बिहार में का बा

बिहारी कही भी रहे पर बिहार उसके दिल में रहता है। हर साल छठ पूजा की तस्वीरें अलास्का जैसी ठंढी जगहों से भी आ ही जाती है। बिहार की राजनीती पर भी बिहारियों की हमेशा ही नज़र रहती है। चाहे वो देश में रहे या विदेश में उन्हें ये पता होता है की कौन से चुनाव में किसका पलड़ा भारी है। राजनितिक बहस हम बिहारियों का पसंदीदा शौक होता है। गली मोहल्ले की पूजा समितियों के चुनाव से ले कर अमेरिका के राष्ट्रपति तक के चुनाव के नतीजे हम बैठे बैठे बहस कर के घोषित कर देते है। बिहार सत्याग्रह की भी भूमि रही है।

मगध, मिथिला और भोजपुर के ऐतिहासिक क्षेत्रो में बटा बिहार एक बार फिर चर्चा में है। बिहार में विधानसभा चुनाव होने वाले है। भारतीय निर्वाचन आयोग ने इसे कोरोना काल में होने वाला विश्व का सबसे बड़ा चुनाव बताया है। तीन चरणो में वोट डाले जायेंगे और नतीजे 10 नवंबर 2020 को आएंगे।

अब मुद्दा ये है की वोट किसे दिया जाए। वैसे तो पारम्परिक तौर पर उमीदवार के चयन से ले कर वोट डालने तक की प्रक्रिया जातिवादी मानसिकता में घिरी होती है। परन्तु बिहार के वोटरों ने पिछले कुछ चुनावों में राजनितिक पार्टियों को चौकाया भी है। इसका बहुत बड़ा उदाहरण है लोकसभा चुनाव में मुख्य विपक्षी पार्टी राजद का एक भी सीट नहीं जीत पाना।

बिहार में का बा – ये एक ऐसा सवाल है जो चुनाव ख़त्म होने के बाद अगले पांच साल हम जरुर पूछते है पर जब वोट डालने का समय आता है तब हम बिहार को भूल कर जातिवाद जैसे विभाजनकारी मानसिकता को चुन लेते है। इस मानसिकता को बदले बिना हम बिहार के विकास की कल्पना भी नहीं कर सकते। युवा बिहारी मुख्यतः प्रवासी होता है। नौकरी करने की उम्र आते ही बिहार छोड़ना एक सामाजिक रिवाज़ की तरह है। मुझ जैसे 90 के दशक के बिहारी उस भयावह दौर को देख चुके है जिसकी कल्पना मात्र से ही रोंगटे खड़े हो जाते है। लूट, खसोट, हत्या, अपहरण एक उद्योग बन चूका था। इसे अघोषित राजनितिक संरक्षण प्राप्त था। और जो वास्तविक उद्योग थे उन में ताले जड़ चुके थे। बिना रंगदारी के पैसे दिए व्यपार चलना असंभव था, उस पर भी अपहरण का डर चौबीसो घंटे रहता था। बिहार के कई मशहूर चिकित्सक और व्यवसायी बिहार छोड़ चुके थे। कानून व्यवस्था पूर्णतः चरमरा गयी थी। शाम और अँधेरा डर का प्रतिक बन चुके थे। सिर्फ कानून व्यवस्था ही क्यों शिक्षा व्यवस्था भी अपने न्यूनतम स्तर तक गिर चुकी थी। चरवाहा विद्यालय की स्थापना हो रही थी पर जो विद्यालय या विश्वविद्यालय पहले से चल रहे थे उनकी कोई सुध लेने वाला नहीं था। बिहार के शिक्षण व्यवस्था यह छवि उसी दौर में बनी। अस्पतालों में ना डॉक्टर थे न ही इलाज़ के साधन।

कानून व्यवस्था, व्यपार, शिक्षा और चिकित्सा की तरह ही बुरा हाल सड़को और बिजली का था। गड्ढो में सड़क ढूंढनी पड़ती थी। 100 किलोमीटर का सफर 6 से 7 घंटे में पूरा होता था। बिजली का हाल ऐसा था की शहरो में 5 घण्टे भी बिजली का होना दिवास्वप्न सा था और गाँवो में तो 5 दिन में एक बार भी आ जाये तो आश्चर्य की बात होती थी। ये वो बातें है जिनका भुक्तभोगी 90 के दशक का हर युवा है। ये दौर था लालू प्रसाद यादव के मुख्यमंत्री काल का। लालू और उनके सालो की पारिवारिक पृष्ठभूमि अत्यंत गरीब और साधारण स्तर की थी। परन्तु जिस दौर में बिहार राज्य गरीबी की हर सिमा लाँघ गया उसी दौर में लालू परिवार अपनी अमीर और बेहद अमिर होता चला गया। बिहार के विकास के पैसे लालू परिवार के विकास का साधन बना। उस दौर का कलंक कितना गहरा है इसका अंदाज़ा इसी बात से लगाया जा सकता है की आज उन्ही लालू के बेटे और राजद के राष्ट्रिय अध्यक्ष तेजस्वी यादव, लालू राबड़ी के 15 साल के जंगल राज की माफ़ी बिहार की जनता से मांग रहे है। आज राजद के पोस्टर से पार्टी के संस्थापक लालू यादव गायब है।

ये अवसरवादिता है। बिहार की जनता इस झांसे में ना आये की नयी पीढ़ी की सोंच अलग होगी। उपमुख्यमंत्री के बेटे की शादी के मौके पर लालू के बड़े बेटे तेज प्रताप की घर में घूस कर मारने की धमकी सबको याद है। कौन भूल सकता है भारत के माननीय प्रधानमंत्री की खाल उधेरवा देने की धमकी को। बिहार में सरकार गिरने के बाद बौखलाए तेजस्वी ने भी भाषा की सारी मर्यादये लाँघ दी थी। सालो तक लालू और पार्टी के लिए वफादार रहे रघुवंश प्रसाद सिंह को एक लोटा पानी तक बता दिया गया था। आये दिन खबरों में गलत वजहों से ही रहने वाली राजद की यह युवा पीढ़ी कितनी भरोसे के लायक है यह बिहार के वोटरों को सोंचना है।

ऐसा दावा तो बिहार के वर्त्तमान मुख्यमंत्री नितीश कुमार भी नहीं करते की उन्होंने ने बिहार की सारी समस्याओ को दूर कर दिया। वो खुद कहते है बिहार एक बीमारू राज्य है। पर इस बीमारू राज्य को आज उम्मीद की किरण भी नितीश बाबू के कुशल नेतृत्व और दूरदर्शी योजनाओ ने दिया है। आज बिहार के घर घर में बिजली है, सड़को में गड्ढे ढूंढने से भी नहीं मिलते, लगभग हर नदी पर पुल का निर्माण होने से यातायात आसान हुआ है, शिक्षा व्यवस्था अपने सत्र के अनुसार चल रही है, अस्पतालों में सुविधाओं की कोई कमी नहीं है, व्यपारियो को बिहार मे अब डर नहीं लगता। अमीरी अब अपहरण को नेवता नहीं देती।

आज बिहार में लालू के 15 साल की तुलना नितीश के 15 साल से की जा रही है। वही लालू के पंद्रह साल के लिए लालू की पार्टी ही माफ़ी मांग रही है। बिहार के विगत तीस साल कुसाशन और सुशासन के अंतर को समझने के लिए एक केस हिस्ट्री की तरह है। आज बिहार चैन की साँस ले रहा है। बिहार प्रगति की राह पर अग्रसर है। लेकिन बिहार जितना क्रन्तिकारी राज्य है उतने ही क्रन्तिकारी बिहार के लोग है। जब तक बिहार के लोग नहीं चाहेंगे बिहार आगे नहीं बढ़ पायेगा। पिछले 15 सालो में लोगो ने चाहा बिहार आगे बढे तो बिहार आगे बढ़ा। एक बार फिर फैसला बिहार के लोगो के हाँथ में है। बिहार “माय” समीकरण की नहीं बल्कि ” तरक्की के नए अध्याय” के लिए वोट करेगा।

खुद के लिए नहीं, आने वाले कल के लिए वोट करे। आने वाली पीढ़ी को अपनी जन्मभूमि पर गर्व करवाने के लिए वोट करे।

~ विभूति श्रीवास्तव (ट्विटर – @graciousgoon)

Disqus Comments Loading...