सुनो तेजस्विनी, सिगरेट, शराब, ड्रग्स, गाली गलौच “कूल” नहीं है

1857 का प्रथम स्वाधीनता संग्राम रानी लक्ष्मीबाई की वीरगाथा के बिना पूरा नहीं होता। इस युद्ध में वो भारतीय नारी की शक्ति का प्रतिबिम्ब बनीं। स्वाधीनता संघर्ष सतत चलता रहा और अन्ततः विभाजन के साथ ही सही किन्तु भारत एक स्वाधीन राष्ट्र बन गया।

स्वाधीनता के इस संघर्ष का एक महत्वपूर्ण पक्ष ये रहा कि भारत के नारी समाज ने मुग़ल काल में परिस्थितिवश उस पर थोपी गयी वर्जनाओं से मुक्ति के लिए भी संघर्ष किया। वो परदा और घर की देहरी छोड़ कर बाहर निकली। शिक्षा अर्जित की। स्वाधीनता आन्दोलन में भूमिका निभाई। समाज जागरण का काम किया।

स्त्री जीवन की विषमताओं और कठिनाइयों को दूर करने का यह संघर्ष स्वाधीनता के बाद भी सतत रूप से चलता रहा। स्त्री हितों के कानून बने। विवाह की न्यूनतम आयु तय हुयी। स्त्री शिक्षा पर बल दिया गया। वो शिक्षाविद बनी, डॉक्टर बनी, इंजीनियर बनी, वकील बनी, राजनीति में आई, खेल के मैदान में उतरी, सामाजिक क्षेत्रों में काम किया।

धीरे धीरे भारत में समाज की परिस्थितियां स्त्री के पक्ष में परिवर्तित हो रही थीं। ( ध्यातव्य है इस समय विश्व बाज़ार में भी कई परिवर्तन हो रहे थे।)

तभी लगभग ढाई दशक पूर्व भारत में सुंदरियों का जन्म प्रारंभ हो गया। सुष्मिता सेन, ऐश्वर्या राय, युक्तामुखी, लारा दत्ता, दिया मिर्ज़ा, प्रियंका चोपड़ा। एक के बाद एक। वर्षानुवर्ष भारतीय सौन्दर्य विश्व पटल पर छाता रहा।

विश्व सुन्दरी बनते ही मॉडलिंग और फिल्म जगत इनके आगे –पीछे घूमता। स्टार वैल्यू मिल जाती। बड़ी बड़ी फ़िल्में मिलने लगतीं। मीडिया पर उस समय इनकी सफलता के बखान का एक अजीब सा पागलपन था।

इसी समय निजी टी.वी. चैनल और उन पर दैनिक रूप से प्रसारित होने वाले धारावाहिकों का चलन प्रारंभ हो रहा था। बड़े और छोटे दोनों रुपहले परदे नयी पीढ़ी की हर लड़की को जीवन के वास्तविक संघर्ष से परे ले जाकर उस दुनिया के सपने दिखा रहे थे जहाँ एक बार की सफलता, ग्लैमर और पैसे की बारिश करती थी।

तरह तरह के “स्टार हंट” कार्यक्रमों ने आग में घी का काम किया।

पांच- से दस  वर्षों के कालखंड में फिल्म, विज्ञापन और फैशन जगत युवतियों के लिए एक आकर्षक कैरियर चुनाव बन गया।

ब्यूटी पार्लर्स और पर्सनालिटी ग्रूमिंग सेंटर्स की बाढ़ आ गयी।

जिसे देखो वो फिल्म, फैशन या विज्ञापन की दुनिया की तरफ भागा चला जा रहा था। मध्यम वर्गीय पारंपरिक माता –पिता भी अपने बच्चों को इसके आकर्षण से दूर नहीं रख पा रहे थे बल्कि कुछ तो स्वयं ही बच्चों को लेकर इसमें कूद पड़े थे।

जिन्हें इस क्षेत्र में जाना नहीं था उनके जीवन के आदर्श भी यहीं, इन्हीं परदों पर रहते थे.

किसने क्या पहना, किसको कितना फैशन सेन्स है, किसका हेयर स्टाइल क्या है, ये मीडिया विमर्श का प्रमुख अंग हो गया।

पाकिस्तान की  हिना रब्बानी खर, राजनैतिक दौरे पर भारत आई, तो एक निजी चैनल के पत्रकार ने आधा घंटा केवल उनकी मोती की माला, गुलाबी दुपट्टा और किसी खास ब्रांड की घड़ी के बारे में बताने में निकाल दिया और उनके फैशन सेन्स पर जम कर चर्चा की।

किन्तु ये सब इतना सरल और सीधा नहीं था यवनिका के पीछे और कुछ भी चल रहा था। तथाकथित उदारवादी, वामपंथी, छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी अपने खेल खेल रहे थे।

जिस फिल्म, टी.वी, विज्ञापन जगत को धरती के स्वर्ग के रूप में स्थापित किया जा रहा था वहां अंडरवर्ल्ड का बोलबाला था। इनके साथ मिलकर उदारवादी, वामपंथी, छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी भारतीय संस्कृति का उपहास करने वाले कथानक गढ़ते थे, ऐसे कि हमें हर संत में रावण और हर पादरी में संत दिखाई दे। हर अब्दुल नेक हो और हर अमर नकारा। हर हिन्दू परंपरा ढोंग हो और सात सौ छियासी वाला बिल्ला जीवन रक्षक। कुछ यूँ कि हम अपने आप से घृणा करने लगें।

बड़े नामी ब्यूटी पार्लर्स अपने यहाँ आने वाली लड़कियों को नकाब बांधना सिखाने लगे, जिससे उनके चेहरे की त्वचा ख़राब न हो।

इन्हें एक बार भी ये बात स्मरण नहीं आई कि उनकी दादी –नानी ने इस मुंह ढकने के रिवाज से बाहर आने के लिए कितनी प्रताड़ना सही है और अब वे ख़ुशी ख़ुशी फिर वही बंधन बाँध रही हैं।

कुछ विशेष नाम वाले ब्यूटी पार्लर्स ने, बिंदी न लगाकर कम उम्र दिखने का ऐसा भ्रम फैलाया कि, “तिय लिलार बेंदी दिए अगनित होत उदोत” किसी के ध्यान में ही नहीं आया।

एक तरफ स्त्री को वस्तु या मात्र शरीर  न समझने का संघर्ष चल रहा था और दूसरी तरफ पूरी रणनीति के साथ उसे वस्तु या मात्र शरीर बनाया जा रहा था। स्त्री की मांसलता को उसके बौद्धिक और आत्मिक सामर्थ्य से ऊपर स्थापित किया जा रहा था और सब आनंदित हो रहे थे।

कुछ वर्षों पूर्व एक मॉल में अपनी माँ के साथ कपड़े खरीदने आयी एक किशोरी, डीप नेक ड्रेस लेने में असहज थी। उसकी माँ ने कहा, मॉडलिंग करनी है तो अभी से आदत डालो ऐसे कपड़ों की।

इतना ही नहीं, सिगरेट, शराब, ड्रग्स, गाली गलौच सब कुछ कूल होता गया युवतियों के जीवन में।

यूँ समझें कि पिछले लगभग ढाई दशकों में कुछ अपवादों को छोड़कर स्त्री विकास या स्त्री सशक्तीकरण पर बाज़ार और उपभोक्ता संस्कृति का प्रत्यक्ष प्रभाव रहा है, जिसके कारण उसका संघर्ष शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वावलंबन, निर्णय क्षमता और अधिकार, आध्यात्मिक विकास जैसे मूल विषयों से भटक कर, “मैं जो चाहूं वो करूँ” पर सिमट कर रह गया है।

सुनो तेजस्विनी, सिगरेट, शराब, ड्रग्स, गाली गलौच सब कुछ कूल नहीं है, आओ बाज़ार से वापस निकलकर, स्त्री सशक्तीकरण को सही सन्दर्भों में अपनाते हैं ।

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