“धर्मनिरपेक्ष” की अधर्मी घुसपैठ

भारतीय संसद भी उस दिन शरम से झुक गया होगा, जब 1976 को “secular” शब्द को जबरन संविधान के प्रस्तावना में जोड़ा गया होगा. संविधान के विधातांओ ने जिस “secular” शब्द को प्रस्तावना में ना होने के लिए सांसद में पूरी शक्ति लगायी थी उसी सांसद में तीन दशकों के बाद “secular” शब्द को प्रस्तावना में डालकर संविधान के विधातांओ का मज़ाक बनाया गया था.

इस इतिहास को समझने से पहले हमें “Secular” शब्द को समझना होगा. “Secular” शब्द का मतलब धर्मनिरपेक्ष होता है. इस शब्द का उगम हमे मध्यकालीन यूरोप में मिलता है.

धर्मनिरपेक्षता सरकार का मतलब होता है एक ऐसी सरकार जिसका धर्म के साथ कोई कनेक्शन नहीं है, ना ही वो किसी धर्मो के रीति रिवाजों मे अपना हस्तक्षेप करेगा, प्रोटेस्टेंट पुनर्गठन तथा प्रबोधन के दौरान इस शब्द का इस्तेमाल हमें मिलता है“, इयान कोपलॅण्ड (Ian Copland).

जब “secular” शब्द को प्रस्तावना में डालने का प्रयास संविधान निर्मिति के समय किया गया था तब बाबासाहेब आंबेडकर तथा पंडित जवाहरलाल नेहरू दोनों इस शब्द का प्रस्तावना में ना होने के पक्ष में थे. भारत के इतिहास को देखते हुए यह असंभव था कि भारत की आनेवाली सरकारें खुद को धर्म से अलग रख पाए. अगर इस शब्द को प्रस्तावना में जगह दे देते, तो भारत के संविधान में लिखे हुए अल्पसंख्यक जातियों के लिए बनाए सारे अनुच्छेदों पे सवाल खडे हो रहे थे. एक धर्मनिरपेक्ष देश किसी भी तरह से अल्पसंख्यक लोगों के लिए अलग अनुच्छेद नहीं बना सकता था, ये धर्म में सरकार का हस्तक्षेप हो जाता और धर्म में बिना हस्तक्षेप किए सबको समान न्याय देना असंभव था.

इसलिए हमारे संविधान विधातांओ ने इस शब्द के इस्तेमाल करने से सक्त नाराज़गी दिखाई थी.

भारत में 1975 को पूर्व पंतप्रधान इंदिरा गांधीजी ने खुद की पंत प्रधान की सीट को बचाने के चलते पूरे देश में आपत्कालीन स्थिति लागू की थी. उसके बाद कई सारे संशोधन बिल द्वारा संविधान में कई बार बदलाव किए गए.

“Secular” शब्द के पीछे का विरोध और उसका इतिहास को अच्छे से जानने के बाद भी पूर्व पंतप्रधान इंदिरा गांधीजी ने आपातकालीन परिस्थिति के दौरान 42 वां संशोधन बिल पास किया, जिसमें से एक प्रस्ताव, “Secular” शब्द को प्रस्तावना में डालने का था.

क्या भारत 1976 से पहले धर्म निरपेक्ष नहीं था? और अगर था, तो फिर क्यू अलग से संशोधन बिल लाया गया?

इस विषय पर, संविधान विशेषज्ञ सुभाष कश्यप ने कहा था की, “भारत पहले भी धर्म निरपेक्ष था, पर “Secular” शब्द को प्रस्तावना में डाल देना एक महज राजकीय चाल थी. आपातकाल की परिस्थिति में जब जबरन “birth control” कार्यक्रम का आयोजन किया गया. उस वज़ह से काफी हदतक इंदिरा जी की छबि मायनॉरिटी मे ख़राब हो गई थी. उसी को सुधारने के लिए ये संशोधन बिल लाया गया था “.

देश के सभी प्रमुख विरोधी दलों के नेताओं और हजारो-लाखों पत्रकारों, कार्यकर्ताओं को सलाखों के पीछे डालकर, देश के संविधान की आत्मा को ठेस पहुंचाने का काम उस वक़्त इस संशोधन बिल द्वारा किया गया.

जो बिल पास करते समय लोकशाही की सारे नियमों का उल्लंघन किया गया हो, विरोधियों को नजर कैद और पत्रकारों की कलम रोकी गई हो, वो बदलाव क्या हमे अपनाना चाहिए?

क्या इस बदलाव की विरोध में सुप्रीम कोर्ट के दरवाजे खटखटाने नहीं चाहिए? इस सवाल पर विचार करना आज के दौर में बहुत जरूरी है.

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