सुनो तेजस्विनी, धर्म तुम्हारा, दर्द तुम्हारा फिर एजेंडा उनका क्यों?

जैसे रेडियो और टेलीविज़न दोनों के पास रिक्त समय भरने के लिए फिलर्स होते हैं, प्रिंट मीडिया में रिक्त स्थान भरने के लिए फिलर्स होते हैं वैसे ही वामपंथियों के पास कुछ एजेंडे हैं जो फिलर की तरह काम करते हैं। जिस दिन सनातन भारतीय संस्कृति पर प्रहार करने के लिए कुछ न मिले उस दिन ये फिलर एजेंडे प्रयोग में लाए जाते हैं।

“मासिक धर्म के दौरान स्त्री को अपवित्र माना जाना” ऐसा ही एक फिलर एजेंडा है। जिस दिन कुछ और नहीं होता उस दिन हिन्दू धर्म और इसकी व्यवस्थाओं को इस विषय पर घेरा जाता है।

ये स्त्री और विशेष रूप से नव युवतियों के लिए एक अत्यंत संवेदनशील विषय है अतः इस विषय को सर्वकालिक वामपंथी एजेंडा कहने से पहले ये स्वीकार करना आवश्यक है कि, मासिक धर्म भी शरीर की उन अन्य स्वाभाविक प्रक्रियाओं की तरह है जिनके बिना मानव जीवन संभव नहीं है। ये किसी प्रकार की लज्जा या संकोच का विषय नहीं है।

मासिक धर्म सम्बन्धी सही और वैज्ञानिक जानकारी, मासिक धर्म के दौरान व्यक्तिगत स्वच्छता का ज्ञान और उसका परिपालन करने के लिए उपयुक्त व्यवस्था, पर्याप्त पोषण, शारीरिक श्रम और शारीरिक संबंधों के दबाव से मुक्ति, पीड़ा युक्त मासिक धर्म होने पर चिकित्सकीय परामर्श और सेवा  प्रत्येक स्त्री का अधिकार है।

यदि पिछली तीन –चार पीढ़ियों की मासिक धर्म सम्बन्धी व्यस्थाएं देखें तो उनमें सकारात्मक परिवर्तन दिखायी देता है चाहे जानकारी और स्वच्छता सम्बन्धी व्यवहार हों या फिर चिकित्सकीय परामर्श की उपलब्धता या मासिक धर्म को लेकर एक तरह का सामाजिक संकोच।

स्वयं देश के प्रधानमंत्री द्वारा अपने स्वाधीनता दिवस वक्तव्य में सेनेटरी नैपकिन का नाम लेना इस बात का संकेत है कि देश इस विषय में रूढ़िवादी विचारों को बहुत पीछे छोड़ चुका है।

वामपंथियों और तथाकथित उदारवादियों के लिए मासिक धर्म व्यवस्थाएं आज भी हिन्दू धर्म को कोसने का एक नियमित एजेंडा बनी हुयी हैं।

लगभग एक वर्ष पहले चर्चित हुआ एक कार्टून सभी को स्मरण होगा, देवी माँ रोते हुए मंदिर से जा रही हैं। पुजारी पूछते हैं, क्यों जा रही हैं? माँ उत्तर देती हैं, मैं मासिक धर्म में हूँ, मैं मंदिर में कैसे रह सकती हूँ?

कुछ चर्चित वाक्य और विषय देखिये, थोड़े बहुत हेर फेर के साथ ये आपको हर चार –छह माह में रेडियो, टेलीविज़न, प्रिंट मीडिया, सेमिनार, वेबिनार कहीं न कहीं मिल जायेंगे –

जिस मासिक धर्म के कारण स्त्री अपवित्र है, मन्दिर नहीं जा सकती उसी मासिक धर्म के कारण जन्मा पुरुष पवित्र कैसे हो सकता है?

मासिक धर्म के दौरान बंदिशें लगाना, एक तरह का अत्याचार है जो स्त्री को कमज़ोर और पुरुष से कमतर होने का अहसास कराने के लिए किया  जाता है।

औरत को अछूत मानने वाली मनुवादी व्यवस्था समाज की दुश्मन है।

हिंदुओं में ही ये नारी जाति का अपमान करने वाली ऐसी कलंकित प्रथाएं हैं, ये वही लोग हैं जो सीता की अग्नि परीक्षा लेते हैं।

सुनकर ऐसा लगता है जैसे हिन्दू स्त्री और वो भी ऐसी हिन्दू स्त्री जिसे मासिक धर्म से गुजरना पड़ता है उससे शोषित कोई दूसरा व्यक्ति इस जग में न जन्मा है न जन्मेगा।

इस पूरे एजेंडे में ये बात पूरी तरह छिपा दी जाती है कि स्त्रियों पर मासिक धर्म सम्बन्धी पाबंदियाँ विश्व के लगभग प्रत्येक देश और प्रत्येक समाज में हैं। उनका स्वरुप अलग हो सकता है। उनकी विवेचना अलग हो सकती है किन्तु उनका अनुपालन आमतौर पर अनिवार्य है।

इस बात की पूरी सम्भावना है कि सभी समाजों में मासिक धर्म के दौरान स्त्री की शारीरिक और मानसिक स्थितियों और आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए ये नियम और अनुशासन बनाये गए होंगे जो समय के साथ रूढ़ हो गए।

भारत के विभिन्न प्रान्तों ने पराधीनता और निरंतर संघर्ष का लम्बा कालखंड देखा जिसमें स्त्री शिक्षा सबसे अधिक प्रभावित हुयी। बाल विवाह जैसी कुरीतियाँ आई। परम्पराएँ न केवल रूढ़ हुयीं वरन अज्ञानता और अनभिज्ञता के कारण विकृत भी होती गयीं।

आज आवश्यकता है किसी भी रूढ़िगत परंपरा को तर्क और विज्ञान की कसौटी पर कसने की, जो इसमें खरी उतरे और आज की जीवन शैली के अनुरूप हो उसे बनाए रखें और जो ऐसा न कर सके उसे छोड़ दें।

यह स्त्री के जीवन को सरल बनाने के प्रयास का अंश होना चाहिए, किसी समाज को उसकी परम्पराओं के लिए अपमानित करने का कारक नहीं.

कुछ सरल प्रश्न हैं, यदि हिन्दू धर्म में स्त्री उन दिनों में अछूत या अपवित्र समझा जाता तो उन दिनों को “मासिक धर्म” क्यों कहा जाता, “मासिक अधर्म” क्यों नहीं? यदि रजस्वला स्त्री अपवित्र होती तो स्वयं श्री कृष्ण, रजस्वला द्रौपदी की रक्षा करने क्यों आते? यदि मासिक धर्म अपवित्र होता तो माँ के योनि रूप की पूजा क्यों होती?

किसी भी अन्य मत या सम्प्रदाय में, जो कहते हैं उनके यहाँ स्त्री को उन दिनों में अछूत नहीं माना जाता, ऐसे उद्धरण नहीं हैं।

स्त्री को घर के काम काज से अलग रखना उसे मासिक धर्म के दौरान शारीरिक श्रम से मुक्त रखने के लिए था। गृहकार्य श्रम  साध्य थे, कष्टकारी हो सकते थे। संयुक्त परिवारों में यह संभव था कि परिवार की एक स्त्री कुछ दिन विश्राम कर सके।

किन्तु यह व्यवस्था यह वर्तमान जीवन शैली के अनुकूल नहीं है। गृह कार्य पहले की भांति श्रम साध्य नहीं है, एकल परिवार हैं, अधिकांश लड़कियां  और स्त्रियां दैनिक रूप से शिक्षा, नौकरी या व्यवसाय के लिए घरों से बाहर जाती हैं। उनका घर या बाहर के काम काज या स्कूल कॉलेज से अलग रहना संभव ही नहीं है अतः स्वाभाविक रूप से एक बड़ी आबादी में ये परंपरा या तो टूट चुकी है या टूट रही है।

जानकारी और ज्ञान बढ़ने, स्वच्छता सबंधी व्यवस्थाओं की उपलब्धता बढ़ने से दूसरी कई वर्जनाएं समाप्त हुयी हैं।

मासिक धर्म सम्बन्धी एक बहस में एक सदस्य ने कहा, “हिन्दू धर्म में तो मासिक धर्म के दौरान स्त्री को इतना नीच और अछूत समझा जाता है कि उसका पति भी उसे छोड़कर अलग स्थान पर रहता है’।

स्त्री रोग विशेषज्ञ कहते हैं , कि मासिक धर्म के दौरान शारीरिक सम्बन्ध, कई प्रकार के संक्रमणों  के वाहक हो सकते हैं जो  स्त्री को अस्वस्थ करने के साथ साथ उसकी  प्रजनन क्षमता को भी प्रभावित कर सकते हैं।

परिपक्व अवस्था और समझ वाले आज के दम्पतियों को इसकी आवश्यकता नहीं है इसलिए पति का अलग रहना अचंभित कर सकता है और इसे स्त्री को अपवित्र माने जाने से जोड़कर एजेंडा चलाया जा सकता है।

सोचिये उस स्त्री के विषय में जो अभी किशोरावस्था में ही है, जिसकी शिक्षा हुयी ही नहीं है, जिसे अपने शरीर की जानकारी भी अपने  पति से मिलती है, जिसके पास पति की इच्छा के सामने न कहने का कोई मार्ग नहीं है, उसे मासिक धर्म के दौरान संक्रमण से बचाने का क्या यही एक उपाय नहीं था कि उसे पति से दूर रखा जाये?

यह एक समयानुकूल व्यवस्था थी, जो समाप्त हो गयी है। संभवतः किसी अन्य मत या सम्प्रदाय में इस विषय को इतनी संवेदनशीलता के साथ समझा ही नहीं गया।

मंदिर जाने और पूजा करने पर प्रतिबन्ध उर्जा संतुलन के कारण था। मंदिर गहन उर्जा के केंद्र थे और पूजा में यज्ञ –हवन प्रमुख कर्मकांड, जिनमें पर्याप्त ऊष्मा उर्जा उत्पन्न होती थी। यह गहन उर्जा, स्त्री के शरीर को कोई क्षति न पहुंचाए इसलिए ऐसी व्यवस्था थी।

साथ ही स्वच्छता के पर्याप्त उपाय न होने के कारण व्यावहारिक कठिनाइयाँ भी थीं , मंदिर दूर थे। दर्द के उन दिनों में यात्रा करना और कष्टकारी था। और उन परिस्थितियों में मंदिर में प्रवेश के लिए जो भाव –भक्ति समर्पण चाहिए उसको बनाये रखना एक सामान्य स्त्री के लिए संभव नहीं था।

यद्यपि इस समय स्त्री को मानसिक पूजा, जप और ध्यान करने की कोई मनाही नहीं थी।

इसमें भी आज परिवर्तन आया है, कई स्त्रियाँ मानती हैं कि में हमें मूर्ति को दूर से प्रणाम करना होता है, यदि हम किसी तरह के  दर्द का अनुभव नहीं कर रहे, हमारा स्त्राव हमारी दिनचर्या में अवरोध नहीं बन रहा, हमारा अपने मन –मस्तिष्क पर पूरा नियंत्रण है तो हमें मंदिर क्यों नहीं जाना चाहिए और वे मंदिर भी जाती हैं।

नया विरोधाभास ये है कि जो उदारवादी नारीवादी, मासिक के दौरान स्त्रियों के साथ होने वाले भेदभाव का एजेंडा चलाते हैं आजकल स्त्रियों को उन 5 दिनों कार्यालय से काम में छुट/छुट्टी की मांग कर रहे हैं। (जो भविष्य में बड़े भेदभाव को जन्म देगा और इनको नए एजेंडे)

हर स्त्री का शरीर अलग है और हर स्त्री के मासिक धर्म सम्बन्धी अनुभव भी अलग होते हैं। कुछ को बहुत पीड़ा और अत्यधिक स्त्राव होता है, कुछ को सामान्य और कुछ को अनुभव ही नहीं होता कि शरीर में ऐसी कोई प्रक्रिया चल भी रही है। इन अलग अलग अनुभवों के कारण उनके व्यवहार भी अलग होंगे। बहुत पीड़ा वाली को विश्राम और एकांत चाहिए वहीँ पीड़ा रहित मासिक वाली स्त्री अपना सारा काम सामान्य रूप से कर सकती है।

सुनो तेजस्विनी, ये शरीर तुम्हारा है, मासिक धर्म तुम्हारा है। मासिक धर्म का दर्द तुम्हारा है।

भारत की सनातन संकृति ने तुम्हे प्रश्न करने, तर्क करने और ज्ञान आधारित निर्णय लेने का अधिकार दिया है। अपने शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की सुरक्षा के लिए अपना निर्णय स्वयं लो। तुम पर परंपरा की बाध्यता नहीं है। वो समय की चुनौतियों का उत्तर देने के लिए थीं।

लेकिन अपने धर्म और अपने दर्द को किसी का एजेंडा मत बनने दो।

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