श्रद्धा के हुए टुकड़ो का कौन जिम्मेदार?

जी हाँ मित्रों, जब से ये जघन्य और हैवानियत की पराकाष्ठा को पार कर जाने वाली शैतानी घटना प्रकाश में आयी है, मैं इस संदर्भ में सोच सोच कर परेशान हूँ कि आखिर श्रद्धा के अस्तित्व को टुकड़ो में विभक्त होने वाली प्रक्रिया का जिम्मेदार किसे ठहराया जाए। आइये तनिक इस पर विचार विमर्श कर लेते हैं।

१:-जी हाँ मित्रों, जैसा कि आप इस तथ्य से भली भांति अवगत होंगे इस ब्रहाण्ड कि एक मात्र जीवित सबसे प्राचीन सभ्यता “सनातन सभ्यता” (जिसे “वैदिक सभ्यता” के नाम से भी जाना जाता है) पितृ प्रधान होते हुए मातृ प्रधान सभ्यता थी और है। और इसीलिए हम अपने आराध्यों कि जब भी स्तुति करते हैं तो उन्हें गौरीशंकर, लक्ष्मीनारायण,सीताराम और राधेश्याम इत्यादि से सम्बोधित और उच्चारित करते हैं। इसी प्रकार हमारे धार्मिक पुस्तकों में भी अक्सर ये तथ्य मिल जाते हैं कि, जब भी देवताओं पर असुरो, दानव वंशियो या राक्षसों ने अपना वर्चस्व स्थापित कि तो उनकी रक्षा करने हेतु माता को हि युद्ध में भाग लेना पड़ा। महिशासुर, रक्तबीज और मधु कैटभ जैसे अनगिनत उदाहरण आपको सरलता से उपलब्ध हो जाएँगे।

२:- इतिहास साक्षी है कि, भारतवर्ष में महारानी कैकेयी (जिन्होंने महाराज दशरथ के साथ मिलकर युद्ध में भाग लिया था), माता सावित्री(जिन्होंने अपने पति के प्राण की रक्षा करने हेतु स्वय यमराज से भी शास्त्रार्थ किया था), महर्षिनि गार्गी (जिन्होंने ऋषि याज्ञवल्क के साथ शास्त्रार्थ किया था) , विद्योतमा (जिन्होंने अज्ञानी कालिदास को दुनिया के सर्वश्रेष्ठ कवि कालिदास में परिवर्तित कर दिया), रत्नावली (जिन्होंने साधारण से तुलसीदास को गोस्वामी तुलसीदास में बदल दिया), तथा मीराबाई (जिन्होंने प्रभु प्रेम की अद्भुत प्रभाव पैदा किया), जैसी अनेक विभूतियों ने जन्म लिया। यदि थोड़ा सा और आगे चलें तो पन्ना धाय, रानी पदमिनी, रानी दुर्गावती, हांडी रानी, महारानी अहिल्याबाई होल्कर, माता जीजाबाई, तथा झाँसी की रानी इत्यादि जैसी महान और त्यागमूर्तियों ने इस धरा पर जन्म लिया। और थोड़ा आगे चलें तो सावित्री बाई फुले, कस्तूरबा गाँधी, दुर्गा भाभी, मैडम कामा, सरोजनि नायडू तथा आज़ाद हिंद फ़ौज में अग्रिम भूमिका निभाने वाली मातृ शक्तियों ने इस धरा पर जन्म लिया।

३:- मित्रों उपर्युक्त उदाहरण मैंने इसलिए दिया कि आज भी हमारे सनातन समाज में मातृ शक्ति प्रधान है और ये इसीलिए है क्योंकि हमारे समाज ने इन्हें नारी या स्त्री के रूप में स्थान दिया। हमने कभी भी इन्हें “औरत” के रूप में देखने का प्रयास नहीं किया। अब आप सोच रहे होंगे कि, आखिर “नारी और औरत” में क्या अंतर है? तो मित्रों आइये इस अंतर को समझने का प्रयास करते हैं।

“औरत” शब्द की उत्पत्ति अरबी भाषा के “अवरात” शब्द से हुई है जिसे उर्दू में “औरत” कहा जाता है। “अवरात या औरत” सुनिश्चित और स्पष्ट अर्थ है pudenda या vagina (वैजाइना) या vulva या woman’s external genitals जिसे हिंदी में “योनि” कहते हैं, तो औरत को वैजाइना यानि “योनि” की ही संज्ञा दी गई है। अर्थात नारियो को उक्त तथाकथित समाज में औरत यानि योनि धारण करने वाले जीव के रूप में देखा जाता है। आप स्वय सोच सकते हैं जो समाज मानव प्रजाति की मादा को केवल योनि धारण करने वाले जीव के रूप में देखता है, उस समाज में इनका कैसा स्थान होगा।

“नारी या स्त्री”- “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः”। मनुस्मृति के इस श्लोक स्पष्ट हो जाता है कि, सनातन समाज में मानव के मादा स्वरूप को क्या स्थान प्रदान किया गया है। इस श्लोक का सरलतम अर्थ है कि “जहाँ नारी की पूजा होती है वही देवताओं का वास होता है।” “नर” शब्द का स्त्रीलिंग है “नारी” अर्थात जो नर का साथ दे वो नारी। हमारे यंहा “अर्धनारीश्वर” के रूप में भी ईश्वर की आराधना की जाती है। इसी प्रकार “स्त्री” भी एक संस्कृत का शब्द है जो शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गंध का समुच्चय है। अत: हम सनातन धर्मी इसीलिए अपनी अर्धांगिनी अर्थात पत्नी को छोड़कर अन्य सभी को या तो माँ, या बहन या बेटी के रूप में ही देखते हैं और उनके प्रति उचित और समुचित सम्मान दर्शाते हैं।

४:- मित्रों सनातन धर्म में विवाह या शादी , निकाह के सदृष्य कोई करार या संविदा या Contract नहीं होता। सनातन धर्म में विवाह को सोलह संस्कारों में से एक संस्कार माना गया है। विवाह = वि + वाह, अत: इसका शाब्दिक अर्थ है – विशेष रूप से (उत्तरदायित्व का) वहन करना। पाणिग्रहण संस्कार को सामान्य रूप से सनातन या हिंदू विवाह के नाम से जाना जाता है।

अन्य धर्मों में विवाह, निकाह या Marriage के रूप में पति और पत्नी के बीच एक प्रकार का करार होता है जिसे कि विशेष परिस्थितियों में तोड़ा भी जा सकता है परंतु हिंदू विवाह पति और पत्नी क बीच जन्म-जन्मांतरों का सम्बंध होता है, जिसे किसी भी परिस्थिति में नहीं तोड़ा जा सकता। अग्नि के सात फेरे ले कर और ध्रुव तारा को साक्षी मान कर दो तन, मन तथा आत्मा एक पवित्र बंधन में बंध जाते हैं तथा सात जन्मो के लिए पति और पत्नी के रूप में एक हो जाते हैं । हिंदू विवाह में पति और पत्नी के बीच शारीरिक संम्बंध से अधिक आत्मिक संम्बंध होता है और इस संम्बंध को अत्यंत पवित्र माना गया है।

न गृहं गृहमित्याहुः गृहणी गृहमुच्यते।
गृहं हि गृहिणीहीनं अरण्यं सदृशं मतम्।

जब तक घर में गृहणी नहीं हो वह घर नहीं बल्कि जंगल कहलाता है इसलिए घर में गृहणी का होना आवश्यक होता है।

सनातन या हिन्दू विवाह में ना केवल वर और वधू एक होते हैं, अपितु दो एक दूसरे से अनजान कुटुंब भी एक सूत्र में बंध जाते हैं। अग्नि को साक्षी मानकर लिए गए सात फेरे और एक दूसरे के साथ किये गए सात वादे अगले सात जन्म तक उनको एक दूसरे के जीवन साथी के रूप में स्थापित कर देते हैं, जो कई पवित्र संस्कारो से अच्छादित रहते हैं।

५:- अब वापस आते हैं श्रद्धा के जीवन शैली पर। एक बेटी जब किसी सनातन धर्मी कुटुंब में जन्म लेती है तो उसके जन्म के साथ हि एक नए कुटुंब के अस्तित्व की नीव भी पड़ जाती है, इसीलिए बेटियों को बेटों से कंही अधिक संस्कार और देख भाल के वातावरण में पाला पोसा जाता है। माता पिता और विशेषकर पिता अपनी बेटियों की हर व्यक्त अव्यक्त इच्छा को अपनी यथाशक्ति के अनुसार पूरा करने का अपना समग्र प्रयास करता है। बेटे जिन वस्तुओ को प्राप्त करने का आग्रह अपने पिता से करने में डरते हैं, उन्हीं वस्तुओ को पिता स्वय अपनी बेटी से पुछ्कर बिन मांगे उन्हें लाकर दे देते हैं।

ऐसे ही पिता होंगे श्रद्धा के, क्योंकि उन्होंने श्रद्धा को इतनी स्वतन्त्रता आधुनिकता और आज़ाद ख्यालात का होने की आड़ में दे दी थी की श्रद्धा ने ना केवल एक विधर्मी से प्रेम बंधन में बन्धना स्वीकार कर लिया अपितु “Live इन” जैसी एक पापयुक्त व्यवस्था में रहना भी स्वीकार कर लिया। मैं इस तथ्य को स्वीकार करने के लिए कभी तैयार नहीं होऊंगा की श्रद्धा के पिता ने अपनी बेटी को ऐसा कदम उठाने से रोका नहीं होगा, उन्होंने अवश्य रोका होगा, परन्तु आधुनिकता और आज़ाद ख्याली के अंधकारयुक्त दुनिया के झूठे आडम्बरपूर्ण आवरण में स्वयम को ढक चुकी श्रद्धा के कानों में उनकी आवाज पहुंची ही नहीं होगी।

अब आप स्वय सोचिए एक विधर्मी जो एक ऐसे समाज का हिस्सा है जो स्त्री को औरत (अर्थात योनि को धारण करने वाले जीव के) रूप में देखता है, वो विधर्मी भला प्रेम, त्याग, करुणा या परिवारिक जीवन को क्या समझेगा। जो समाज महीने भर एक जीव को पालता है पोसता है और एक नियत तारीख को उसी जीव का गला रेत कर हत्या कर देता है, ऐसा समाज का व्यक्ति एक काफिर के बेटी की प्रेम भावना को कैसे सम्मान दे पायेगा वो भी तब जब उसके ऊपर इससे सम्बन्धित कोई समाजिक दवाब भी नहीं है।

६:- श्रद्धा आज के परिवेश से भली भांति परिचित थी। श्रद्धा के ऊपर उस विधर्मी के झूठे प्रेम का इतना प्रभाव था कि उसने अपने माता पिता के १८ वर्षो के त्याग, प्रेम, करुणा और समर्पण को लात मारकर एक ऐसे व्यक्ति के साथ बिना शादी या निकाह के “लीव इन” रहना स्वीकार लिया जिसे वो मात्र कुछ महीनो या एक दो वर्षो से हि जानती थी।

संगः सर्वात्मना त्याज्यः स चेत्कर्तुं न शक्यते ।
स सिद्धिः सह कर्तव्यः सन्तः संगस्य भेषजम् ॥

कुसंग का त्याग पूर्णरुप से करना चाहिए वह अगर शक्य नहीं है। सज्जन का संग करना चाहिए क्यों कि सज्जन संग का औषधि है ।

श्रद्धा को उस विधर्मी के चरित्र के असलियत के बारे में परिस्थितियों ने समय समय पर सावधान किया था और सबसे बड़ा साक्ष्य तो उस समय का है, जब श्रद्धा को ना केवल उस विधर्मी ने जानवर समझकर वहशियना तरीके से पीटा था अपितु उसका गला दबा कर उसकी हत्या करने का प्रयास किया था। श्रद्धा ने इस अपराध के लिए फरियाद भी सम्बन्धित पुलिस ठाणे में दर्ज करायी थी। पर इससे पहले की कार्यवाही होती श्रद्धा ने एक बार फिर उस विधर्मी के माँ बाप के कहने पर ना केवल एक और मौका दिया बल्कि स्वय की हत्या का प्रयास करने वाले दानव के हवाले कर दिया और परिणाम सबके सामने है।

७:- मित्रों आज श्रद्धा ३५ टुकड़ो में विभक्त हो चुकी है, और उसके शरीर के टुकड़े ना जाने कैसे कैसे जीवो का निवाला बन चुके होंगे। आज श्रद्धा जंहा भी होगी, वो अवश्य सोच रही होगी कि कैसे उसके माँ बाप ने उसके द्वारा उठाए गए आत्मघाति का विरोध करते हुए उसे ऐसा ना करने के लिए समझाया था, कैसे उसके द्वारा उसके हत्यारे विधर्मी के साथ Live in अवस्था में रहना शुरू करने के कारण, उसके माँ बाप का शीश उनके अपने समाज में शर्म से झुक गया था और कैसे वो अपने माँ बाप को तडफता छोडकर एक दानव के साथ रहने चली आयी थी।

काश श्रद्धा को शास्त्रों द्वारा दिया गया संकेत समझ में आ जाता, जो निम्नलिखित है:-

आरम्भगुर्वी क्षयिणी क्रमेण, लघ्वी पुरा वृद्धिमती च पश्चात्।
दिनस्य पूर्वार्द्धपरार्द्धभिन्ना, छायेव मैत्री खलसज्जनानाम्॥

दुर्जन की मित्रता शुरुआत में बड़ी अच्छी होती है और क्रमशः कम होने वाली होती है। सज्जन व्यक्ति की मित्रता पहले कम और बाद में बढ़ने वाली होती है। इस प्रकार से दिन के पूर्वार्ध और परार्ध में अलग-अलग दिखने वाली छाया के जैसी दुर्जन और सज्जनों व्यक्तियों की मित्रता होती है।

८:- आज आधुनिकता और आज़ाद ख्याली के नाम पर अंधकार फैलाने और समाज को कलंकित करने वाले लोगों का समूह उस विधर्मी श्रद्धा के हत्यारे के प्रति बड़ी हि बेशर्मी से सहानुभूति प्रदर्शित करता हुआ दिखाई देता है और कुछ बेशर्म तो इतने बीमार मानसिकता के हैं कि इस अपराध को दुर्घटना बता कर पल्ला झाड़ने का प्रयास करते हुए दिखाई देते हैं।

अत: अब भी वक़्त है, हम सनातन धर्मी समाज को अपने बच्चों विशेषकर अपनी बेटियों में अत्यंत ही सावधानी से संस्कारो का बीजारोपण करना चाहिए, उन्हें अपने समाज और विधर्मी लोगों के समाज के मध्य के समाजिक अंतर को गहनता से समझाना होगा, ताकि वो विधर्मीयों की धूर्तता, मक्कारी और फरेब के साथ साथ उनके रगो में दौड़ती हुई हैवानियत से अपने जीवन की सुरक्षा कर सके।

सर्वतीर्थमयी माता सर्वदेवमयः पिता।
मातरं पितरं तस्मात् सर्वयत्नेन पूजयेत् ।।

अर्थात: मनुष्य के लिये उसकी माता सभी तीर्थों के समान तथा पिता सभी देवताओं के समान पूजनीय होते है। अतः उसका यह परम् कर्तव्य है कि वह् उनका अच्छे से आदर और सेवा करे।

जिस दिन बच्चो विशेषकर बेटियों के अंदर ये संस्कार मजबूती से अपनी पकड़ बना लेंगे, उस दिन से फिर कोई श्रद्धा अपने माँ बाप का त्याग कर किसी विधर्मी के हाथो यूँ स्वय का बलिदान नहीं करेगी।

Nagendra Pratap Singh: An Advocate with 15+ years experience. A Social worker. Worked with WHO in its Intensive Pulse Polio immunisation movement at Uttar Pradesh and Bihar.
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