क्या “मानवता” ही हमारे समय की सबसे बड़ी अतिशयोक्ति है?

कोरोना एक वैश्विक महामारी है। भारत उसकी दूसरी लहर की चपेट में है। स्थितियाँ कठिन हैं। चिकित्सक और चिकित्सा, सहयोगी सेवा प्रदाता, महत्वपूर्ण दवाएं, अस्पताओं में पर्याप्त बेड, ऑक्सीजन जितना भी हो कम लग रहा है। सारे प्रयास मानों ऊंट के मुंह में जीरा हों”।

कहीं लॉकडाउन है तो कहीं रात का कर्फ्यू। एक भी परिवार ऐसा नहीं मिल रहा जिसका कोई अपना कोरोना की दूसरी लहर की चपेट में न आया हो। कुछ सौभग्यशाली हैं जो, ठीक हो गए हैं, कुछ ठीक हो रहे हैं और कुछ हार रहे हैं। हर तरफ हाहाकार है।

संभवतः, ऐसे ही समय में उस तत्व की परीक्षा होती है, जिसे हम गर्व से “मानवता” कहते हैं।

परिस्थितियों को देखने पर लगता है, “मानवता” ये शब्द अथवा तत्व ही  हमारे समय की सबसे बड़ी अतिशयोक्ति है।

कुछ प्रतिशत सेवाभावी और सच्चे लोगों को छोड़ दें तो अधिकांश इस समस्या की आग में अपनी अपनी तरह से घी डाल रहे हैं।

प्रारंभ से ही, जब दूसरी लहर की समस्या इतनी गंभीर नहीं थी, परिवारों ने आइवरर्मेक्टिन और एंटीजन किट जैसी आवश्यक चीज़ें घरों में जमा कर ली थीं। बाज़ार में आइवरर्मेक्टिन की कमी दूसरी लहर का प्रकोप बढ़ने से पहले ही हो गयी थी। मांग बढ़ते ही दुकानदार चौकन्ने हो गए, ब्लैक में मिलने लगी। एम.आर.पी. से कई गुना दाम पर और बिना किसी चिकित्सक के प्रिस्क्रिप्शन के बिकने लगी।

बुद्धिमान जन एक दूसरे को, मास्क लगाना- हाथ धोना- दो गज दूरी बनाना और बिना आवश्यकता घर से बाहर न निकलने के परामर्श के स्थान पर आइवरर्मेक्टिन इकठ्ठा करने का परामर्श देने लगे।

परिस्थितियाँ कुछ और बिगड़ीं। लोगों को अधिक संख्या में “हॉस्पिटल बेड” की आवश्यकता होने लगी। सरकारी से लेकर चिन्हित निजी अस्पतालों में निदेशक से लेकर वार्ड बॉय तक, सभी ने बेड बेचना प्रारंभ कर दिया।

ऑक्सीजन की बढ़ती आवश्यकता तो तथाकथित मानवों के लिए अभूतपूर्व वरदान सिद्ध हुयी। दाम छ: से दस गुना बढ़ गए। ब्लैक मार्केटिंग प्रारंभ हो गयी। धनाड्य और कुछ रसूखदार लोगों ने घर में किसी के अस्वस्थ न होने पर भी घर में ऑक्सीजन सिलिंडर स्टोर कर लिए।

फोन पर मार्केटिंग कॉल्स आने लगीं, “सिर्फ 9000/ रुपये में घर में अस्थायी आई.सी.यू. यूनिट बनवा लीजिये।

लोग काम पूरा हो जाने के बाद भी सिलिंडर वापस नहीं कर रहे हैं।

त्राहि त्राहि मची है कुछ लोग तिजोरी भर रहे हैं कुछ अपने काल्पनिक भय से सिलिंडर दबाए बैठे हैं।

चिकित्सा विशेषज्ञ बार बार घोषणा करते रहे,  रेमेडीसिविर इंजेक्शन  कोरोना के लिए न तो जीवन रक्षक है न अंतिम विकल्प, केवल चिकित्सक की देख रेख में कुछ सीमित रोगियों को ही इसकी आवश्यकता है। ऐसा वातावरण बन गया जैसे सभी को पहले दिन से बस यही इंजेक्शन चाहिए ठीक होने के लिए।

लगभग हर प्रमुख शहर में, रेमेडीसिविर इंजेक्शन  की कालाबाजारी हो रही है। मुंह मांगे दाम पर और कुछ ऐसे लोग भी हैं जो केवल आशंका के कारण इसे खरीदकर रख लेना चाहते हैं।

किसने ऐसा वातावरण बनाया, क्या इसके पीछे वो दवा निर्माता हैं, जो जन औषधि केन्द्रों के कारण नाराज़ हैं?

सब कमा रहे हैं शव वाहन वाले क्यों पीछे रहें 5-6 किलोमीटर तक जाने का 10-10,000/ वसूल रहे हैं। शमशान को वैसे भी मानवता हीन लोगों का स्थान माना जाता है।

महामारी के कारण, फलों की खपत बढ़ी है, फलों के दाम में चार से पांच गुना वृद्धि हो गयी है। उनके लिए भी लाभ उठाने का समय है, वैसे भी उनका आचरण जीवन मृत्यु पर अधिक भार नहीं डाल रहा.

ये मानवता के कुछ ऐसे उदहारण हैं जिनका सीधा सम्बन्ध उन लोगों से है जिन्हें निरीह “आम जनता” कहा जाता है और जो बात बात पर मानवता की दुहाई देते हैं।

पत्रकार और मीडिया जगत अपने अपने आकाओं को प्रसन्न करने में लगा है। भय, अवसाद, अशांति और अफरा तफरी फैलाने के अतिरिक्त ये कुछ काम नहीं कर रहे। पत्रकारिता के आदर्श स्वरुप में जलते शव, शमशान, जन समुदाय में व्यग्रता और अतिरेक उत्पन्न करने वाली बातों को प्रसारित न करने की बात कही जाती है किन्तु सभी चैनल उसका उल्टा कर रहे हैं। सबसे बड़ा विरोधाभास ये है कि, “मानवता” को कलंकित करते हुए प्रत्येक व्यक्ति “मानवता” की चर्चा कर रहा है।

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