भारतीय समाज और नारी

कहने को अब यह देश बहुत ही ग्लेमरस बन चुका है यहां की महिलाओं की तरह। हाँ, भारतीय महिलायें, working women, Independent Girls की जिन्हें संज्ञा दी जाए तो कोई अतिशियोक्ति नहीं। इनमें वे सब महिलाएं है जो महिला सशक्तिकरण के नाम पर फेमिनिज्म का झंडा पकड़े हुए है, वे महिलाएं हैं जिनके परिवार की निर्भरता उनके ऊपर ही है और वे महिलायें भी हैं जिनके समय, काल, परिस्थिति सब अनुकूल है, जिनका घर- परिवार White Collar jobs से सुशोभित है, महिलाओं की ये श्रेणी सबसे सुदृढ़ और सुखी है, मतलब इनके लिए जिंदगी बहुत ही सरल और life is a fun है।

अब बात करते हैं उस नारी शक्ति की जिनके लिये जीवन आज भी घर की चार दीवारी है, जहाँ महिला को महिला होने का अहसास पल पल करवाया जाता है, उसकी खूबियाँ मात्र इसी बात में निहित है कि उसके खाने में नमक पूरा है और बड़ों की मौजूदगी में घूंघट सदैव लगा रहता है। वो चाहे कितनी भी शिक्षित क्यूँ न हो, उसकी शिक्षा से धनार्जन का कोई संबंध नहीं माना जाता है। अगर वो अपनी शैक्षिक योग्यता के दम पर किसी पेशे से जुड़ना चाहे तो यह कुल की मर्यादाहीनता मानी जाती है। उनका पूरा जीवन मानो किसी समर्पण के लिये ही हुआ हो और समर्पण भी एक ऐसे परिवार के लिये जो अपनी बेटी को तो उस सुखमय श्रेणी वाली महिलाओं में देखना चाहते है जिसकी व्याख्या पूर्व में की गई लेकिन बहू उनको ऐसी चाहिए जो उनके कुल दिवाकर की सेवा कर सके और तथाकथित मान मर्यादाओं का निर्धारित दिशा निर्देशों के अनुरूप निर्वहन।

खैर.. मेरा उद्देश्य उन महिलाओं के खिलाफ कोई मोर्चा खोलना नहीं है जिनके जीवन में एक आत्मनिर्भरता है या यूँ कहे किसी परिवार के दबाव में नहीं है लेकिन मेरा प्रश्न समाज के उन सभी ठेकेदारों से है जिन्होने स्त्री को केवल वंशपूर्ति और घर के काम काज को ही जीवन समझकर सब कुछ सहर्ष स्वीकार करने को मजबूर कर दिया है। इसमें परिवार की उन महिलाओं का भी उतना ही योगदान है जो वर्षों से चली आ रही रूढ़िवादी सोच को खुद ढो भी रही है और नव आगंतुकों पर थोंप भी रही है। और यह इसी तरह चलता रहेगा क्युंकि ना कोई इसका विरोध करेगा और ना कोई इसको उजागर क्युंकि यह यातना, महिलाओं का त्याग और बलिदान बन कर रह जाती है जिसको कभी कोई नहीं समझ पाया।

Aman Acharya: एक लेखक जो रहता नहीं बीहड़ में लेकिन जानता है बगावत करना।
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