शेषप्रश्नों के साथ उनका जाना

विगत दिनों लखनऊ के एक लोकप्रिय लेखक का निधन हो गया। कहा जाता है कि लखनऊ या अवध उनकी सांसों में बसता था। लखनऊ के चप्पे चप्पे की कहानी उनकी ज़बान पर रहती थी। उन्होंने जो भी लिखा लखनऊ के विषय में ही लिखा। लखनऊ पर बनी कुछ फिल्मों से भी वो जुड़े रहे। कुछ लोग तो उन्हें लखनऊ का इतिहासकार भी कहते हैं। इसके अतिरिक्त अवध की लोक विधाओं के विषय में भी उन्होंने काफी कुछ लिखा और सहेजा।

लखनऊ उदास है। एक छोर से दूसरे छोर तक उनके प्रति अपने प्रेम की सघनता दिखाते हुए लोग उनके नाम पर स्मृतिका, सड़क, भवन वगैरह वगैरह बनाने की मांग सरकार से कर रहे हैं। कुछ लोग तो कह रहे हैं कि इतना उत्कृष्ट कार्य करने पर भी उन्हें साहित्य अकादमी पुरस्कार नहीं मिला। हाँ नरेन्द्र मोदी जी के नेतृत्व वाली सरकार में उन्हें पद्मश्री अवश्य मिला।

लखनऊ निवासी होने के कारण मेरी भी कई बार उनसे भेंट हुयी। उनके सृजन को लेकर मेरे मन में सदा कुछ प्रश्न रहे, हमेशा सोचती थी, कभी एकांत में या एक दो लोगों के सामने ही पूछूंगी। सार्वजानिक रूप से पूछे जाने के लिए वो प्रश्न बहुत कठिन थे । वरिष्ठ और आयु में मुझ से पर्याप्त बड़े होने के नाते मैं उन्हें किसी कठिनाई में नहीं डालना चाहती थी।

तीन –चार वर्षों पूर्व, एक संगोष्ठी में उन्होंने दूरदर्शन पर रामायण धारावाहिक के प्रसारण के विषय में अपने कुछ विचार रखे और उनको सुनने के बाद मुझे अपने एकांत के लिए सहेजकर रखे गए प्रश्न उनके लिए अनावश्यक से लगने लगे या यूँ कहूं तो उनके उत्तर मुझे मिल गए।

वस्तुतः वो क्षण एक लेखक से मोहभंग का क्षण था।

उन्होंने बताया कि, दूरदर्शन पर प्रसारित होने वाली रामायण उनको इतनी अरुचिकर लगती थी कि जब भी उसका प्रसारण होता और परिवार के अन्य सदस्य उसे देखते तो वो क्रोध में अपने कक्ष का द्वार बंद कर अकेले अन्दर बैठते। एक बार उनकी मौसी, जिनके वो बहुत निकट थे, धारावाहिक प्रसारण के समय आ पहुँचीं। अशोक वाटिका प्रसंग चल रहा था। घर के सदस्यों ने मौसी से देखने का आग्रह किया, जिस पर मौसी ने कहा, “ इनका का देखी, ई ना राम का रोउती, ना रावण का, ई रोउती रुपियन का” और मौसी के इस कथन में उन्हें दिव्य ज्ञान की अनुभूति हुयी।

वस्तुतः ये गोष्ठी में उपस्थित तथाकथित वामपंथी, उदारवादी और छद्म धर्मनिरपेक्ष लोगों को प्रसन्न करने का एक प्रयास था।

इस प्रसंग को सुनने के बाद कभी उनसे वो प्रश्न करने की इच्छा नहीं हुयी जो उनको देखते ही अनायास मेरे मन में आ जाते थे।

अब वो नहीं हैं तो वो प्रश्न मैं सभी से पूछना चाहती हूँ। यदि उन्हें लखनऊ के इतिहास से इतना ही प्यार था तो उन्होंने कुछ दूर पीछे जाकर क्यों नहीं देखा, क्यों उन्हें लखनऊ में सिर्फ तवायफों की ड्योढ़ी, मकबरा, मजार, नवाबों की रईसी, आशिक मिजाज़ी, कबाब ही दिखते रहे?

सच तो ये है कि रामानुज लक्ष्मण की नगरी को नवाबों और कबाबों का लखनऊ बनाने में उन्होंने पूरा जीवन लगा दिया। उनकी मानें तो पवनपुत्र का लखनऊ का नगर देवता होना भी नवाबों का ही एक एहसान है।

क्यों नहीं वो कुछ समय पीछे गए और उस स्थल की पहचान की जो लखनऊ में सबसे ऊँचा टीला था, जिसके  लक्ष्मण जी का महल होने की मान्यता थी। क्यों नहीं, वहां उत्खनन कराने का प्रयास किया? उस जगह पर असमाजिक तत्वों का कब्ज़ा बढ़ता गया और वहां टीले वाली मस्जिद बन गयी, लेकिन लखनऊ के इतिहास से प्रेम करने वाला मौन ही रहा।

श्री लक्ष्मण के प्राणरक्षक श्री हनुमान हैं, इसलिए वो लक्ष्मण की नगरी के भी रक्षक हैं, लखनऊ में जन जन के रक्षक, नगर देवता। ये तथाकथित लखनऊ के इतिहासकार इस पर भी मौन हैं।

एक पुरानी इमारत का एक हिस्सा गिर गया, नीचे से जो निकला संभवतः नक्कारखाना या नौबत खाना था, वैसा जैसा हिन्दू मंदिरों में होता है, जहाँ नगाड़े रखे जाते हैं, लेकिन तब भी उन्होंने ध्यान  नहीं दिया और तवायफों की छतरियां ढूँढने में लगे रहे।

एक छोटा लेख देखा था एक बार जिसमें एक मोहल्ले के लिए छोटी अयोध्या होने की बात लिखी थी उन्होंने लेकिन यह बहुत बाद की बात है और लेख संभवतः अपवाद होगा।

समझ में नहीं आता उन्होंने, लखनऊ का इतिहास लिखा, सहेजा या फिर लखनऊ को सिर्फ नवाबों और तवायफों में समेट दिया? चैती, सोहर, बन्ना जैसे लोकसाहित्य को लखनऊ का या अवध और अवधी का इतिहास नहीं कह सकते।

आज वो नहीं है इसलिए अधूरी बातों के साथ, विनम्र श्रद्धांजलि !!

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