“नायकू कहो या मैथ टीचर” मगर अपराध की दो परिभाषाएं नहीं होतीं

नायकू जैसे आतंकवादियों को मैथ टीचर और टेलर का बेटा कहने की शुरुआत वहीं से हो जाती है जहां से रावण को ब्रह्मज्ञाता और कर्ण को दानवीर बता कर उनके कुकर्मों पर पर्दा डाला जाता है। दुष्टों का महिमामंडन करके नायक बनाने की वामपंथी कुबुद्धि नई नहीं है।
माता सीता सी पतिव्रता का कपटपूर्वक हरण करना, द्रौपदी पर अभद्रतम टिप्पणी करना और अपना सगा भतीजा जानते हुए भी निरपराध अभिमन्यु की हत्या कर जश्न मनाना, सभ्य तो क्या अनपढ़ समाज में भी दुष्टों का ही काम माना जाता है। लेकिन हमारे यहां इस दुष्टता को कभी परमवीर और महापंडित बता कर justify गया तो कभी दानवीर और सूत पुत्र बता कर सुहानुभूति की मिलावट की गई। सीता और द्रौपदी के संदर्भ में तो फेमिनिस्ट दृष्टिकोण भी मुंह छुपा कर बैठ जाता है। सिर्फ रिजेक्शन की कुंठा में किसी स्त्री के चरित्र पर उछाले गए कीचड़ को फेमिनिज्म संज्ञान का विषय नहीं समझता। मगर सूतपुत्र होने की जातिवादी सुहानुभूति बेचारा-बेचारा बता कर निंदनीय को भी नायक घोषित करा देती है।

हमारे इस अर्धवामपंथी चिंतन ने दुष्टों को नायक बनाया सो बनाया, नायकों की विराटता को भी संदेहों में खड़ा करवा दिया। आज बहस अर्जुन-कर्ण के आचरण, शील, संयम, व्यक्तित्व और चारित्रिक स्तर को लेकर नहीं होती, बल्कि यह होती है कि बड़ा धनुर्धर कौन और बेचारा कौन? पौराणिक संदर्भ हो या वर्तमान, जब तक आप बिना किंतु-परंतु किए अपराधी को सिर्फ अपराधी कहने की शुद्धता नहीं लाएंगे, तब तक अपराधियों का महिमामंडन चलता ही जायेगा। और ये लोग नायकू को टेलर पुत्र, पत्थरबाजों को बेरोजगार, नक्सलियों को सताए हुए बताते ही रहेंगे।

क्रिमिनल्स का victimisation एक गम्भीर समस्या है। और ये सब सिर्फ वर्तमान के विवाद की समस्याएं नहीं हैं, ये राष्ट्र के भविष्य के चरित्र निर्माण की समस्याएं हैं। ये प्रश्न करती हैं कि आप अपनी अगले पीढ़ी को कैसे नायक देना चाहते हैं। आपकी अगली पीढ़ी के दृष्टांत क्या हों? आप क्या चाहते हैं कि अगली पीढ़ी दुष्ट को दुष्ट कहने की स्पष्टता रख पाए या नहीं? या वह भी इस विवाद में उलझी रहे कि एक अपराधी को अपराधी कहने के लिए कितने सहायक तत्वों के फिल्टर से गुजरना पड़ेगा?

आतंकवादी की दो परिभाषाएं नहीं होतीं, आतंकवादी या तो आंतकवादी होता है अथवा नहीं होता। और यह तय होना चाहिए बिना if-but-किन्तु -परन्तु के! चाहे न्यायापालिका हो या समाज दोनों को चाहिए कि वे भविष्य को वह साहित्याधार दें जिससे हमारे उत्तराधिकारी नायकों और खलनायकों में स्पष्ट भेद कर सकें। और सबसे पहली जिम्मेदारी हमारी बनती है कि हम अपने आध्यात्मिक साहित्य के interpretations में खलनायकों के लिए बने सुहानुभूति के इन सॉफ्ट कॉर्नर्स का पूरी तरह सफाया करें। नहीं तो यही सॉफ्ट कॉर्नर आगे पूरा मकान बन जाता है और इसमें कभी नायकू गणितज्ञ नजर आता है, तो कभी ओसामा इंजिनियर, और कभी इशरत बिहार बेटी।

-पुष्यमित्र उपाध्याय

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