बिहार चुनाव फैसला किसके पक्ष में?

बिहार देश का पहला ऐसा राज्य बनने जा रहा है जहाँ कोरोना महामारी के बीच चुनाव होने जा रहे हैं और भारत शायद विश्व का ऐसा पहला देश। आम आदमी कोरोना से लड़ेगा और राजनैतिक दल चुनाव। खास बात यह है कि चुनाव के दौरान सभी राजनैतिक दल एक दूसरे के खिलाफ लड़ेंगे लेकिन चुनाव के बाद अपनी अपनी सुविधानुसार एक भी हो सकते हैं। यानी चुनाव प्रचार के दौरान एकदूसरे पर छींटाकशी और आरोप प्रत्यारोप लगाने वाले नेता चुनावी नतीजों के बाद एक दूसरे की तारीफों के पुल भी बांध सकते हैं। मजे की बात यह है कि यह सब लोकतंत्र बचाने के नाम पर किया जाता है। हाल ही में हमने ऐसा महाराष्ट्र में देखा और उससे पहले बिहार के पिछले विधानसभा सत्र में भी ऐसा ही कुछ हुआ था। 

दरअसल बीते कुछ सालों में  राजनीति की परिभाषा और चुनावों की प्रक्रिया दोनों में जबरदस्त बदलाव आया है। जहाँ राजनीति का लक्ष्य सरकार में पद प्राप्ति तक सीमित हो गया है वहीं चुनावी मैदान सोशल मीडिया के मंच पर सिमट गया है। राजनीति से राष्ट्र सेवा का भाव ओझल हो गया है तो चुनावी मैदान से आम आदमी। धरातल पर काम करने वाले नेता से लेकर कार्यकर्ता सभी लापता हैं। सोशल मीडिया पर “का बा” जैसे सवाल पूछे जाते हैं जिनका जवाब सोशल मीडिया पर ही “ई बा” से दे दिया जाता है। यानी चुनावी रैलियों और नुक्कड़ सभा में नहीं ए सी स्टूडियो में मुद्दे तय होते हैं जिनके जवाब नेताजी नहीं प्रोफ़ेशनल लेखक गायक और नायक देते हैं। दरअसल सोशल इंजीनियरिंग जात पात का गणित और वोटबैंक की राजनीति ने लोकतंत्र के केंद्र आम आदमी को इन राजनैतिक दलों के हाथों की कठपुतली बनाकर रख दिया है। बिहार की ही अगर बात करें तो आज़ादी के 70 सालों बाद आज भी वो देश का चौथा सबसे पिछड़ा राज्य है जहाँ गरीबी रेखा दर 34% है। साक्षरता के दर में भी बिहार 65% से भी कम साक्षरता के साथ देश के राज्यों की सूची में अंतिम पायदान पर है। लेकिन आप इसे क्या कहेंगे कि इसके बावजूद देश का लगभग हर दसवां ब्यूरोक्रेट बिहार से आता है। आईआईटी की परीक्षा हो या अन्य कोई प्रायोगिक परीक्षा, बिहार के बच्चे सबसे अधिक बाज़ी मारते हैं। इसके बाद भी बिहार ही वो राज्य है जहाँ बेरोजगारी की दर देश में सबसे अधिक है। यह बात सही है कि “जंगल राज” के उन दिनों से जब बिहार में अपहरण का भी एक उद्योग था, उस राज्य ने आज काफी दूरी तय करी है लेकिन इसके बाद भी आज तक उसकी गिनती देश के पिछड़े राज्यों की सूची में चौथे स्थान पर होती है।

इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि विगत 70 सालों से जिस आम आदमी के नाम पर चुनाव लड़े जाते हैं वो आजतक आर्थिक अथवा सामाजिक तौर पर वहीं का वहीं हैं लेकिन चुनाव लड़ने वाले दल और नेता दोनों की ही आर्थिक प्रगति लगातार जारी है। यह हम नहीं कह रहे बल्कि उनके हलफनामे कहते हैं। इससे बड़ी त्रासदी क्या होगी कि आज भी चुनाव जीतने के लिए राजनैतिक दल हर घर तक बिजली और पीने के लिए स्वच्छ पानी पहुंचाने जैसी मानव जीवन की बुनियादी जरूरतों को पूरा करने के ही वादे करते पाए जाते हैं। 

बिहार चुनावों ने एक बार फिर इन सवालों को प्रासंगिक कर दिया है कि आखिर आम आदमी करे भी तो क्या करे? उसके पास विकल्प ही क्या है? बिहार को ही लें। कांग्रेस जो आज बिहार क्या देश में अपना अस्तित्व तलाश रही है उसमें बिहार का वोटर अपना भविष्य कैसे तलाश सकता है। लालू प्रसाद यादव अभी जेल में हैं और उनके परिवार की आपसी फूट जो 2019 के लोकसभा चुनावों में खुलकर सामने आ गई थी आरजेडी और बिहार के मतदाता के बीच की सबसे बड़ी दीवार है। अपने विपक्षी राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी से कोई भी राजनैतिक दल लड़कर जीत सकता है लेकिन जब दल के भीतर ही राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी से सामना हो तो संघर्ष जीत के लिए नहीं बल्कि अपने अस्तित्व के लिए सिमट कर रह जाता है। महागठबंधन की अगर बात करें तो इसमें शामिल दलों में सीटों के बटवारे को लेकर सहमति अवश्य हो गई है लेकिन उम्मीदवारों की घोषणा इन दलों द्वारा एक सांझे मंच की अपेक्षा अलग अलग करना इनमें आपसी तालमेल के अभाव को दर्शाता है। मोदी लहर पर सवार एनडीए की बात करें तो आम आदमी के पास विकल्प यहाँ भी नहीं है। क्योंकि

नीतीश कुमार जो कि वर्तमान में मुख्यमंत्री हैं और सुशासन बाबू के नाम से जाने जाते हैं उन्होंने जेडीयू की पूर्व मंत्री मंजू वर्मा जो कि मुजफ्फरपुर बालिका गृह कांड की आरोपी हैं और फिलहाल जमानत पर बाहर हैं उन्हें टिकट देकर अपने सुशाशन की पोल खोल दी है। जानना रोचक होगा कि मुजफ्फरपुर कांड सामने आने पर तब उन्हें जेडीयू से निलंबित कर दिया गया था। इसी प्रकार सुशाशन बाबू की जेडीयू ने मनोरमा देवी को भी चुनाव लड़ने के लिए गया से अपनी पार्टी का टिकट दिया है जिनके पति स्थानीय बाहुबली हैं। याद दिला दिया जाए कि 2016 में पूरे देश को हिलाकर रख देने वाले गया के रोड रेज केस के चलते इन्हें भी नीतीश कुमार ने पार्टी से निष्कासित कर दिया था। इस कांड में इनके बेटे को आजीवन कारावास और पति को पांच साल जेल की सजा सुनाई गई थी। लेकिन अगर आप सोचते हैं कि केवल जेडीयू ही अपराध में लिप्त लोगों को टिकट देती है तो आपको बता दें कि भाजपा हो या आरजेडी कांग्रेस हो या वाम दल राजनीति में अपराधीकरण को बढ़ावा देने के दोषी सभी दल हैं।

नवादा से बीजेपी की वर्तमान विधायक अरुणा देवी को एकबार फिर टिकट दिया गया है जिनके पति 2004 के नवादा नरसंहार के आरोपी हैं। 2009 में उनके पति अखिलेश सिंह ने जब निर्दलीय प्रत्याशी के रूप में लोकसभा चुनाव के लिए नामांकन भरा था तो अपने ऊपर 27 आपराधिक मामले चलने की बात स्वीकार की थी। आरजेडी की ओर से वैशाली की प्रत्याशी वीना सिंह पूर्व सांसद रामकिशोर सिंह की पत्नी हैं जिनपर अपहरण से लेकर हत्या तक के आरोप हैं। इन परिस्थितियों में लोकतंत्र के नाम पर जब चुनाव कराए जाते हैं तो आम आदमी अपनी पहचान ही तलाशता रह जाता है। क्योंकि उसके पास तो यह विकल्प भी नहीं है कि वो चुनाव का बहिष्कार करे या नोटा दबाए। क्योंकि चुनावों से पहले एक दूसरे के खिलाफ मुखर होकर लड़ने वाले दल नतीजों के बाद बहुमत के अभाव में एक दूसरे के साथ हाथ मिलाकर सत्ता पर काबिज हो जाता है और आम आदमी ठगा सा देखता रह जाता है। वो जान चुका है कि पार्टी कोई भी जीते उसकी हार निश्चित है।

डॉ नीलम महेंद्र

डॉ नीलम महेंद्र: Writer. Taking a small step to bring positiveness in moral and social values.
Disqus Comments Loading...