पिता

कभी जिया बेफ़िक्री में,
आज उनके हर क़दम की,
ख़बर लेता हूँ,
मैं पिता हूँ।

कभी ख़ुद में मगन-मस्त,
आज उनकी ख़ुशी में;
ख़ुश हो लेता हूँ,
मैं पिता हूँ।

ख़ुद की ख़्वाहिशें हुई दफ़्न,
मोची के कसे जूते पहन;
उन्हें ‘मोची’ दिलवाता हूँ,
मैं पिता हूँ।

काम का बोझ समेटे,
शाम ढले जब आता हूँ;
चिंताओं को दबाए,
ऊपर से मुस्काता हूँ,
मैं पिता हूँ।

सजना भूल गया हूँ,
या जान’कर भूला दिया;
सजाने को बस अब,
बच्चों के ख़्वाब सजाता हूँ,
अब मैं; पिता हूँ।

– गुलाब चौबे

नई पीढ़ी के पिताओं को समर्पित

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