खोखलापन सतह पर

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संवेदनाओं का व्यवसाय चरम पर है. इन्टरनेट पर तस्वीरें बिक रही हैं. तमाम पत्रकार,लेखक, कवि भावुकता का ऐसा ताना बाना बुन रहे हैं कि आँखें भरे बिना रह ही न सकें. ऐसी वाह- वाह उनमें से कईयों को संभवतः जीवन में प्रथम बार मिल रही होगी. चित्रकार, संगीतकार सब अपने अपने स्तर पर दुःख का दोहन कर रहे हैं अपनी कला और व्यावसायिकता को निखारने के लिए.

दुःख से बड़ा दुःख का प्रस्तुतीकरण बनता जा रहा है. दुःख से परे उसके प्रस्तुतीकरण पर संवेदनाओं और आंसुओं की बाढ़ जो आ गयी है उसे देखकर लगता है जन जन दुखभंजन बनना चाहता है. प्रकट में हर कोई दुखियों के आँसू पोंछ लेना चाहता है किन्तु प्रकट और अप्रकट में अंतर है. प्रकट और अप्रकट का अंतर हमारे विरोधाभासों को उजागर करता है और बताता है कि हमारी संवेदनाएं बाज़ार के अधीन हैं फिर चाहे वो बाज़ार तस्वीरों, घटनाओं और कविताओं के माध्यम से दुःख प्रकट करके सोशल मीडिया पर लाइक्स पाने का ही क्यों न हो.

राधे (बदला हुआ नाम) अपने 8-9 साथियों के साथ दिल्ली से उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ तक पैदल आया था. राधे पैदल आने वाले मजदूरों के उन अग्रणी जत्थों में से एक में था जिन्हें मीडिया पूरी तरह कवर करके सुर्खियाँ नहीं बटोर पायी थी. दिल्ली में एक कपड़े की दुकान में काम करने वाले राधे से उसके नियोक्ता ने कोरोना लॉकडाउन घोषित होते ही कह दिया था, “देख लो, ये बंदी लम्बी चलेगी. हम बैठने का पैसा नहीं देंगे. जब से खुलेगा तब से दोबारा पैसा देना शुरू करेंगे.” मकान मालिक ने दबाव बनाया, “अब बंदी है, किराया एडवांस दे दो. दो महीने का अगर रहना है.” राधे ने दुकान मालिक से कहा, “एडवांस या उधार में दे दीजिये, नहीं तो माकन मालिक बिना एडवांस के निकल जाने को कह रहा है.” नियोक्ता ने कहा, समय खराब है इस समय कुछ नहीं कर सकते. दो महीने का कमरे का किराया एडवांस देकर बिना कमाई जीवन चलाना मुश्किल था. अपने जिले के कुछ अपने जैसे साथी और मिलते ही वो सब कुछ छोड़ गाँव की तरफ पैदल चल दिए. लखनऊ पहुंचे. यहाँ सहायता मिल गयी.

प्रधानमंत्री हाथ जोड़ कर संवेदना की अपील कर चुके थे, निजी प्रतिष्ठानों से निवेदन कर चुके थे किसी को नौकरी से न निकाला जाए. मुख्यमंत्री किरायेदारों पर किराए के लिए दबाव न बनाने की अपील कर रहे थे. किसी को कुछ भी फर्क नहीं पड़ा.  जिस समाज में ऐसे लोग रहते हों उस समाज में संवेदना और मानवता भी एक व्यापारिक उत्पाद से इतर कुछ नहीं.

वैश्विक महामारी है. लॉकडाउन ने जीवन ठप कर दिया है केवल भारत में ही नहीं विश्व के अधिकांश देशों में जिनमें शक्ति संपन्न और विकसित राष्ट्र भी शामिल हैं किन्तु सत्य तो सभी जानते हैं किन्तु ये परिस्थिति अनंत काल तक चलने वाली नहीं है. महामारी का चक्र कुछ माह में पूरा हो जाएगा. जन जीवन पटरी पर वापस आयेगा. देश की सरकार जन जीवन, व्यवसाय, व्यवस्था को पुनः गति देने के लिए सहायता और समर्थन देगी. विपदा के दूसरी छोर पर बहुत कुछ नया और शुभ भी होगा.

कुछ महीनों की इस विपदा में ही मानवीय मूल्यों और रिश्तों को तिलांजलि दे दी गयी. देश के एक कोने से दूसरे कोने में बसे अपने गाँव जाने के लिए प्रवासी दर दर भटक रहे हैं, पैदल चल रहे हैं, मार खा रहे हैं, मूर्ख बनाये जा रहे हैं, ठगे जा रहे हैं. लाखों की संख्या में दिख रहे ये कामगार किसी एक फैक्ट्री के तो नहीं हैं, न ही किसी एक कंस्ट्रक्शन साइट के. जहाँ भी काम करते होंगे, उनके नियोक्ता के व्यवसाय की सफलता में उनका अभिन्न योगदान होता होगा. क्या नियोक्ता किसी भी तरह उनको दो माह भोजन नहीं करा सकते थे, या मकान मालिक दो माह का किराया कम नहीं कर सकते थे? क्या दोबारा ये प्रतिष्ठान, कंस्ट्रक्शन, फैक्ट्री खुलने पर वापस चले गए उस मानव संसाधन की आवश्यकता नहीं होगी? क्या शहर दोबारा खुलने पर लोगों को ऑटो रिक्शा नहीं चाहिए होगा? किस मुंह से उन्हें वापस आने को कहोगे? इस मानव संसाधन के नियोक्ता अपने उत्तरदायित्व से भाग नहीं सकते. एच. आर. कॉन्ट्रैक्ट में क्या लिखा है उसकी बात मत कीजियेगा क्योंकि कोरोना एक अभूतपूर्व समस्या है और एच. आर. कॉन्ट्रैक्ट उसके हिसाब से नहीं लिखा गया होगा.

एक समाज के तौर पर कोरोना ने हमारा खोखलापन सतह पर ला दिया है.

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