मै बकरी हुँ: इंडिया के राष्ट्रपिता माने जाने वाले महात्मा गांधी हमारा हि दूध पीते थे

#GoatLivesMatter

मै किसी को नुकसान नहीं पहुंचाती।
पर फिर भी ना जाने कुछ खास किस्म के जानवर भक्षी इंसान (जिन्हें इंसान कहना इंसानियत को गाली देने के बराबर है) मुझे और मेरे समुदाय को काट कर अपने परिवार के साथ आनंद लेकर खा जाते हैँ और डकार तक भी नहीं लेते।

मै प्राचीन काल से हि मानव समुदाय के साथ जुड़ी हुँ। प्राचीन काल से हि मानवो ने सर्वप्रथम जानवर समुदाय से गाय, भेड़, कुत्ता और सुवर प्रजाति के नर मादाओ के पालन के साथ साथ जिसे सबसे अधिक अपने लिए उपयोगी समझते थे वो मै बकरी और मेरा समुदाय ही है।

मै बकरी हुँ, मै और मेरा समुदाय हमारा पालन पोषण करने वाले मानवो के लिए एक उद्योग या रोजगार के माध्यम के रूप में देखे जाते और उपयोग में लाये जाते रहे हैँ।

:-हमने मानवो को दूध दिया।
:-हमने मानवो को अपनी लेडियां दी जिसका खाद के रूप में उपयोग किया जाता है।
:-हमने मानवो को अपने मृत्यु के पश्चात अपने शरीर की खाले दे दी ताकी उनका चर्म उद्योग फलता फूलता रहे।
:-हम इन मानवो का अपने पूरे जीवन काल सेवा करते रहते हैँ।

मनावो की तो एक प्रजाति हि गड़ेरिया कहलाती है वो इसीलिए की वे बकरियों और भेड़ो को पालते पोसते हैँ और उन्हीं से अपना जीविकोपर्जन करते हैँ।

ऐसा नहीं है कि, मान्सभक्षण करने वाले मनुष्य केवल हमारा हि मांस खाते हैँ, पर ये भी सच है कि सबसे अधिक हमारा हि मांस खाते हैँ ये मनुष्य।

ऐसा भी नहीं है कि प्राचीन काल में हमे नहीं मारा और खाया जाता था, परन्तु इस दुनिया में जब से मनुष्यों की एक खास प्रजाती का उदय हुआ वो हमारे जन्मजात दुश्मन बन गये।

मनुष्यों के अन्य प्रजाती के लोग तो कभी कभी हमें मारते और पका के खाते हैँ। पर जिस प्रजाति की मै बात कर रही हुँ वो तो प्रत्येक दिन हमे मारते और खाते हैँ, और यही नहीं हमे मारकर हमारे शरीर के टुकड़ो को पास पड़ोस में बांटते भी है।

हे मनुष्यों तुम लोगों की इस खास प्रजाती का कोई भी त्यौहार बिना खुन खराबे के समाप्त होता हि नहीं। हे मनुष्यों ये खास प्रजाती के लोग एक खास त्यौहार मनाते हैँ, और उस दिन पुरी दुनिया में बकरी समुदाय का व्यापक बकारिसन्हार किया जाता है। हमे अर्थात, बकरी और बकरों को बड़ी बड़ी मंडियो में मेला लगाकर बेच और खरीदा जाता है और फिर एक खास दिन हमें उस निराकार के नाम पर काट कर मार दिया जाता है।

उस खास प्रजाती के लोग हमें तड़पाकर काटते हैँ और फिर नोच नोच कर हमें खा जाते हैँ और सबसे अधिक शर्म तो तब आती है जब रक्षाबंधन जैसे पवित्र त्यौहार को बदनाम करने के लिए हमारी फोटो लगाकर नीचता की पराकाष्ठा को पार करने वाले PETA के कीड़े मकोड़े भी इस सामूहिक बकरी संहार पर कुछ बोलने की हिम्मत नहीं दिखाते।

आखिर हम बकरी समुदाय का अपराध क्या है। हम अगर अपने संस्कारों के कारण सहिष्णु है, सहनशील है और आक्रमण नहीं करते तो क्या हर गैरा हमें मार कर अपना उदारपूर्ति कर लेगा।

अरे हम बकरी समुदाय का इतिहास तो कई हजार वर्ष पूर्व का है, परन्तु जो प्रजाती आज से केवल कुछ सौ वर्ष पहले पैदा हुई वो भला हमारे हजारों वर्षो के ऐतिहासिक व्यवस्था को कैसे नष्ट कर सकती है।

हम बकरी समुदाय के लोग अपनी मेहनत से ईमानदारी से अपना जीवन यापन करते हैँ इन मानसभक्षी राक्षसों की भांति किसी को मार कर नहीं खाते या फिर इनकी तरह परजीवी बन कर नहीं जीते।

आज तक सुना है कभी कि सीरिया या सूडान या बंगलादेश या फिर बर्मा से बकरी समुदाय पलायन करके शरणार्थी के रूप में फ़्रांस, ब्रिटेन, अमेरिका या भारत जैसे देशो में अवैध तरिके से घुसा है और वंहा के लिए बोझ बन गया है। नहीं ना, क्योंकि हम बकरियों का समुदाय स्वाभिमानी होता है, हम अपनी मेहनत और ईमानदारी की रोटी और घास खाते हैँ उन भिखारी, बेगैरत घुसपैठियों की तरह नही किसी के फेके टुकड़े पर पलते हैँ।

हमारी संस्कृति वसुधैव कुटुंबकम में विश्वाश रखती है। हम जियो और जिने दो में विश्वाश करते हैँ और इसी धर्म का पालन करते हैँ। परन्तु वो मानसभक्षी राक्षस मुर्गीयों के पश्चात सबसे आसानी से हमें हि मार कर खाते हैँ।

सबसे आश्चर्य हमें तब होता है, जब यही मानसभक्षी इस देश को गांधी का देश कहते हैँ और गांधी जी को सबसे ज्यादा पसंद आने वाली हम बकरियों को हि अपना भोजन बना लेते हैँ। धूर्त, मक्कार और बेगैरत लोग क्या जाने कि बापू जब तक अपनी बकरी का दूध खुद दुह कर कच्चा हि नहीं पी लेते थे, तब तक उन्हें चैन नहीं मिलता था।

अभी क्या बताऊ और कैसे बताऊ उस भयानक मंजर को, मेरी बुवा की लड़की गर्भवती थी परन्तु इन खूंखार लोगों ने उसकी गर्दन रेत डाली और उसके पेट को अपने खूनी खंजर से काट डाला तो तिन मासूम बच्चे तड़प रहे थे, उन मानसभक्षी राक्षसों के चेहरे पर भयानक मुस्कान निखर आयी और उन्होंने उन तड़प रहे बच्चों को भी काट डाला, उसकी इस दर्दनाक मौत से पूर्व की गयी चित्कार और आँखों से बह रहे बेबसी और लाचारी भर आसुओ ने बहुत कुछ कह डाला। शायद वो कह रही हो की जो आज मेरी हालत वही कल तुम्हारी और तुम्हारे बच्चों की भी होगी।

अरे नामुरादों हमें मार कर खाते हो, शर्म से चुल्लू भर पानी में डूब मरो। PETA के मानसिक रोगियों यदी शर्म है तो चुल्लू भर पानी में डूब मरो, क्या हम जीव नहीं, क्या तुम हमे बचाने के लिए कुछ नहीं कर सकते… क्या किसी त्यौहार को मनाने के लिए हमारा सामूहिक नर्संहार करना जरूरी है। क्या तुम लोग हमारा खुन बहाये बिना नहीं जी सकते। धिक्कार है तुम्हारे मानव जीवन पर
आक थू. …..

एक बकरी की व्यथा।
लेखक:- नागेंद्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
aryan_innag@yahoo.co.in

Nagendra Pratap Singh: An Advocate with 15+ years experience. A Social worker. Worked with WHO in its Intensive Pulse Polio immunisation movement at Uttar Pradesh and Bihar.
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