दीपावली, तुम्हारा आना सबको शुभ हो!

जय राम जी की। अपने प्रभु श्री राम चौदह वर्ष का वनवास पूरा करके अयोध्या वापस आ आ रहे हैं। चहुँ ओर उनके स्वागत की तैयारी चल रही है। घर घर साफ़ सफाई, लिपाई पुताई, साज सज्जा और दीपमालिकाओं की व्यवस्था हो रही है। अद्भुत उत्साह का वातावरण है। हो भी क्यों न, जो रोम रोम में बसते है, कण कण में जिनकी सत्ता है वो तारणहार मानव देह धरे मर्यादा में बंधे आ रहे हैं।

भारतीय परंपरा के प्रत्येक पर्व के पीछे महत्वपूर्ण आध्यात्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक हेतु होते हैं। पांच पर्वों के समुच्च्य वाली दीपावली तो अपने आप में भारतीय जीवन मूल्यों का सम्पूर्ण ग्रन्थ है।

विकसित, शिक्षित, सुसंस्कृत और सुगठित समाज के लिए उसका आर्थिक रूप से सक्षम होना अनिवार्य है। दीपावली समाज के प्रत्येक वर्ग की आर्थिक व्यवस्था को सींचती है। पर्व के केंद्र में धन और ऐश्वर्य की अधिष्ठात्री माँ लक्ष्मी हैं जो बुद्धि कौशल्य  के अधिपति गणपति के साथ पधारती हैं।

बीती वर्षा ऋतु में कुम्हार का चाक बंद था, अब जल्दी- जल्दी दीपक, गुजरिया और देवता गढ़ रहा है। इन्ही से तो दीपावली का बोध होता है। हर घर में साफ़ सफाई से लेकर, घर को नया रूप दिए जाने का प्रयास है। सभी तरह के शिल्पी और उनके सहायक कामगार व्यस्त हैं। सभी नए वस्त्र धारण करेंगे तो वस्त्र व्यवसाय से जुड़े सभी जन व्यस्त हैं। धनतेरस को नए बर्तन और आभूषण लेने का विधान है तो ठठेरा और स्वर्ण- आभूषण व्यवसाय भी चमक रहा है। किसान के पास नयी उपज है। धन धान्य से भरी डेहरी है। भड़भूजा इससे खीलें, चूरा, लईया बना देगा जो माँ लक्ष्मी और गणपति को समर्पित किये जाएंगे। हलवाई नयी नयी मिठाइयाँ बनायेंगे जो पूरे पर्व भर प्रयोग में आएँगी। माली पूजा के फूल लाएगा। गोपालक – गोवर्धन के लिए दूध दही दे जायेगा। अंतिम पायदान खड़े परिवार के लिए भी दीपोत्सव में व्यवस्था है वो खेत में छूट गए फसल अवशेष की डंडियों से अलाय –बलाय भगाने की व्यवस्था करेगा। एक दिन भूमि के नीचे दबा रहने वाला जिमीकंद खायेंगे जो किसी गरीब के लिए भूमिगत धन की तरह निकलेगा। पुस्तक –लेखनी की भी पूजा होगी।दीपावली

शरद ऋतु अब शीत ऋतु का रूप लेगी  स्वास्थ्य महत्वपूर्ण है। धन्वन्तरी के निर्धारित  नियमों का पालन करना है। हमारे स्वास्थ्य पालक वैद्य का परामर्श भी आवश्यक है।

सम्पूर्ण समाज का अर्थ सिंचन करती ये व्यवस्था बताती है कि समाज की उन्नति अन्योनाश्रित है। एक की प्रगति और सुख  में ही दूसरे की प्रगति और सुख आश्रित हैं। यहाँ यह भी स्पष्ट होता है कि क्यों हमारी संस्कृति अधिकार मूलक नहीं वरन कर्त्तव्य मूलक है। कर्त्तव्य मूलक समाज में ही सर्व समाज के अधिकार सुरक्षित हैं और कर्तव्य मूलक समाज के लिए उत्कृष्ट मानवीय मर्यादाएं अपेक्षित हैं, जिनके प्रतीक प्रभु राम हैं।

माटी का दिया और माटी के ही देव बनते। दिया जब तक जलता प्रकाश बांटता। देव जब तक रहते आस्था, विश्वास का प्रतीक बनते, दुःख हरता- सुख करता बन रहते। विसर्जित होते, अले वर्ष पुनः गढ़े जाते। स्मरण कराते – मनुज देह भी माटी ही है, आज बनी कल विसर्जित होगी। जब तक प्राण ज्योति जले – प्रकाश बांटो, आस्था जिओ, दुःख बांटो, सुख अर्पित करो। माटी का मानव तन दिया भी देव भी।

सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक चेतना से परिपूर्ण इस महापर्व को आधुनिक बाज़ार का उपक्रम न बनने दें. इसके तत्व को जियें. ह्रदय तल से कहें – दीपावली, तुम्हारा आना सबको शुभ हो !

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