“बिशुन बिशुन बार बार”– खो गया परम्परा का प्रवाह

उत्तर प्रदेश के मध्य भाग में लोक पर्वों की बहुतायत है। हिंदी पंचांग के कुछ माह तो ऐसे हैं जिनमें हर एक दो दिन बाद एक लोकपर्व आ जाता है। ये पंचमी, वो षष्ठी, ये अष्टमी और इनमें से हर पर्व की एक लोककथा है, पूजा है, देवी देवता हैं, विशेष फल और व्यंजन हैं और साथ ही है उसका कुछ न कुछ आध्यात्मिक और सामाजिक ध्येय। न जाने कितने सौ या कदाचित सहस्त्र वर्षों से परम्परा का ये प्रवाह होता रहा है।

हम उस पीढ़ी से हैं जिसने बचपन में इसका बहुत आनन्द लिया है और अब धीरे धीरे इसका विलोपन सा होते देख रही है। तब ये छोटे छोटे लोकपर्व भी महापर्व हुआ करते थे। प्रयास रहता था वृहद् परिवार के जितने सदस्य एक स्थान पर एकत्र हो सकें वो साथ ही ये पर्व मनाएं।

हमारे परिवार में भी ऐसा ही होता था। मेरी बड़ी माँ यानि ताई जी भी हमारे शहर में रहती थीं और हम हर लोकपर्व पर उनके घर जाया करते थे। मेरी माँ धार्मिक प्रवृत्ति की और अध्यात्मिक रुझान वाली महिला हैं। दैनिक पूजा विधि, हवन इत्यादि करने में निपुण, संस्कृत के श्लोक बोलकर संकल्प करने वाली और मेरी ताई जी औपचारिक शिक्षा से पूरी तरह शून्य पूजा के नाम पर बड़ों से सीखी परिपाटी निभाने वाली, किन्तु ताई जी की पूजा की पूरी विधि अत्यंत अनुशासित थी। किस विधि के बाद क्या होना है उसमें कभी कुछ आगे पीछे नहीं होता।

किसी भी लोकपर्व की पूजा में ताई जी सबसे आगे बैठतीं उनके पीछे या बगल में माँ तथा अन्य महिलाएं और मंडल बनाकर चारों तरफ बच्चे।

ताई जी की पूजा कुछ अवधी पंक्तियों से प्रारंभ होती थी, जिसे सारी महिलाएं दोहराती थीं। अब वो पंक्तियाँ मुझे ठीक ठीक स्मरण नहीं हैं, प्रयास करने पर मात्र इतना ही स्मरण आता है – बिशुन बिशुन बार बार प्रनाम, आगे की पुरखिनी जौन सिखाईन, वही करत हौं नाथ, यद्यपि ये कई पंक्तियों वाला एक प्रारंभिक संकल्प था।

कई बार बहुत अजीब लगता, क्रोध भी आता कि जब माँ इतने अच्छे से पूजा विधि करती हैं तो वहाँ जाकर पीछे क्यों बैठ जाती हैं? क्यों अपने संस्कृत संकल्प की जगह, बिशुन बिशुन बार बार दोहराती हैं? एक दिन पूछ ही लिया माँ से, उनका उत्तर था, जो ताई जी करती हैं वो हमारी परंपरा है, उसको  मैं उनसे अधिक नहीं समझती।

संतुष्टि नहीं हुयी इस उत्तर से। अगली बार ताई जी से तमाम प्रश्न कर डाले, इसका क्या अर्थ है, ऐसे क्यों करती हो, आज ये ही क्यों खाना है, इससे क्या हो जायेगा और ये गाती क्या हो पहले ये पता है ?

मेरे प्रश्नों ने उनके मर्म पर चोट की थी। स्वाभाविक था उनके पास उत्तर नहीं थे क्योंकि उन्होंने ये प्रश्न कभी पूछे ही नहीं थे, या यूँ कि ये प्रश्न उनके मन में कभी आए ही नहीं थे या संभवतः उन्हें इसका समय ही नहीं मिला था।

हाँ, जो गाती हूँ उसका अर्थ पता है, और पूरी तरह सोच समझ कर गाती हूँ। जो गाती हूँ उसका अर्थ है, हे विष्णु भगवान मैं बार –बार तुम्हारा ध्यान करते हुए प्रणाम करती हूँ, मुझे तुम्हारा आवाहन या पूजन नहीं आता मैं केवल वही करती हूँ जो मुझे मेरी पुरखिनों (परिवार की बड़ी महिलाओं) ने सिखाया और उन्हें उनकी। मेरी अज्ञानता को क्षमा करते हुए मेरा और मेरे साथ पूजा करने वाले सभी का प्रणाम और पूजा स्वीकार करो।

जब किसी बात का अर्थ ही नहीं पता, कारण ही नहीं पता  तो क्यों करती रहती हो केवल इसीलिए क्योंकि पुरखिनें करती थीं ? हाँ, केवल इसीलिए। आगे जो  उत्तर मिला उसकी अपेक्षा नहीं थी। ताई जी ने जोड़ा था, हमने तो पढ़ाई का मुंह नहीं देखा, घर के काम ही सीखे और ये पूजा पाठ भी उसी घर के काम का हिस्सा था। कुछ मायके से सीख कर आई थी, कुछ तुम्हारी दादी ने यहाँ की रीत सिखा दी। बड़े गुस्से वाली थीं। पूजा में कभी कोई भूल  स्वीकार नहीं थी। दादी सास ने उनको ऐसे ही सिखाया था।

ऐसे सवाल हमारे मन में कहाँ आते, पुस्तक हाथ में आयी होती तो मन में सवाल भी आते। हमने तो जो बड़ों ने कहा सीख लिया। ये मानकर कि हमारे बड़े पीढ़ियों से ऐसा करते आ रहे हैं और इसी से हमारे परिवार की सुख सम्पन्नता है। परम्परा निभाना हमारा धर्म है।

आगे ताई जी ने गंभीरता से कहा था, “ लेकिन एक बात है, हमारी रामायण, गीता, भागवत, पुराण में इन सबके कारण लिखे होंगे, अब जब तुम लोगों की पीढ़ी आयेगी तो इसे समझ के करना, अपनी पुस्तकों में इनके उत्तर ढूंढना, क्यों कर रहे हैं ये? समझ के करोगे तो और मन लगा के कर पाओगे, हमसे अच्छा कर पाओगे।

कुछ समय और बीता, हमारी पढ़ाई बढ़ गयी, सब की व्यस्तता बढ़ गयी। हर लोकपर्व पर ताई जी के पास जाना छूट गया। धीरे धीरे उन लोकपर्वों की प्रतीक्षा भी कम हो गयी।

घर में नयी पीढ़ी आ गयी, उसको अपने प्रश्नों के उत्तर नहीं मिले क्यों, कैसे, क्या होगा?। ताई जी के पास उत्तर नहीं थे। नयी पीढ़ी की पढ़ाई अलग थी तो उसके पास उत्तर ढूँढने की क्षमता भी अलग थी।

परम्परा का नया नामकरण ढकोसला हो गया। ढकोसला कौन निभाता है भला।

उन लोकपर्वों और उस,  “बिशुन बिशुन बार बार”  की स्मृति सताती है कभी कभी।  

सोचती हूँ, कुछ वो पीढ़ियाँ थीं, जिन्होंने कष्ट सहे, शिक्षा से वंचित रहीं, आर्थिक अभाव झेला किन्तु अपनी परम्परा को जीवित रखा वैसे का वैसा, जैसा उनके पुरखे दे गए थे। इस आशा में कि भावी पीढ़ियाँ इन परम्पराओं को समझ कर, इनके कारण और भावना का विवेचन कर,  इस सामाजिक और आध्यात्मिक उत्सवधर्मिता को और उत्साह से आगे बढ़ाएंगी।

और कुछ मैकाले शिक्षा पद्धति से निकली आज की जागरूक पीढ़ियाँ हैं जिन्होंने परम्पराओं को ढकोसला कहकर उनका प्रवाह ही बाधित कर दिया।

शिक्षा महत्वपूर्ण है। शिक्षा की रीति नीति और दिशा भी उतनी ही महत्वपूर्ण है।

पूर्णतया विपरीत परिस्थितियों में जिस समाज ने अपने ज्ञान को परम्परा बनाकर जीवित रखा, शिक्षा की अस्पष्ट रीति नीति और दिशा ने उसको यूँ ही फिसल जाने दिया।

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