विचारधारा की स्पष्टता

मनुष्य दीर्घ काल से सदैव विकास की राह का अनुसरण करता हुआ आ रहा है और मनुष्य की इस यात्रा में उसके विचारो का योगदान सर्वाधिक है। मनुष्य अपने बुद्धि व विवेक से अपने सुविधानुसार विचारो का एक समुच्चय समायोजित करता है तथा निरंतर उन विचारो के अनुरूप कार्य करता है। विचारो के इस समुच्चय को ही विचारधारा कहते हैं। हर व्यक्ति की विचार शक्ति अलग अलग होती है, अतः सभी की विचारधारा भी भिन्न होती है। परन्तु सामान्य हितो के कुछ विषयों पर एक समूह विशेष की विचारधारा समान हो सकती है। राष्ट्र, धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र इत्यादि ऐसे ही कुछ विषय हैं। ये विषय ही व्यक्ति विशेष के अस्तित्व को मुख्यतः परिभाषित करते हैं। सामाजिक कल्याण हेतु इन विषयों की अपनी अपनी उपयोगिता होती है और व्यक्ति विशेष को इनके उपयोगिता के अनुसार ही कार्य करना चाहिए।

भारतवर्ष विविधताओं का देश है और यहां विविधता धर्म, भाषा, जाति, भौगोलिक क्षेत्र इत्यादि सभी को लेकर विद्यमान हैं। जिस कारण इन सभी समूह विशेष की विचारधाराएं भी अलग अलग है। ऐसी स्थिति में इन समूहों के हितों में टकराव होना स्वाभाविक है और यह टकराव ही भारतवर्ष के विकास कार्य में बाधक सिद्घ होता हुआ आया है। उदारवादी नीति हितों के टकराव को राष्ट्र के विकास से सर्वोपरि मानती है। परन्तु क्या ऐसा मानना उचित है? हमारा राष्ट्र जिन प्रकार के संसाधनों से फलीभूत है, क्या उसकी यही नियति होनी चाहिए थी? यह सत्य है कि आपका धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र इत्यादि आपके अस्तित्व को चरितार्थ करते हैं। परन्तु इन सभी से पूर्व आपका राष्ट्र आपके अस्तित्व को चरितार्थ करता है, अतः आपका परम कर्तव्य ये है कि अपने समूह विशेष के हितों की रक्षा से पूर्व अपने राष्ट्र के हितों की रक्षा करें। विचारधारा की यही स्पष्टता आपके राष्ट्र को विकास की परिसीमाओं तक ले जाएगी तथा उसके संसाधनों के अनुरूप नियति को प्राप्त करवाने में भी सहायक होगी।

इतिहास सदैव वर्तमान को प्रेरणा देने के लिए तत्पर रहता है और विचारधारा की स्पष्टता को लेकर भी भारत के स्वर्णिम इतिहास में कई उदाहरण मौजूद हैं। भारतवर्ष की भूमि ने इतिहास में ना जाने कितनो ही आक्रमणकारियों का सामना किया है। कुछ अवसरों पर आक्रमणकारी सफल हुए हैं तो कुछ अवसरों पर भारत भूमि की विजय हुई है। परन्तु इन सभी आक्रमणों का विश्लेषण करें तो ज्ञात होता है कि जब जब हमारी विचारधारा स्पष्ट और एकनिष्ठ नहीं रही, तब तब आक्रमणकारियों ने भारतभूमि को लज्जित किया है। फिर चाहे वह शक यवन कुषाणों के समय विभाज्य भारत हो, गौरी के आक्रमण के समय जयचंद जैसे राजा हो, मुगलों के काल में मान सिंह जैसे राजपूत हो या फिर अंग्रेजो कि फुट करो राज करो की नीति हो। हर काल में पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, वीर शिवाजी व झांसी की रानी के रूप में भारत भूमि पराजित हुई है। मगर जब राजा पोरस ने विश्व विजयी सिकंदर को अपनी विचारधारा के समक्ष झुकने पर विवश कर दिया था, तब भारत भूमि गौरवान्वित हुई थी। कहने को तो सिकंदर ने राजा पोरस को हरा दिया था, परन्तु राजा पोरस ने सिकंदर के भारत विजय के स्वप्न को तोड़कर उसकी भेंट पराजय से करवाई थी।

आज सम्पूर्ण भारतवर्ष को ऐसे ही स्पष्ट विचारधारा की आवश्यकता है। जहां हर व्यक्ति को अपने राष्ट्र के हित में ही अपना हित देखना होगा। राष्ट्र के नाम पे ही व्यक्ति को अपने अस्तित्व का निर्माण करना होगा। आपके धर्म, भाषा, जाति, क्षेत्र की विचारधारा आदरणीय है, परन्तु जब यह विचारधारा आपके राष्ट्र के विकास में बाधक बन जाए तो इसे त्याग देना ही उचित है। वैश्विक प्रतियोगिता के इस दौर में वहीं देश अपने आप को स्थिर रख सकता है जिसके लोग अपने देश के प्रति कर्तव्यनिष्ठ हैं और राष्ट्र के प्रति इस कर्तव्यनिष्ठता को ही विचारधारा की स्पष्टता कहते हैं।

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