सांस्कृतिक सूत्र, जिनमें पिरोयी हैं विविधता की मनकाएं

परिदृश्य 1: श्री राम जन्मभूमि स्थल पर समस्त बाधाओं के निवारण के पश्चात मंदिर निर्माण हेतु भूमि पूजन विगत 5 अगुस्त को संपन्न हो गया। उत्तर से दक्षिण और पूर्व से पश्चिम तक सम्पूर्ण भारतवर्ष दीपमालिकाओं से जगमगा गया। हर्ष और उल्लास की ऐसी सहज और अद्भुत अभिव्यक्ति देश ने दशकों से नहीं देखी थी। गौरव और संतुष्टि के अनोखे संगम की भाव गंगा जन जन के मन में उतर आई थी। सनातन से उद्भूत और माँ भारती की गोद में विकसित लगभग पैंतीस मत मतान्तरों के प्रतिनिधि इस अवसर के साक्षी बने। राष्ट्रीय एकात्मता का एक मनोरम दृश्य भारत भूमि पर रचा गया ।

परिदृश्य 2: स्वाधीनता दिवस निकट है। स्वाभाविक रूप से स्वाधीनता दिवस या गणतंत्र दिवस निकट आने पर विविध संचार माध्यमों में अवसर अनुकूल सामग्री का प्रस्तुतीकरण प्रारंभ हो जाता है। स्वाधीनता संघर्ष की कथाएं, महापुरुषों के विचार, क्रांतिकारियों की अमर गाथाएं, स्वाधीनता के पश्चात भारत का विकास और इनमें सबसे महत्वपूर्ण होता है, भारत की अनेकता में एकता का वर्णन।

समय समय पर “अनेकता में एकता” की अभिव्यक्ति के लिए गीत/ लघु चलचित्र आदि का विकास शासकीय और निजी क्षेत्रों की विभिन्न संस्थाओं द्वारा किया जाता रहता है। कुछ तो इतने लोकप्रिय हो गए हैं कि सभी देशवासियों की स्मृति में बस गए है, जैसे – अनंत गगन एक है, दिल की धड़कन एक है या मिले सुर मेरा तुम्हारा। इस प्रकार के कई उदहारण हैं।

इतनी सुन्दर और लोकप्रिय प्रस्तुतियों के बाद भी ऐसा क्या रह जाता है, कि कहीं भाषा के नाम पर तो कहीं क्षेत्रीय पहचान के लिए, कभी किसी व्यंजन के लिए तो कभी किसी मत में अपनी आस्था के कारण हम एकता की इस दीवार पर आघात करते रहते हैं?

एकता के सामान्यतः प्रसारित संदेशों पर चिंतन करें तो एक बात स्पष्ट रूप से उभर कर आती है, पहले ये सन्देश अनेकता पर बहुत बल देते हैं, – भाषाएँ अलग हैं, बोलियाँ अलग हैं, रीति रिवाज अलग हैं, जाति- धर्म अलग है, वस्त्र –आभूषण अलग हैं, भोजन पद्धति है अलग है, फिर कहते हैं – अपना चमन एक है, दिल की धड़कन एक है। हम सब एक हैं।

यहाँ एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है, भाषा से लेकर भोजन तक सभी कुछ अलग होने के पश्चात भी वो क्या है, जो हमें जोड़ता है? हम सब क्यों एक हैं?

संवैधानिक मर्यादाओं से निर्मित एक देश के नागरिक होने के कारण हम सब एक हैं। यह प्रथम उत्तर है।

किन्तु भारत जैसे बहु विधि परम्पराओं और जीवन पद्धतियों वाले राष्ट्र में राष्ट्रीय एकता के लिए संवैधानिक मर्यादाओं के साथ साथ सांस्कृतिक सूत्रों का भी उतना ही महत्व है।

यदि विभिन्न भाषाएँ और बोलियाँ, विभिन्न भोजन व्यवहार, विभिन्न वस्त्राभूषण, विभिन्न जीवन कौशल इस भारत भूमि पर पाए जाने वाले अमूल्य मनके हैं तो हमें उन सांस्कृतिक सूत्रों की पहचान, संरक्षण और संवर्धन करना होगा  जिनमें हमारे सहस्त्रों वर्षों के इतिहास ने ये मनके पिरो कर रखे  हैं।

गंगोत्री के पास छोटे से पहाड़ी गाँव में जन्मा व्यक्ति, एक आस लेकर जीता है, जीवन में एक बार गंगा सागर देख ले और गंगा सागर के पास जन्मा व्यक्ति एक बार गंगोत्री से जल लाकर रामेश्वरम में शिव को अर्पित करना चाहता है।

वृन्दावन में जन्मा व्यक्ति एक बार कृष्ण की द्वारिका जाकर उनके द्वारिकाधीश रूप को प्रणाम करना चाहता है और द्वारिकाधीश की धरा पर जन्मा व्यक्ति माखनचोर की बाल लीलाओं की माटी से भाल पर तिलक करना चाहता है।

देश के किसी भी भू भाग में जन्मा व्यक्ति देश के मध्य में स्थित कुरुक्षेत्र के कृष्ण से जीवन दर्शन प्राप्त करना चाहता है।

अयोध्या में जन्मे राम, वनवास काल में सम्पूर्ण मध्य भारत में विचरण करते हुए सुदूर लंका तक जाकर रावण से युद्ध करते हैं। इस पूरी यात्रा में अनेक पड़ाव हैं,अनगिनत कथाएं हैं। निषाद से शबरी, जटायु से हनुमान तक राम का प्रेम सम्बन्ध है।

ये सारे पड़ाव, देश के ये समस्त क्षेत्र श्री राम रूपी सांस्कृतिक सूत्र में बंधे हुए हैं।

सुदूर उत्तर में बद्रीनाथ श्री विष्णु का धाम है तो दक्षिण में श्री पद्मनाभ, इसी प्रकार उत्तर में शिव केदारनाथ में विराजमान हैं तो दक्षिण में रामेश्वरम में।

ये श्रीराम, कृष्ण और शिव रुपी  सांस्कृतिक सूत्र हैं जो जन जन को जोड़ते हैं। यही हैं जो हमारी विविधता की मनकाओं को एक सूत्र में पिरोते हैं।

जब तक एकता की बात करते हुए इन सांस्कृतिक सूत्रों पर बल नहीं दिया जायेगा तब तक एकता के गीत गाए जाने के उपरांत भी कहीं न कहीं भाषायी, क्षेत्रीय या अन्य ऐसे  विवाद पनपते ही रहेंगे।

तो क्या श्री राम जन्मभूमि पर भव्य राष्ट्र मंदिर के निर्माण के भूमि पूजन के उजास से आलोकित इस स्वाधीनता दिवस पर उन सांस्कृतिक सूत्रों पर बल देना समीचीन नहीं होगा जिन्होंने हमें बहुविध होने पर भी एकात्मता प्रदान की है?

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