स्वर्ण पदक अपना: भारतीय हॉकी का अधूरा सपना

और इस तरह एक और हॉकी विश्व कप का समापन हो गया। जर्मनी ने बेल्जियम को शूटआउट में हराकर तीसरी बार विश्व कप जीत लिया परंतु भारत का विश्व कप का दशकों लंबा इंतजार इस बार भी खत्म नही हुआ। वैसे तो इस टूर्नामेंट में भी भारत का ओवरऑल प्रदर्शन निराशाजनक ही रहा परंतु न्यूज़ीलैंड से मिली करारी हार भारत को बहुत भारी पड़ी और शायद बहुत लंबे समय तक यह कड़ुवाहट भरी हार  याद भी रहने वाली है।

 भारत ने इस निर्णायक मैच में अपने इतने शर्मनाक प्रदर्शन के बारे में कल्पना भी नहीं होगी। स्थितियां इससे अनुकूल पहले कभी नहीं रही थीं। दशकों बाद मिले ओलंपिक कांस्य पदक का आत्मविश्वास, न्यूज़ीलैंड के मुकाबले बहुत अच्छी रैंकिंग, न्यूज़ीलैंड का अपना प्रदर्शन,  भुवनेश्वर के कलिंग स्टेडियम और देश के का करोड़ों दर्शकों का उत्साहवर्धन; पर उस दिन कुछ भी भारत के खिलाड़ियों का हौसला नहीं बढ़ा पाया और अंततः एक सामान्य क्लब स्तर का खेल दिखाकर भारत 9वें स्थान पर खिसक गया।

वर्ल्ड कप के भारत के इतिहास को देखें तो इसमें सिवाय निराशा के कुछ नही दिखाई देता। यह प्रश्न हमेशा अनुत्तरित रहा है कि आखिरी बार सन 1974 के स्वर्ण पदक के बाद भारत क्यों कभी इसे दुबारा नहीं जीत पाया? आइये, जानने की कोशिश करते हैं।

घास और एस्ट्रोटर्फ का अंतर

जब तक हॉकी सही मायनों में फील्ड हॉकी रही अर्थात प्राकृतिक घास पर खेली जाती रही, और जब तक विश्व युद्धों के चलते विकसित और पश्चिमी देशों ने हॉकी की ओर ध्यान नहीं  दिया, भारत ने सन 1928 से 1964 तक हॉकी पर लगभग एकछत्र राज किया और हॉकी के 8  ओलंपिक स्वर्ण पदक समेट लिए। परंतु जैसे ही इन देशों ने हॉकी को संजीदगी से लेना प्रारंभ किया, भारत की हॉकी के पतन के दिन ऐसे प्रारंभ हुए, जो आज तक जारी हैं।

भारत ने आज से लगभग 50 साल पहले 1974 में कुआलालंपुर के विश्वकप में एकलौता स्वर्णकप जीता और ओलंपिक हॉकी का स्वर्ण पदक आखिरी बार 1980 के  मॉस्को खेलों जीता था। 1976 में जब हॉकी प्राकृतिक घास के बजाय एस्ट्रो टर्फ पर अनिवार्य कर दी गई, भारत के लिए ये दो सबसे प्रतिष्ठित टूर्नामेंट दुःस्वप्न बन गए और तब से एक स्वर्ण पदक की आस में भारत का एक नवजात शिशु भी आज पूर्ण प्रौढ़ हो चुका है।

उस समय से आज तक भारत की हॉकी अपने उस स्वर्णिम दौर को छू भी नहीं पाई है। लगभग 100 साल पहले जब भारत ने हॉकी का पहला ओलंपिक स्वर्ण पदक जब सन 1928 में जीता तो वह भारतीय हॉकी के स्वर्णिम युग का आगाज़ था और यह चमक अगले चार दशकों तक जारी रही थी। सन 1964 से भारतीय हॉकी की  बादशाहत ढलान पर चल पड़ी और भारत की हॉकी राज का सूर्य 1980 में लगभग अस्त हो गया। उसके बाद तो भारत की हॉकी की इस हद तक दुर्दशा हुई कि ओलंपिक तो छोड़ ही दीजिये, भारत एशियाई हॉकी में भी शक्ति नहीं रहा। तब से 18  साल बाद भारत ने एशियाई खेलों में स्वर्ण पदक जीता। यद्यपि भारत ने उसके बाद एशियाई स्तर की हॉकी में कुछ अच्छा प्रदर्शन किया, परंतु आज भी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत का प्रदर्शन बौनों जैसा ही है।

नई हॉकी के सूत्रधार: नवीन पटनायक

इस विश्व कप में भारत के इस दोयम दर्जे के प्रदर्शन से आज सबसे ज्यादा निराश भारत की इस नए युग की हॉकी  के जनक, नवीन पटनायक होंगे। नवीन पटनायक ही भारतीय हॉकी के इस नवजीवन के सूत्रधार हैं परंतु नवीन पटनायक आज के हाई प्रोफाइल राजनीतिज्ञों जैसे ढ़िढोरा नहीं पीटते जिसमें  भारत के प्रधानमंत्री तक भी पीछे नहीं हटते।

बहुत कम लोगों को ज्ञात होगा कि कई सालों से नवीन पटनायक बिना कोई शोरगुल मचाये भारत में हर तरह की हॉकी को प्रमोट करने के लिए प्रयासरत हैं। वह चाहे पुरुष हॉकी हो या फिर जूनियर अथवा महिला हॉकी, नवीन पटनायक ने अपने अकेले दम पर करोड़ों  मूल्य के स्पॉन्सरशिप के साथ हमेशा हॉकी को बढ़ावा दिया है। नवीन पटनायक के प्रयासों का ही परिणाम है कि भारत समय समय पर अंतरराष्ट्रीय हॉकी टूर्नामेंट आयोजित करता रहा है। वह चाहे चैंपियंस ट्रॉफी हो या फिर विश्व कप। यह नवीन पटनायक के ही प्रयास थे कि भारत लगातार 2018 और 2023 में विश्व कप आयोजित कर पाया है भारत में हॉकी की इस पुनर्जीवित लोकप्रियता को देखकर ही बेल्जियम के खिलाड़ी इलियट वैन स्ट्रेडोंक खिसियाकर यहां तक बोल गए कि भारत पैसे की ताकत के बदौलत पिछले चार में से 3 विश्व कप अपने देश में करवा पा रहा है क्योंकि भारत ही वह देश है जो अपने स्टेडियम दर्शकों से भरवा पाता है। यद्यपि यह बात उन्होंने निराशा में कही थी परंतु उनका कथन नवीन पटनायक के प्रयासों की कहानी भी बताता है।

हॉकी इंडिया के पास आज न पैसे की कोई कमी है और न ही इंफ्रास्ट्रक्चर की।आज बस कमी है तो टैलेंट की। कुछ लोगों को यह कथन खल सकता है परंतु सत्य शायद यही है। भारत के इस विश्व कप में प्रदर्शन को ही देख लीजिए। यह टीम किसी भी प्रकार से इस टूर्नामेंट को जीतने के लिए प्रतिबद्ध नहीं दिखी। किसी प्रकार से राउंड रॉबिन लीग में वेल्स जैसी टीम से जीतने के बाद जब न्यूज़ीलैंड से प्ले ऑफ का मैच हुआ तो भारत का शर्मनाक प्रदर्शन देखकर अफसोस तो हुआ ही; आश्चर्य भी कि इस टीम ने 2020 का ओलंपिक कांस्य पदक कैसे जीत लिया होगा?

न्यूज़ीलैंड से हार

भारत वरीयता में न्यूज़ीलैंड से 5 स्थान ऊपर 6वें रैंक पर तो था ही, समर्थकों का अपार हुजूम भी अपनी टीम के साथ था।  एक विश्व स्तरीय चैंपियन टीम इतने महत्वपूर्ण टूर्नामेंट में एक दोयम दर्जे की टीम को अपनी लीड यूं ही नहीं गवां देती। भारत ने 3-1 की बढ़त के बाद न्यूज़ीलैंड को बराबरी पर आने का मौका दे दिया और फिर उसके बाद तो मैच ही गवां बैठे। किसी भी विश्व स्तर की टीम में ऐसे खिलाड़ी नहीं होते जैसे भारत के मौजूदा टीम में हैं। साधारण स्तर के खिलाड़ी ही 10 पेनाल्टी कॉर्नर बर्बाद करते हैं। और उस टीम के लिए तो क्या ही कहना जिसके खिलाड़ी अपने घरेलू मैदान में खेलने को अपनी  शक्ति मानने के बजाय एक दबाव मानते हों।

 भारत के दिशाहीन खेल का फायदा जहां न्यूज़ीलैंड ने बराबरी में आने के लिए किया ही वहीं दबाव में अभिषेक और शमशेर शूटआउट ही नहीं कर पाए। और हरमनप्रीत ने तो एक क्लब स्तरीय खिलाड़ी की भांति सीधे-सीधे न्यूज़ीलैंड के गोलकीपर के पैड पर ही बॉल दे दी। और  श्रीजेश के रिटायर हर्ट होने के बाद बाद कृष्ण पाठक जो गोलकीपर के तौर पर आए, ऐसा लगा कि जैसे वह बाग में घूमने आए हों। इस प्रकार के साधारण खिलाड़ियों से हम विश्वकप जीतने की आशा कर ही नहीं सकते थे। सनद रहे, बेल्जियम जैसा देश जो भारत से जनसंख्या में लगभग 150 गुना कम और क्षेत्रफल में लगभग 100 गुना छोटा है, पर वह आज ट्रेनिंग और टैलेंट के चलते नंबर 2 पर है ।

कैसे सुधरे अपनी हॉकी?

भारत को भी अपनी हॉकी गुणवत्ता को बढ़ाने के लिए कई कदम उठाने होंगे। कुछ कदम कड़वे हो सकते हैं पर वह नितांत आवश्यक हैं:

1. मौजूदा टीम में लगभग 50 प्रतिशत खिलाड़ी या तो शारीरिक तौर पर कमजोर हैं या फिर मानसिक रूप से। खेल  के उच्चतम स्तर पर खेल कौशल के साथ साथ शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत होना आवश्यक है और भारत के खिलाड़ी दबाव में आते ही बिखर जाते हैं। ऐसे खिलाड़ियों को हटाया जाना चाहिए।

2. टर्फ में हॉकी होने से खेल की रफ्तार बहुत तेज हो गई है। एशियाई देशों के खिलाड़ी यूरोपियन खिलाड़ियों की तरह तेज भाग नहीं पाते। इसका उपाय यह है कि भारत को अपनी शैली की हॉकी विकसित करनी चाहिए जिसके लिए विदेशी कोच की छुट्टी हो और भारत के पूर्व हॉकी खिलाड़ी इस काम में नियुक्त किये जायें।

3. भारत की टीम जब इस विश्व कप से बाहर हो गई तो एकदम मुक्त होकर खेली । न्यूज़ीलैंड से हारने के बाद,  जापान और दक्षिण अफ्रीका को जिस तरह से भारत ने हराया उससे सिद्ध हो गया कि भारतीय टीम की समस्या शारीरिक से ज्यादा मानसिक है। इसलिए जरूरी है कि टीम के खिलाड़ियों की जूनियर लेवल से ही साइकोलॉजिकल काउंसलिंग होनी चाहिए। उनके अंदर यह भाव भरा जाना चाहिए कि वह ऑस्ट्रेलिया या फिर किसी भी विदेशी टीम को हरा सकते हैं।

4.  भारत की हॉकी लीग का चेहरा और बड़ा होना चाहिए ताकि उससे नई टीम बनाई जा सके और नया टेलेंट सामने आ सके। जब बेल्जियम या ऑस्ट्रेलिया जैसे छोटे देश विश्व विजयी टीम बना सकते हैं और शीर्ष पर बने रह सकते हैं, तो भारत के पास इस प्रकार की साधारण टीम का होना चिंताजनक है जबकि भारत के पास संसाधन भी हैं, धन भी है, जनसंख्या भी है और इस खेल का गौरवमय इतिहास भी है।

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