic approach in life. His area of interest is “sustainable rural development”. Email: bipinbverma@gmail.com
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