फेमिनिज्म वायरस की भारतीय सेना में घुसपैठ

फ़रवरी 2020 में भारत के सुप्रीम कोर्ट ने ‘लैंगिक समानता’ के नाम पर महिलाओं को भी सेना में परमानेंट कमीशन का अधिकार दिया, वो भी तब जब सेना बिल्कुल भी ऐसा नहीं करना चाहती थी। सेना का रवैया ज़मीनी हकीकत, सरहदों के हालात और दुश्मनों की आदतों पर ध्यान देते हुए अदालत में पेश किया गया था मगर शायद ही कभी जंगी हालात वाले LoC, LAC या सियाचिन ग्लेशियर का दौरा करने वाले मीलॉर्ड ने, अपने महानगरों की फेमिनिस्ट विचारधारा में बहते हुए महिलाओं की परमानेंट कमीशन की मांग स्वीकार कर ली।

पहले ही भारतीय सेना की अफसर भर्ती में महिलाओं को पुरुषों के मुकाबले में आसान फिजिकल टैस्ट देने होते थे, मगर उच्चतम न्यायालय के आदेश के बाद जब महिलाओं को ‘लैंगिक समानता’ के आधार पर परमानेंट कमीशन दिया जा रहा है, तो अब उसी लैंगिक समानता के आधार पर टैस्टिंग से महिला अधिकारियों को परहेज़ क्यों? वैसे यही सामान्य फेमिनिस्ट की सोच भी तो रही है; अधिकार मांगते वक्त तो ‘बराबरी’ के नाम पर पुरुषों जैसे अवसर चाहिए, मगर कर्तव्य निर्वहन के समय कुछ रियायत/छूट मांग कर ‘बराबरी’ को भूल जाओ।

सरहद पर अदालती दलीलों से युद्धों के निर्णय नहीं होते, ‘वीर भोग्य वसुंधरा’ का सिद्धांत चलता है; बाकी युद्धों की तरह ही गलवान घाटी की झड़प में भी हमारे वीर जवानों की शारीरिक मजबूती ने ही देश को बचाया, अदालत के किसी जज के फैसले ने नहीं!जिस फिजिकल टैस्ट पर महिला अफसरों ने आपत्ति जताई है उसमें यह शामिल हैं: 5 किलोमीटर की दौड़, 60 मीटर की स्प्रिंट, रस्सी पर चढ़ना और 6 फुट के खड्डे को पार करना। क्या भारत को अपने सैन्य अधिकारियों से इन मूलभूत फिटनेस मानकों को पूरा करने की उम्मीद भी नहीं रखनी चाहिए? सेना शायद राजनीतिक, मीडिया या सामाजिक दबाव में महिलाओं को रियायत दे भी दे, मगर क्या मुश्किल समय और सेना की कठोर नौकरी में आने वाली कोई आपातकालीन स्थिति हमको कोई रियायत देगी?

ASHISH TRIPATHI: Right Winger, an army brat, interested in issues of society(particularly middle class), like to have realistic view (equidistant from pessimistic as well as optimistic).
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