बस यूँ ही- परदेस में भारत माता की जय और अच्छे दिन

प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी जी के स्वागत में अमेरिका का भारतीय समुदाय उत्साह में है। भारत माता की जय और वन्दे मातरम के नारों से मन झूम उठता है। गर्व की अनुभूति होती है जब विश्व के इतने शक्तिशाली राष्ट्र की धरा पर वन्दे मातरम बोला जाए। अच्छे दिन यही तो हैं।

स्मरण कीजिए अस्सी के दशक के मध्य से नब्बे के दशक तक का समय जब देश के सर्व प्रतिष्ठित संस्थानों से कर दाताओं के पैसे से सर्व श्रेष्ठ तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र केवल विदेश जाने की जुगाड़ में रहते थे। बड़े भोलेपन से कहा जाता था, यहाँ बच्चों के लिए करने को कुछ है ही नहीं। यहाँ रह कर अपने को बरबाद थोड़े करना है। भाई विदेश जाओ। इंजीनियर हो तो विदेश जाओ, डॉक्टर हो तो विदेश जाओ, शोधार्थी हो तो विदेश जाओ। बच्चे और माता- पिता एक ही चिंता, कब विदेश का टिकट कटेगा?

और तो और, उस समय की एक प्रख्यात दूरदर्शन प्रस्तोता जो बाद में प्रसार भारती में भी रहीं ने तो, दूरदर्शन के एक कार्यक्रम में चर्चा के दौरान कहा था, “ब्रेन्स ड्रेन में पड़े रहें इससे तो अच्छा ब्रेन ड्रेन हो जाए”। माता पिता, मन में फूटते हुए लड्डुओं के साथ बाहर मुंह बना के कहते, क्या करें, इस देश में धरा क्या है बच्चों के लिए। बाहर जायेंगे ज़िन्दगी बन जाएगी।

ज़िन्दगी तो माता पिता की भी बन जाती थी। बच्चों के विदेश का टिकट कटते ही, रिश्तेदारों, सहकर्मियों और पड़ोसियों के बीच में उनका कद कई गुना बढ़ जाता था। अमेरिका जाने की साख इतनी अधिक थी कि शेष सब कुछ बौना हो जाता था। एक घर के दो बच्चों में भी जिसका  विदेश में कुछ जुगाड़ न लग पाए वो निठल्ला हो जाता था।

एक बार जो समंदर पार गए, पश्चिम के धनाड्य देशों की सुख सुविधाएँ, संपन्न जीवन जीना सीख लिया तो अपने देश का सब कुछ कमतर लगने लगा। घर तो वापस आना ही है कहकर जाने वाले, नागरिकता प्राप्ति के जुगाड़ में लग गए। नागरिकता मिल गयी तो दो –तीन साल में एक बार आना ही देश, दोस्तों और परिवार से प्यार का प्रमाण हो गया। उसमें भी शिकायत रहती। यहाँ के कोला और अमेरिका के कोला के टेस्ट में ज़मीन आसमान का अंतर है। एअरपोर्ट इतना गन्दा है कि उतरते ही वापस जाने का मन करता है, वगैरह वगैरह। बहुतों का परिवार प्रेम तो बाद में माता पिता को पैसे भेजने तक सीमित रह गया।

एक परिवार अपनी नातिन के जन्म पर केवल इसलिए प्रसन्न था कि उसका जन्म अमेरिका में होने कारण उसे वहां की नागरिकता स्वतः मिल जाएगी और इस बहाने बेटी जिसे नागरिकता के लिए कुछ कठिनाई दिखाई दे रही थी वो आसान हो जाएगी।

बच्चे अमेरिका या अन्य पश्चिमी देशों में भेजने वाले इन परिवारों ने यदि एक बार बच्चों के साथ अमेरिका या अन्य पश्चिमी देशों का भ्रमण कर लिया तो उनके किस्से सुना सुना कर अपने भारतीय साथियों का जीना दुश्वार कर दिया।

ऐसा लगता था, बस वही बुद्धिशाली छात्र हैं जो अमरीका पहुँच गए, और वही गर्व करने योग्य अभिभावक हैं जिनके बच्चे ऐसा कर सके। भारत की बात करने पर, वो कहते, “हू केयर्स अबाउट दिस कंट्री”

एक अलग तरह की दम घोंटू  नकारात्मकता थी।

समय बदला। भारत भी धीरे धीरे आगे बढ़ता गया। फिर भारत को नया नेतृत्व मिला। जिसने अपनी दूरदर्शिता से वैश्विक पटल पर भारत की छवि बदल दी। विश्व आज  भारत को संभावनाओं के देश के रूप में देखता है।

और, वो जो इस देश में है क्या करने को कहकर, चले गए थे, इसे पिछड़ा और गन्दा कहकर वहां की नागरिकता ले ली थी, अभिमान के साथ “भारत माता की जय” के नारे लगाने आते हैं।

ये पोस्ट उन लोगों के सम्मान के लिए है, जिन्होंने सामर्थ्य होने और अवसर मिलने के बाद भी, भारत में रहकर, भारत के लिए काम किया और अपने श्रम, मेधा, दूरदर्शिता और स्वेद कणों  की पूंजी से आज भारत को विश्व की उभरती हुयी महाशक्ति बनाने में सफल हुए.। ये आज जो लोग अमेरिका में “भारत माता की जय” बोल रहे हैं ये वस्तुतः, ब्रेन ड्रेन के काल में भारत को अपनाने वालों की जय है।

भारत माता की जय और वन्दे मातरम के नारों से मन झूम उठता है। गर्व की अनुभूति होती है जब विश्व के इतने शक्तिशाली राष्ट्र की धरा पर वन्दे मातरम बोला जाए । अच्छे दिन यही तो हैं।

स्मरण कीजिए अस्सी के दशक के मध्य से नब्बे के दशक तक का समय जब देश के सर्व प्रतिष्ठित संस्थानों से कर दाताओं के पैसे से सर्व श्रेष्ठ तकनीकी और वैज्ञानिक शिक्षा प्राप्त करने वाले छात्र केवल विदेश जाने की जुगाड़ में रहते थे । बड़े भोलेपन से कहा जाता था, यहाँ बच्चों के लिए करने को कुछ है ही नहीं। यहाँ रह कर अपने को बरबाद थोड़े करना है। भाई विदेश जाओ। इंजीनियर हो तो विदेश जाओ, डॉक्टर हो तो विदेश जाओ, शोधार्थी हो तो विदेश जाओ। बच्चे और माता- पिता एक ही चिंता, कब विदेश का टिकट कटेगा?

और तो और, उस समय की एक प्रख्यात दूरदर्शन प्रस्तोता जो बाद में प्रसार भारती में भी रहीं ने तो, दूरदर्शन के एक कार्यक्रम में चर्चा के दौरान कहा था, “ब्रेन्स ड्रेन में पड़े रहें इससे तो अच्छा ब्रेन ड्रेन हो जाए”। माता पिता, मन में फूटते हुए लड्डुओं के साथ बाहर मुंह बना के कहते, क्या करें, इस देश में धरा क्या है बच्चों के लिए। बाहर जायेंगे ज़िन्दगी बन जाएगी।

ज़िन्दगी तो माता पिता की भी बन जाती थी। बच्चों के विदेश का टिकट कटते ही, रिश्तेदारों, सहकर्मियों और पड़ोसियों के बीच में उनका कद कई गुना बढ़ जाता था। अमेरिका जाने की साख इतनी अधिक थी कि शेष सब कुछ बौना हो जाता था। एक घर के दो बच्चों में भी जिसका  विदेश में कुछ जुगाड़ न लग पाए वो निठल्ला हो जाता था।

एक बार जो समंदर पार गए, पश्चिम के धनाड्य देशों की सुख सुविधाएँ, संपन्न जीवन जीना सीख लिया तो अपने देश का सब कुछ कमतर लगने लगा। घर तो वापस आना ही है कहकर जाने वाले, नागरिकता प्राप्ति के जुगाड़ में लग गए। नागरिकता मिल गयी तो दो –तीन साल में एक बार आना ही देश, दोस्तों और परिवार से प्यार का प्रमाण हो गया। उसमें भी शिकायत रहती। यहाँ के कोला और अमेरिका के कोला के टेस्ट में ज़मीन आसमान का अंतर है। एअरपोर्ट इतना गन्दा है कि उतरते ही वापस जाने का मन करता है, वगैरह वगैरह। बहुतों का परिवार प्रेम तो बाद में माता पिता को पैसे भेजने तक सीमित रह गया।

एक परिवार अपनी नातिन के जन्म पर केवल इसलिए प्रसन्न था कि उसका जन्म अमेरिका में होने कारण उसे वहां की नागरिकता स्वतः मिल जाएगी और इस बहाने बेटी जिसे नागरिकता के लिए कुछ कठिनाई दिखाई दे रही थी वो आसान हो जाएगी।

बच्चे अमेरिका या अन्य पश्चिमी देशों में भेजने वाले इन परिवारों ने यदि एक बार बच्चों के साथ अमेरिका या अन्य पश्चिमी देशों का भ्रमण कर लिया तो उनके किस्से सुना सुना कर अपने भारतीय साथियों का जीना दुश्वार कर दिया।

ऐसा लगता था, बस वही बुद्धिशाली छात्र हैं जो अमरीका पहुँच गए, और वही गर्व करने योग्य अभिभावक हैं जिनके बच्चे ऐसा कर सके। भारत की बात करने पर, वो कहते, “हू केयर्स अबाउट दिस कंट्री”

एक अलग तरह की दम घोंटू नकारात्मकता थी।

समय बदला। भारत भी धीरे धीरे आगे बढ़ता गया। फिर भारत को नया नेतृत्व मिला। जिसने अपनी दूरदर्शिता से वैश्विक पटल पर भारत की छवि बदल दी। विश्व आज  भारत को संभावनाओं के देश के रूप में देखता है।

और, वो जो इस देश में है क्या करने को कहकर, चले गए थे, इसे पिछड़ा और गन्दा कहकर वहां की नागरिकता ले ली थी, अभिमान के साथ “भारत माता की जय” के नारे लगाने आते हैं।

ये पोस्ट उन लोगों के सम्मान के लिए है, जिन्होंने सामर्थ्य होने और अवसर मिलने के बाद भी, भारत में रहकर, भारत के लिए काम किया और अपने श्रम, मेधा, दूरदर्शिता और स्वेद कणों  की पूंजी से आज भारत को विश्व की उभरती हुयी महाशक्ति बनाने में सफल हुए.। ये आज जो लोग अमेरिका में “भारत माता की जय” बोल रहे हैं ये वस्तुतः, ब्रेन ड्रेन के काल में भारत को अपनाने वालों की जय है

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