पितृसत्तात्मक समाज से वामपंथी नारीवादियों का महायुद्ध

कल एक वामपंथी नारीवादी मित्र ने एक कविता साझा की। पितृसत्तात्मक समाज और परम्पराओं से विद्रोह का बिगुल बजाती कविता को प्रशंसा के सभी इमोजी प्राप्त होने के साथ साथ, पितृसत्तात्मक समाज की पीड़ित स्त्रियों का पर्याप्त समर्थन मिल रहा था।

कविता लम्बी और बोझिल थी। यहाँ दोहराना संभव नहीं है किन्तु कविता का मूल भाव था, “मैं बहुत कर चुकी तुम्हारे घर का काम, आज से मैं इंकार करती हूँ ये चाय नाश्ता खाना बनाने से, ये घर देखने से, मुझे लिखनी है कविता, बनानी है पेंटिंग, पढ़नी है किताब, करना है नृत्य इत्यादि इत्यादि और अंत में– घृणा पितृ सत्तात्मक (हिन्दू) समाज से और उसे नष्ट कर देने का प्रण।

कविता में कोई नयी बात नहीं थी। ये वामपंथी नारीवादियों के, एक सामान्य गृहणी और पितृ सत्तात्मक (हिन्दू) समाज के विषय में सामान्य विचार हैं।

एक तो गृहणी और गृहसेविका में अंतर कर पाना वामपंथियों के लिए संभव नहीं है और दूसरे अपनी समझ का ये दोष, स्त्रियों की दुर्दशा पर भावुक कविताओं के साथ, पितृसत्तात्मक (हिन्दू) समाज और परम्पराओं पर डालकर हिन्दू समाज की नयी पीढ़ी के मन में उनकी अपनी ही सामाजिक संरचना के प्रति ग्लानि जगाना सरल है।

ये सत्य है कि पराधीनता के लम्बे कालखंड में मूल भारतीय जीवन पद्धतियों, परम्पराओं और सामाजिक मानदंडों जिनमें स्त्री- पुरुष के व्यक्तिगत अधिकार और पारस्परिक सम्बन्ध भी निहित थे में व्यापक नकारात्मक परिवर्तन आए किन्तु आज उन्हें तेजी से बदला जा रहा है।

आज के समाज के पास दो विकल्प हैं पहला, पराधीनता की परिस्थिति में स्त्रियों के प्रति जन्मे नकारात्मक सामाजिक व्यवहार को बदल कर, स्त्री और पुरुष दोनों के लिए ऐसे समाज का निर्माण करे जिसमें दोनों ही अपनी सर्वोच्च क्षमताओं का प्रदर्शन कर स्वाभिमान और परस्पर आदर के साथ रहें।

दूसरा, इन परिस्थितियों का सम्पूर्ण दोष, अपने समाज की व्यवस्था पर डालकर उसे  “पितृ सत्तात्मक, पिछड़ा, रूढ़िवादी” कहकर स्वयं को अनावश्यक ग्लानि के भार से दबा ले और इससे मुक्ति के नाम पर, सामान्य जीवन के कर्तव्यों से मुख मोड़ने की पक्षधारिता करे।

वामपंथी नारीवादी दूसरा विकल्प अपनाते हैं। इसमें कुछ करना नहीं है। स्त्रियों के मन में उनके प्रति ही घृणा भर दो। जो कुछ वे करती हैं वह सब व्यर्थ है, क्योंकि जो कुछ वे करती हैं वो सब पितृ सत्तात्मक समाज के कारण करती हैं।

कुछ सरल प्रश्न हैं जिनका उत्तर वामपंथी नारीवादी कभी नहीं देते। सीता की अग्नि परीक्षा हुयी, ये तो जोर जोर से कहेंगे किन्तु कोई प्रश्न कर दे कि सीताराम या सियाराम में सिया पहले क्यों तो बगलें झाँकने लगेंगे।

यदि समाज इतना ही पितृ सत्तात्मक था तो ब्रह्म वादिनी स्त्रियाँ कहाँ से आयीं? यदि समाज इतना ही पितृ सत्तात्मक था तो शंकराचार्य और मंडन मिश्र के शास्त्रार्थ का निर्णायक भारती को क्यों बनाया गया?

वर्तमान परिस्थिति को देखें, तो सम्पूर्ण पितृसत्ता से घृणा करने वाली इन आधुनिक वामपंथी नारीवादियों को पति की पैतृक संपत्ति पर पूरा अधिकार चाहिए तब ध्यान नहीं आता ये उसकी पितृ संपत्ति है।

आज के समय में अधिकांश युवा मानसिक रूप से परिपक्व होने के बाद ही विवाह करते हैं और अन्यान्य कारणों से परिवार भी एकल ही रहते है तो यदि उसमें भी पति-पत्नी एक दूसरे से, तुम्हारा घर, मेरा काम, तुम्हारी चाय, मेरा नाश्ता करते रहेंगे तो पितृ सत्तात्मक सत्ता को चुनौती कौन देगा?

पितृसत्तात्मक समाज के स्थान पर स्त्री पुरुष दोनों के लिए समान अवसरों और पारस्परिक आदरयुक्त  समाज बनाना, समाज के प्रत्येक स्त्री और पुरुष का साझा उत्तरदायित्व है। सच तो यह है कि वामपंथ के इस शोर से परे, भारत का उन्नत समाज पूरी दृढ़ता से ऐसे नए अध्याय लिख रहा है जिनकी कुछ समय पहले तक कल्पना भी नहीं की जाती थी।

कल ही एक बलिदानी पिता की सत्रह –अट्ठारह वर्ष की बेटी ने अपने पिता की अर्थी को कन्धा ही नहीं दिया, मुखाग्नि भी दी। ये समाज में बड़े बदलाव का संकेत है। जिस दिन के लिए बेटे की कामना सर्वाधिक थी उस दिन का दायित्व बेटी ने सहजता से उठा लिया। बिना किसी शोर के।

मूल रूप से हम एक कर्तव्य आधारित समाज रहे हैं और जहाँ सत्ता का व्यापक अर्थ दायित्व और उसके समर्पित निर्वाह से था। पितृसत्तात्मक या मातृसत्तात्मक जैसे शब्द वस्तुतः हमें परिभाषित करने में सक्षम ही नहीं हैं।

कोई भी उच्च मानव मूल्यों वाला परिपक्व और आदर्श समाज न तो पितृसत्तात्मक हो सकता है न ही मातृसत्तात्मक।

वो एक ऐसा समाज होगा जहाँ स्त्री- पुरुष के भेद के बिना दोनों को शिक्षा, ज्ञान- विज्ञान, अर्थ और धर्म में अपना सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन करने का समान अवसर और अधिकार प्राप्त होगा।

जहाँ दोनों को उनके वैशिष्ट्य के लिए आदर प्राप्त होगा।

उस समाज के निर्माण के लिए स्त्री-पुरुष को एक दूसरे के साथ काम करना होगा, एक दूसरे के विरोध में नहीं।

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