भगत सिंह कम्युनिस्ट नहीं थे

मित्रों जैसा कि आप जानते हैँ कि हमारे एक, जन्म से सनातनी पर कर्म से वामपंथी मित्र हैँ, जो सनातन धर्म की आलोचना करने का कोई भी मौका नहीं छोड़ते। आज उन्होंने भगत सिंह पर वामपंथियों के पुराने मिथ्या प्रवंचना और अनर्गल प्रलाप को दोहराते हुए मुझसे चर्चा और परिचर्चा करने के लिए आ गये।

हमारे वामपंथी मित्र ने छूटते हि कहना शुरु किया कि “देखो भगत सिंह जैसे क्रांतिकारी मार्क्स और लेनिन को पढ़कर नास्तिक हो गये थे और वो  कम्युनिस्ट बन गये थे। यदी तुम्हारे सनातन धर्म में जान होती तो भगत सिंह जैसा देशभक्त कम्युनिस्ट नही बनता।

मित्रों हमने अपने मित्र की बाते ध्यान से सुनी और उनसे प्रश्न किया कि, हे वामपंथी मित्र हमें बताये कि “भगत सिंह कम्युनिस्ट थे” ये बात तुम्हे किसने बताई?

वामपंथी मित्र ने तुरंत उत्तर देते हुए बताया कि अरे हमारे वामपंथी नेताओं ने बताई और यही नहीं भगत सिंह ने स्वयं एक किताब “मै नास्तिक क्यों बना” लिखकर ये बात बताई और तो और फांसी वाले दिन तक वो “लेनिन” को पढ़ रहे थे। हमने हमारे वामपंथी मित्र से पुन: प्रश्न किया हे मित्र आप बताएं कि क्या हर नास्तिक वामपंथी होता है? वामपंथी ने उत्तर देते हुए कहा नहीं यह आवश्यक नहीं कि हर नास्तिक वामपंथी हो जाये।

हमने हमारे वामपंथी मित्र को अब बलिदानियों के बलिदानी और सर्वोत्तम देशभक्तों में से एक भगत सिंह के बारे में वामपंथियों के एक एक झूठ को परत दर परत खोलना शुरु किया।

भगत सिंह ने पहली बार बन्दुक उठाई:-

ये सभी जानते हैँ कि भगत सिंह के राजनितिक गुरु ” स्व. लाला लाजपत राय” थे! लाला जी एक प्रखर हिंदूवादी नेता थे। लाला जी “हिन्दुमहासभा” के अध्यक्ष भी रह चुके थे और यह सर्वविदित है कि इसी “हिन्दु महासभा” को वामपंथी अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते थे और अब भी मानते हैँ और प्रत्येक क्षण इसकी आलोचना करते रहते हैँ।

मित्रों “पंजाब केसरी” के नाम से सुविख्यात लाला जी का जन्म पंजाब के मोगा जिले में दिनांक २८ जनवरी १८६५ को एक अग्रवाल परिवार में हुआ था। ये भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के गरम दल के प्रमुख नेताओ में से एक थे। स्व. बाल गंगाधर तिलक और स्व. बिपिन चंद्र पाल के साथ लाला जी को “लाल-बाल-पाल” के नाम से जाना जाता था। इन्हीं तीनों नेताओं ने सबसे पहले भारत में पूर्ण स्वतन्त्रता की माँग की थी बाद में समूचा देश इनके साथ हो गया। लालाजी ने  स्वामी दयानन्द सरस्वती के साथ मिलकर आर्य समाज को पंजाब में लोकप्रिय बनाया। लाला हंसराज एवं कल्याण चन्द्र दीक्षित के साथ दयानन्द एंग्लो वैदिक विद्यालयों का प्रसार किया, लोग जिन्हें आजकल डीएवी स्कूल्स व कालेज के नाम से जानते है। 

लाला जी मुसलमानों को लेकर हमेशा संशय में रहते थे, जिसका उदाहरण खलीफत आंदोलन के पश्चात, स्व. चितरंजन दास को उनके द्वारा लिखी गयी चिट्ठी से मिलता है। इस चिट्ठी को प्रियवंद ने अपनी पुस्तक “भारत विभाजन कि अंत:कथा” में  सम्मिलित किया है जिसके अनुसार लाला जी ने  श्री चितरंजन दास को चिट्ठी लिखते हुए कहा ” मैने पिछले ६ महीनें मुस्लिम इतिहास और मुस्लिम मजहबी कानून पढ़ने में गुजारे हैँ। इसके बाद मै इस निष्कर्ष पर पहुंचा हुँ कि मुस्लिम नेताओं का धर्म उनकी राह में एक तरह का रूकावट डालता है।… क्या कोई मुस्लिम नेता कुरान के खिलाफ जा सकता है?… मुझे आशंका है कि अफगानिस्तान, मध्य एशिया, अरब और टर्की के हथियार बंद गिरोह हिंदुस्तान के ७ करोड़ मुसलमानों के साथ मिलकर मुश्किल हालात पैदा कर देंगे। मै मुस्लिम नेताओं पर विश्वास करने के लिए तैयार हुँ , लेकिन क्या ये लोग कुरान और हदीस के आदेशों का विरोध कर पाएंगे।”

तो हे वामपंथी मित्र तनिक बताओ कि क्या लाला जी के इन विचारों को भगत सिंह नहीं जानते थे। क्या वो नहीं जानते थे कि लाला जी प्रखर हिंदूवादी और आर्यसमाज को पसंद करने वाले व्यक्तित्व हैँ।

दिनांक ३० अक्टूबर १९२८ को इन्होंने लाहौर में “साइमन कमीशन” के विरुद्ध आयोजित एक विशाल प्रदर्शन का नेतृत्व किया, जिसके दौरान हुए बर्बर लाठी-चार्ज में ये बुरी तरह से घायल हो गये और उस समय इन्होंने कहा था: “मेरे शरीर पर पड़ी एक-एक लाठी ब्रिटिश सरकार के ताबूत में एक-एक कील का काम करेगी।” और वही हुआ भी,  लालाजी के बलिदान के २० वर्ष के भीतर ही ब्रिटिश साम्राज्य का सूर्य अस्त हो गया। उस बर्बर लाठी चार्ज से घायल “पंजाब केसरी” दिनांक १७ नवंबर १९२८ को स्वर्गवासी हो गये।

लाला जी की इस प्रकार निर्मम और सुनियोजित हत्या से सारा देश उत्तेजित हो उठा और अपने राजीनीतिक गुरु क यह् ह्श्र देख युवा भगत सिंह के हृदय में प्रतिशोध कि ज्वाला धधक उठी और उन्होंने अपने शुरवीर साथियों चंद्रशेखर आज़ाद,  राजगुरु, सुखदेव व अन्य क्रांतिकारियों के साथ मिलकर दिनांक १७ दिसम्बर १९२८ को ब्रिटिश पुलिस के अफ़सर “सांडर्स” को गोली से उड़ा दिया। इससे स्पष्ट है की एक प्रखर हिंदूवादी और आर्यसमाज प्रेमी परम देशभक्त लाला जी को अपना राजनितिक गुरु मानने वाले भगत सिंह वामपंथी तो हो हि नहीं सकते।

हमारे वामपंथी मित्र से रहा नहीं गया और वो चित्कार उठे और बोले सुनो सनातनी नास्तिकता सदैव वामपंथ से प्रभावित होती है और यादी ऐसा नहीं होता तो भगत सिंह स्वयं को नास्तिक कैसे कहते,  वो कम्युनिस्ट @ वामपंथ के प्रभाव से हि नास्तिक हुए।हमने वामपंथी मित्र से कहा, चलो आपका ये भरम भी हम दूर कर देते हैँ। अमर बलिदानी भगत सिंह ने अपने लेख “मै नास्तिक क्यों हुँ” में स्वयं बताया है, नो निम्न प्रकार है:-

“मेरे दादा, जिनके प्रभाव में मै बड़ा हुआ, एक रूढ़िवादी आर्यसमाजी हैँ। एक आर्यसमाजी और कुछ भी हो, परन्तु नास्तिक नहीं होता। अपनी प्राथमिक शिक्षा पुरी करने के बाद मैंने डीएवी स्कूल, लहौर में प्रवेश लिया और एक साल तक उसके छात्रावास में रहा। वंहा सुबह और शाम की प्रार्थना के आलावा मै घंटो गायत्री मंत्र का जाप करता था।उन दिनों मै पुरा भक्त था। बाद मे मैने अपने पिता के साथ रहना शुरु किया। उन्ही की शिक्षा से मुझे स्वतन्त्रता के ध्येय के लिए अपने जीवन को समर्पित करने की प्रेरणा मिली। किन्तु वे नास्तिक नहीं है। ईश्वर में उनका दृढ विश्वाश है। वे मुझे पूजा प्रार्थना के लिए प्रोत्साहित करते रहते थे। इस प्रकार से मेरा पालन पोषण हुआ।“

भगत सिंह आगे लिखते हुए बताते हैँ:-

“मेरा नास्तिकतवाद कोई हाल की उत्पत्ति नहीं है” मैने ईश्वर पर विश्वाश करना तब छोड़ दिया था, जब मै एक अप्रसिद्ध नौजवान था। कम से कम एक कालेज का विद्यार्थी तो ऐसे किसी अनुचित अहंकार को पाल पोस नहीं सकता, जो उसे नास्तिकता की ओर ले जाये।“

तो हे मेरे वामपंथी मित्र भगत सिंह की नास्तिकता पर वामपंथ या कम्युनिज्म का कोई प्रभाव नहीं था। आओ मै तुम्हें भगत सिंह के क्रांतिकारी गुरु सचिंद्र नाथ सान्याल के शब्दों में यथार्थ का परिचय कराता हुँ।

शचीन्द्रनाथ सान्याल, इनका जन्म दिनांक ३ अप्रैल १८९३ में उत्तर प्रदेश के वाराणसी जिले में हुआ था। इनका स्वर्गवास दिनांक ७ फरवरी १९४२ को उत्तर प्रदेश के गोरखपुर जिले में हुआ। क्वींस कालेज (बनारस) में अपने अध्ययनकाल में उन्होंने काशी के प्रथम क्रांतिकारी दल का गठन वर्ष १९०८ में किया। वर्ष १९१३ में फ्रेंच बस्ती चंदननगर में सुविख्यात क्रांतिकारी रासबिहारी बोस से उनकी मुलाकात हुई। और फिर इन्होने इतिहास बना डाला।

भगत सिंह के क्रांतिकारी गुरु सचिंद्र नाथ सान्याल ने अपने एक लेख के द्वारा वामपंथियों के षड्यंत्र का खुलासा करते हुए बताया कि ” गदर पार्टी  के एक नेता संतोष सिंह को रूस बुलाया गया। वंहा से वे पैसा और साहित्य लेकर वापस लौटे। उन्होंने रूस से प्राप्त धन के सहारे पंजाब में किरती किसान पार्टी की स्थापना की। संतोष सिंह की तरफ से सरदार गुरूमुख सिंह ने भगत सिंह को क्रांतिकारी पार्टी से अलग करके अपने दल में लाने की भारी कोशिश की।गुरूमुख सिंह ने भगत सिंह को बहुत बार समझाया कि ” तुम बंगालियों के झांसे में मत पड़े, इनके चक्कर में पड़ोगे तो फांसी पर लटक जाओगे और कुछ भी काम नहीं कर पाओगे।” लेकिन बहुत बहकाने पर भी भगत सिंह ने हम लोगों का साथ नहीं छोड़ा। 

बाद में यही किरती ग्रुप भगत सिंह को अराजकतावादी और आतंकवादी कहता था। सोवियत संघ पोषित किरती पार्टी उन पर उठावलेपन और व्यक्तिगत दुस्साहस का आरोप लगाता था।

अभी तक के ज्ञान से वामपंथी मित्र के सिर से कम्युनिज्म का भूत अपने चरम पर पहुंच गया और वो लगभग चीखते हुए बोले , “तो क्या हमारे कम्युनिस्ट नेताओं ने जो दावा किया है, वो सब झूठ है?

हमने सोचा क्यों ना कुछ प्रमुख कम्युनिस्ट नेताओं के वक्तव्यों के द्वारा इस तथ्य को साबित कर दिया जाये। हमने कहा हे वामपंथी मित्र अब मै तुम्हे दो तत्कालीन बड़े कद के नेताओ का साक्ष्य देता हुँ:-

मित्रों कम्युनिस्टो की दुनिया में अजय कुमार घोष एक जाना माना नाम है। ये भगत सिंह के साथी थे। इनका जन्म पश्चिम बंगाल के वर्धमान जिले में दिनांक २० फरवरी १९०९ को हुआ था। ये “कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया” के वर्ष १९५१ से लेकर १९६५ तक राष्ट्रीय महासचिव रहे। इन्होने एक किताब लिखी “Bhagat Singh and his Comareds” और उसमें उन्होंने बताया कि, “ये कहना अतिश्योक्ति होगी कि भगत सिंह ने मार्कसवाद को स्वीकार कर लिया था। हमारी कम्युनिस्ट नेताओं से मुलाक़ाते होती थी, परन्तु जब हमने जाना कि कम्युनिस्ट व्यक्तिगत हथियारबंद प्रयासों को अपने आंदोलन के लिए हानिकारक समझते हैँ  तब हमने उनके साथ जाने का विचार छोड़ दिया। हम कम्युनिस्टो को क्रांतिकारी नहीं समझते थे। हमारी दृष्टि में क्रांति का अर्थ था सशस्त्र कार्यवाही।”

अब भगत सिंह का वो क्रांतिकारी साथी जो बाद में चलकर कम्युनिस्टो की प्रति का महासचिव बना, स्वयं इस तथ्य को स्वीकार कर रहा है कि उसने और भगत सिंह ने कम्युनिस्टो को अपना साथी नहीं बनाया क्योंकि उनकी दृष्टि में कम्युनिस्ट क्रांतिकारी नहीं थे।

मित्रों मैने सोचा की वामपंथ के झूठ को और उजागर किया जाये और इसीलिए मैने यंहा “भगत सिंह- एक ज्वलन्त इतिहास” नामक किताब को  संदर्भित किया है। इस किताब को डॉ हंसराज रहबर ने लिखा है।

डॉ हंसराज रहबर (1913-23 जुलाई 1994) हिन्दी और उर्दू के महत्त्वपूर्ण लेखक, कवि और आलोचक थे। इन्होने अपनी किताब “भगत सिंह- एक ज्वलन्त इतिहास” में स्पष्ट रूप से बताया कि “कम्युनिस्ट नेताओं ने यह झूठ फैलाया कि भगत सिंह और उनके साथी जेल में मार्कसवाद पढ़कर क्रांतिकारी बने और कम्युनिस्ट पार्टी में आ गये। कम्युनिस्ट नेताओं कि कठानी और करनी में जो अंतर था, भगत सिंह और उनके साथियों ने अच्छी तरह समझ लिया था। इसलिए वे कभी कम्युनिस्ट पार्टी  में शामिल नहीं हुए। कम्युनिस्ट नेताओं ने भगत सिंह और उनके साथियों की ख्याति का लाभ अवश्य उठाया, पर अपनी जवानियाँ स्वतन्त्रता की बली बेदी पर धुपबत्ती की तरह जलाकर उन्होंने क्रांति का जो मार्ग प्रसष्त किया था, कम्युनिस्ट नेताओं में उन पर चलने का ना तो साहस था और ना बुद्धि थी। हुआ ये कि भगत सिंह के जो भी साथी जेलों से रिहा होकर  कम्युनिस्ट पार्टी में आये, उन्होंने भी क्रांति की भूमिका नहीं निभाई, बल्कि नमक के खान में आकर स्वयं भी नमक बन गये।”

मित्रों अब एक ऐसे व्यक्ति के विचारों से आपको अवगत कराता  हुँ, जिसके बारे में ये वामपंथी कुछ भी काला काला नहीं बोल सकते। यशपाल (३ दिसम्बर १९०३ – २६ दिसम्बर १९७६) हिन्दी साहित्य के प्रेमचंदोत्तर युगीन कथाकार हैं। ये विद्यार्थी जीवन से ही क्रांतिकारी आन्दोलन से जुड़े थे। इन्हें साहित्य एवं शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार द्वारा सन् १९७० में पद्म भूषण से सम्मानित किया गया।

लाहौर आने पर यशपाल नेशनल कॉलेज में भगतसिंह, सुखदेव और भगवतीचरण बोहरा के संपर्क में आए। यशपाल जी ने अपनी पुस्तक “सिंहावलोकन” में लिखा है कि ” चंद्रशेखर आज़ाद और भगत सिंह आज जिंदा होते तो उनकी तत्काल प्रवृत्ति के अनुसार उनके लिए कांग्रेस में कोई स्थान नहीं होता। भगत और आज़ाद कम्युनिस्ट पार्टी से पूर्णतया सहमत हो जाते ये भी मै पूर्ण विश्वाश के साथ नहीं कह सकता। मै स्वयं भी समाजवादी लक्ष्य को मानने के बाद भी कम्युनिस्ट पार्टी में सम्मिलित नहीं हो सका।”

वामपंथी मित्र एक हारे हुए जुआरी की तरह खिझ कर बोले यदि ये सत्य है तो फिर वो लेनिन से इतने प्रभावित क्यों थे?

: हमने भी अब स्वयं भगत सिंह के द्वारा अदालत में  दिये गये बयान का उल्लेख करते हुए वामपंथी को बताया कि ९ जुन् १९२९ को अदालत में दिये गये अपने बयान में भगत सिंह ने कहा था “हिंसा भले हि नैतिक तौर पर अनुचित है पर जब ये सही उद्देश्य के लिए इस्तेमाल की जाये तो ये नैतिक रूप से उचित होती है। इसकी प्रेरणा हमें गुरु गोविंद सिंह, शिवाजी, कमाल पाशा, रिजा खान, वाशिंगटन, गारबाल्डी, लफेती और लेनिन से मिली है।”

ये बयान सिद्ध करता है कि भगत सिंह केवल लेनिन से नहीं अपितु गुरु गोविंद और  छत्रपति शिवाजी महाराज जैसे भारतवर्ष के परमवीर सपूतों से अधिक प्रभावित थे। भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव अपने अंत समय में पंडित राम प्रसाद बिस्मिल द्वारा रचित देशभक्ति गीत “मेरा रंग दे बसंती चोला, माही रंग दे” पूरे हृदय से गा रहे थे। और ये बसंती रंग उसी भगवा से प्रेरणा लेता था, जिसके लिए महाराणा प्रताप, छत्रपति शिवाजी, गुरु गोविंद सिंह, रानी लक्ष्मी बाई और तात्या टोपे इत्यादि भारत माता के वीर सपुतो ने अपना सर्वश्य बलिदान कर दिया।

Nagendra Pratap Singh: An Advocate with 15+ years experience. A Social worker. Worked with WHO in its Intensive Pulse Polio immunisation movement at Uttar Pradesh and Bihar.
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