महाभारत का कर्ण और भारत का दलित समाज

कर्ण को जीवन भर इस बात का कष्ट रहा कि उसे दुनिया सूतपुत्र बुलाती है, अक्सर उसकी जाति उसके सामर्थ्य के समक्ष तुच्छ प्रतीत होने लगती है।

कर्ण स्वयं के सामर्थ्य को जानते हुए एवं अपने पांडव होने का ज्ञान होने पर भी दुर्योधन का साथ कितने अधर्मो के बाद भी सिर्फ इसलिए देता गया क्योकि दुर्योधन ने उसका सम्मान किया था। इस घटनाक्रम में देखे तो दुर्योधन को कर्ण से अधिक लाभ एवं अवसर प्राप्त हुए, जैसे-
– कर्ण अर्जुन का तीक्ष्ण विरोधी होने के साथ उसके बराबर सामर्थ्य वान भी था।
– कर्ण के सामर्थ्य के आधार पर ही दुर्योधन ने द्रौपदी का चीर हरण करने का भी दुस्साहस किया।
– कर्ण के सामर्थ्य के बल पर ही दुर्योधन ने श्री कृष्ण के शांति प्रस्ताव को भी ठुकरा दिया।
– कर्ण के सामर्थ्य के बल पर ही दुर्योधन ने महाभारत युद्ध करने का साहस किया।

उपरोक्त उदाहरणों से यह समझा जा सकता है कि कर्ण के सामर्थ्य के आड़ में दुर्योधन ने कई अधर्म किये। लेकिन इन सबके पश्चात कर्ण को दुर्योधन से बदले में सिर्फ अंग देश और लालच के वशीभूत हुए दुर्योधन का सम्मान मिला। वह दुर्योधन की मित्रता से वशीभूत हो कर यह सोचने लगा था कि दुर्योधन सूत पुत्र का भी सम्मान करता है लेकिन इस मित्रता से संसार के समस्त सूतो को कोई लाभ न मिला।

दूसरी तरफ भगवान परशुराम थे, जिनके पिता जमदग्नि ऋषि की हत्या एक क्षत्रिय राजा ने कर दी, तत्पश्चात उन्होंने इस बात के लिए प्रतिशोध लेने की बजाए यह विचार किया कि इन सबका मूल कारण क्या है जिसके कारण समाज को ऐसे चीजो का सामना करना पड़ रहा है।

उन्होंने समाज के पीड़ा को अपनी पीड़ा मानते हुए अपने सामर्थ्य से पृथ्वी से समस्त क्रूर क्षत्रिय राजाओ का सफाया कर समस्या को मूल से ही समाप्त कर दिया।

इसी प्रकार यदि कर्ण अपने समाज की पीड़ा को आत्मसात करता और अपने दुःखो को उनके दुःखो के समान मान कर अपने सामर्थ्य का प्रयोग उन समस्त निम्न वर्गों को अधिकार दिलाने में करता तो परिस्थितियां कुछ और होती। वह दुर्योधन की सहायता से भी संसार के अन्य निम्न जातियों के लिए भी कुछ व्यवस्था कर सकता था, लेकिन उसने सिर्फ स्वंय के अपमान और सम्मान को महत्व दिया।

वर्तमान राजनीतिक परिस्थितियों को देखे तो कर्ण की जगह दलित है और दुर्योधन की जगह तथाकथित दलित नेता है, जो दलितों के सामर्थ्य यानी वोट बैंक के लिए उन्हें अपना मित्र बनाते है एवं विजयी होते है, लेकिन बदले में दलितों को उनके अधिकार नही दिलाते बल्कि उन्हें अपने लाभ के लिए साजिशों के महाभारत में भी उतारने को तैयार रहते है।

महाभारत काल में कर्ण ने स्वयं के लाभ हेतु अपने सामर्थ्य को अधर्मी दुर्योधन को प्रदान कर दिया न कि धर्म युद्ध के समय धर्म की शरण में गया।

वर्तमान समय में भी अधिकांश दलित अपने स्वंय के लाभ मात्र के लिए अधर्मी दलित नेताओ को अपना सामर्थ्य यानी की वोट बैंक प्रदान कर रहे है, नाकि किसी राष्ट्रीय हित में।

बदले में उन्हें आरक्षण रूपी झुनझुना मिल गया है, वो इसी को बजा कर खुश रहते है, नाकि वे बराबर के अधिकारों के बारे में सोचते है और न ही वे अपने सामर्थ्य का प्रयोग कर दलित वर्ग की मूल समस्याओ का उत्थान करने का प्रयास करते है।

इनके सामर्थ्य के आधार पर ही दुर्योधन रूपी तथाकथित दलित नेता देश के विधि-विधान को भरपूर्ण क्षति पहुँचाते है और देश विरोधी हरकतों में भी जाने-अनजाने में सहयोग देते है।

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