मोदी को न राम से बड़ा बताया है और न ही जय श्रीराम का उदघोष साम्प्रदायिक है

जब सब कुछ उचित और निर्विघ्न संपन्न हो जाए, तो वक्रदृष्टा अनर्गल प्रपंच गढ़कर विवाद उत्पन्न करते हैं। ऐसा ही अयोध्या में भूमिपूजन के सफल आयोजन के उपरांत दृष्टिगोचर हो रहा है। इस संबंध में दो प्रपंच चर्चा में हैं-पहला, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के रामलला के साथ एक चित्र से संबंधित है तथा दूसरा, जय श्रीराम के उदघोष के संबंध में है। 

दरअसल सोशल मीडिया पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का रामलला के साथ एक चित्र वायरल हो रहा है। जिसमें भगवान राम के बालक रूप को  प्रधानमंत्री मोदी हाथ पकड़कर मंदिर की ओर ले जा रहे हैं। इस चित्र पर केरल से कॉन्ग्रेस सांसद और नेहरू परिवार के चापलूस नेता ने तंज़ कसा और इस चित्र में मोदी को भगवान राम से बड़ा बताने पर राष्ट्रवादियों की आस्था पर प्रश्न चिन्ह लगाया है। दरअसल इस चित्र का मर्म समझने की आवश्यकता है इसमें भगवान राम बालक रूप में हैं और मोदी अभिभावक की भांति उन्हें लेकर जा रहे हैं।

यह महत्त्वपूर्ण है कि हिन्दू धर्म में तुलसीदास और सूरदास जैसे कई कवियों ने भगवान कृष्ण और राम के लिये वात्सल्य भाव का प्रयोग किया है। आज भी वैष्णव सम्प्रदाय में भगवान की वात्सल्य भाव से पूजा की जाती है तथा उन्हें परिवार के एक बालक की तरह ही देखा जाता है। वास्तव में इस चित्र पर अनर्गल प्रश्न उठाने वाले सनातन धर्म को इस्लाम और ईसाई धर्म के चश्में से देख रहे हैं और उन्हें हमारे धर्म की विशालता का कोई अनुमान नहीं है। सनातन धर्म अपने आराध्य को किसी भी रूप में पूजने या मानने की सुविधा देता है। इस विरोध का कारण सिर्फ मोदी से घृणा है और किसी भी तरह राम के मंदिर से चिढ़ को अभिव्यक्त करना है। 

वहीं दूसरा मुद्दा अयोध्या में प्रधानमंत्री द्वारा अपने उद्बोधन को जय सियाराम से प्रारंभ करना है। इसके बाद से मीडिया और सोशल मीडिया पर वामपंथी, जिहादी और छदम सेक्युलर धड़े ने स्वयं की पीठ थपथपाना प्रारंभ कर दिया। दरअसल इन्होंने प्रपंच रचा था कि जय श्रीराम हिंदुत्व का उदघोष है जो राजनीतिक, पुरुषवादी और साम्प्रदयिकता का प्रतीक है तथा इसका प्रयोग मॉब लिंचिंग को बढ़ावा देने के लिये किया गया। प्रधानमंत्री के जय सियाराम के उदघोष को इन्होंने अपनी विजय मान लिया और जय श्रीराम के उदघोष को धूमिल करना प्रारंभ कर दिया है। इस संबंध में इनका कहना है कि जय श्रीराम में माता सीता शामिल नहीं हैं और इसका प्रयोग माता सीता को भगवान राम से अलग करना है।

इनका तर्क मूर्खतापूर्ण और हास्यास्पद है क्योंकि पहली बात कोई भी माता सीता को भगवान राम से अलग करने का सामर्थ्य नहीं रखता है तथा दूसरा श्रीराम में शामिल ‘श्री’ माता लक्ष्मी का ही प्रतीक हैं और माता सीता लक्ष्मीजी का ही एक अवतार हैं। वास्तव में यह हिन्दू धर्म को षड्यंत्र के तहत लक्षित करना है कि जय श्रीराम और जय श्रीकृष्ण को स्थान पर जय सियाराम, जय राधेकृष्ण का प्रयोग किया जाए, ताकि इन्हें पुरुषवादी या साम्प्रदायिक सिद्ध करके हिन्दू धर्म पर हमला किया जा सके। वास्तव में इन उदघोषों का अर्थ अपने आराध्य के प्रति अपनी भावनाएं प्रकट करना है तथा इनमें माता सीता या राधा रानी के प्रति अन-श्रद्धा का भाव रखना नहीं है। इस विषय पर विवाद करना स्वयं को सेक्युलर दिखाना है तथा हंगामा मचाकर मीडिया में चर्चा का विषय बना रहना है।

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