सुनो तेजस्विनी, सारे दिन तुम्हारे हैं

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस के उत्सव प्रारंभ हो गए हैं. कई वेबिनार में भाग लेने के लिए लिंक आ रहे हैं। उन सभी व्यावसायिक संस्थानों से सन्देश आ रहे हैं, जहाँ से कभी भी कुछ ख़रीदा है। कुछ उत्साही मित्र अलग अलग कार्यक्रमों का हिस्सा बनने को कह रहे हैं।

इसी क्रम में एक पुरानी मित्र ने एक बैज भेजा सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स में अपनी डीपी में लगाने के लिए, “से नो टू पैट्रियार्की”, एक अन्य ने भेजा, “लेट्स फाइट पैट्रियार्की टुगेदर”।

कुछ चिर परिचित और बासी हो चुकी कविताएँ जैसे, बोल कि लब आज़ाद हैं तेरे, स्त्री सीता क्यों बनती है बुद्ध क्यों नहीं, राधा छलिया कृष्ण से प्रेम क्यों करे, मत बनो सावित्री तुम, बेड़ियाँ तोड़ो –बंधन खोलो स्त्रियों के वार्षिक गान  की तरह गायी जा रही हैं।

विचार भी वही आ रहे हैं, जैसे – गृहणी का बिना वेतन चौबीस घंटे काम करना, घर सँभालने वाली महिला को छुट्टी न मिलना, बेटियों को इच्छानुसार कपड़े पहनने, घूमने, असमय बाहर जाने की अनुमति न होना, बेटियों पर घर का काम सीखने का दबाव होना, मासिक के दौरान अस्पृश्यता।

सब कुछ ऐसा कि मन कह उठे, अगले जनम मोहे बिटिया ना कीजो।

विगत सत्तर वर्षों में भारत में स्त्रियों के जीवन में बहुत कुछ बदला है।

समाज में बालिका शिक्षा की स्वीकार्यता अप्रत्याशित रूप से बढ़ी है, माता- पिता बेटियों को बेटों के समान शिक्षा और करियर बनाने का अवसर दे रहे हैं, खेत में ट्रैक्टर से लेकर आसमान में फाइटर जेट तक की कमान उनके हाथ में हैं, घर के बजट से लेकर देश के बजट तक का उत्तरदायित्व उनके हाथों में हैं, वो ई रिक्शा से लेकर रेल और व्यावसायिक विमान उड़ाती है, वो डॉक्टर है, वकील है, जज है, शिक्षक है, बैंकर है, उद्यमी है, किसान हैं, मजदूर हैं, मैकेनिक हैं, इंजीनियर हैं, प्रबंधक है, समाजसेवी हैं, लेखक है, वैज्ञानिक हैं।

यानि जो कुछ भी जो मानव शरीर और मस्तिष्क से संभव है भारत की बेटियां कर रही हैं।

इतना ही नहीं, वो परिवार का सामर्थ्य भी है।

परिवार ने उसे वो सारे अधिकार दिए हैं जो पुत्र को हैं इसलिए वो आगे बढ़कर पुत्र की तरह पिता की अर्थी को कन्धा देती हैं और उनकी चिता को मुखाग्नि भी।

इस परिवर्तन में विधायिका, व्यवस्थापिका, न्यायपालिका और समाज सभी ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी है, उसकी विस्तृत चर्चा किसी और समय करेंगे।

आश्चर्य है, स्त्रियों के जीवन में इतना व्यापक परिवर्तन होने के बाद भी, वामपंथ प्रायोजित नारी विषयक मुद्दे नहीं बदले, कविताएँ नहीं बदलीं और उनकी मांगें भी उसी कूप के मंडूक की तरह वहीँ कूदती रहती हैं।

घर के काम के बदले वेतन दो, पुरुषों से बराबरी के नाम पे बीड़ी, सिगरेट, शराब और गालियाँ सीखो, जब चाहो जहाँ चाहो घूमो, अनुशासन की बात छोड़ दो, पैट्रियार्की से लड़ने के नाम पर जो कुछ भी सनातन या हिन्दू मान्यता के अनुसार है उसका मखौल उड़ाओ। जिनको हिन्दू धर्म में आदर्श नारी कहा गया हो उनको सभी प्रकार से अपमानित करो, कमज़ोर और दबा कुचला साबित करो।

पूरे वर्ष हम इन्हीं मुद्दों पर वामपंथियों, उदारवादियों, नारीवादियों से टकराते रहते हैं तो अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर भी ऐसा ही क्यों करें?

हम इसे नारीवादियों की दृष्टि से नहीं भारत की एक बेटी की दृष्टि से देखते हैं, तेजस्विनी की दृष्टि से।

सुनो तेजस्विनी, वर्ष के तीन सौ पैंसठ दिन तुम्हारे ही हैं।

तुम मैत्रयी की तरह ज्ञान की परम्परा हो, उसका कोई दिन नहीं होता वो सतत प्रवाहमान है।

तुम सीता की तरह आत्मशक्ति की परम्परा हो, जो तुम्हें हर सुबह जूझने की शक्ति देती है।

तुम अहिल्याबाई की तरह धर्मरक्षा की परम्परा हो, जो तुम्हारा मस्तक कभी झुकने नहीं देती।

तुम मणिकर्णिका की तरह स्वाभिमान की परम्परा हो, जो तुम्हारे हाथ से खड्ग छूटने नहीं देती।

तुम राधा की तरह प्रेम की परम्परा हो, जो जीवन का संगीत धीमा नहीं पड़ने देता।

सुनो तेजस्विनी तुम हर दिन अमूल्य हो, और हर दिन तुम्हारा है।

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