अनावश्यक रूप से की गयी गिरफ्तारी, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बाधित करती है

मित्रो अक्सर ही हमें देखने और सुनने में आता है की पुलिस के अधिकारी आते हैं और किसी व्यक्ति को उसके घर से उठा ले जाते हैं, और २ या तीन इस उससे भी अधिक दिनों तक अपनी अवैध हिरासत में रखने के बाद उसकी गिरफतारी दिखते हैं और न्यायालय में प्रस्तुत करते हैं। ऐसे भी प्रकरण हमारे सामने आते हैं की अमुक व्यक्ति को पूछताछ करने हेतु फोन करके बुलाया जाता है, उसे सम्मन भी है भेजा जाता और पुलिस स्टेशन पहुंचने पर उस व्यक्ति को गिरफ्तार कर लिया जाता है। मित्रो परिस्थितियां कोई भी हों पर यदि समाज  के प्रतिष्ठित व्यक्ति जैसे किसी वकील या डाक्टर या इंजिनियर या आर्किटेक्ट या व्यवसायी को यदि उपरोक्त परिस्थितियों में गिरफ्तार कर लिया जाता है, तब और कुछ हो न हो पर उस व्यक्ति की समाजिक प्रतिष्ठा तो धूल में मिल जाती है। क्योंकि पुलिस हिरासत से या न्यायालय से बाइज्जत बरी हो जाने के पश्चात भी व्यक्ति को फिर उसी रूप में समाज स्वीकार नहीं कर पाता है।

इसी वाकये से समबन्धित एक महत्वपूर्ण मामला था Joginder Kumar vs State Of U.P (on 25 April 1994, (1994 AIR 1349), 1994 SCC (4) 260) इसमें आदरणीय न्यायालय ने इसी मुद्दे पर गंभीरता से विचार करते हुए व्यक्तियों के गिरफतारी के संदर्भ में कुछ दिशा निर्देश जारी किये पर आइये सर्वप्रथम हम इस मामले के पृष्ठभूमि पर गौर करते हैं।

इस मामले में  याचिकाकर्ता २८ वर्ष का एक युवक है जिसने अपना एलएलबी पूरा करके खुद को एक वकील के रूप में नामांकित किया है। वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, गाजियाबाद, (प्रतिवादी ४) ने किसी मामले में पूछताछ करने के लिए याचिकाकर्ता को अपने कार्यालय में बुलाया। याचिकाकर्ता  दिनांक ७ -१-१९९४  को लगभग १० बजे अपने भाइयों श्री मांगेराम चौधरी, नाहर सिंह यादव, हरिंदर सिंह तेवतिया, अमर सिंह और अन्य के साथ व्यक्तिगत रूप से वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक, गाजियाबाद, के समक्ष उपस्थित हुए। अधीक्षक साहेब ने याचिकाकर्ता को अपनी हिरासत में ले लिया। जब याचिकाकर्ता के भाई ने याचिकाकर्ता के बारे में पूछताछ की तो झूठ बोला गया कि याचिकाकर्ता को एक मामले के संबंध में कुछ पूछताछ करने के बाद शाम को छोड़ दिया जाएगा।

दिनांक ७-१ -१९९४  को लगभग १२.५५  बजे, याचिकाकर्ता के भाई को पुलिस अधीक्षक साहेब के  इरादों पर शंका हुई अत: उसने  उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री को एक तार भेजकर अपने भाई को किसी आपराधिक मामले में फंसाने और याचिकाकर्ता को फर्जी मुठभेड़ में मारे जाने की आशंका से अवगत कराया। लगातार पूछताछ के बावजूद, याचिकाकर्ता का ठिकाना नहीं मिल सका। दिनांक ७ -१ – १९९४  की शाम को पता चला कि याचिकाकर्ता को प्रतिवादी संख्या ५ एसएचओ, पीएस की अवैध हिरासत में मसूरी में रखा गया है।

दिनांक ८ -१ -१९९४ को, यह सूचित किया गया कि एसएचओ, पीएस मसूरी ने याचिकाकर्ता को किसी मामले में आगे पूछताछ करने के लिए अपने हिरासत में रखा है। गिरफ्तार करने के पश्चात  याचिकाकर्ता को संबंधित मजिस्ट्रेट के समक्ष पेश करने के स्थान पर एसएचओ, पीएस मसूरी ने याचिकाकर्ता के रिश्तेदारों को याचिकाकर्ता की रिहाई के लिए पुलिस अधीक्षक साहेब, गाजियाबाद से संपर्क करने का निर्देश दिया।

दिनांक ९ -१ -१९९४ को शाम के समय जब याची का भाई अपने सम्बन्धियों सहित मसूरी में स्थित थाने में अपने भाई का हालचाल पूछने गया तो पता चला कि याचिकाकर्ता को किसी अज्ञात स्थान पर ले जाया गया है। इन परिस्थितियों में, यहां याचिकाकर्ता जोगिंदर कुमार की रिहाई के लिए वर्तमान याचिका को न्याय पटल पर प्रेषित किया गया।

उक्त वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक याचिकाकर्ता सहित इस न्यायालय के समक्ष दिनांक १४ -१ -१९९४  को उपस्थित हुए। उनके अनुसार याचिकाकर्ता को रिहा कर दिया गया है। यह पूछने के लिए कि याचिकाकर्ता को पांच दिनों की अवधि के लिए हिरासत में क्यों रखा गया, तो उन्होंने जवाब दिया कि याचिकाकर्ता बिल्कुल भी हिरासत में नहीं था अपितु अपहरण से संबंधित कुछ मामलों का पता लगाने के लिए उनकी मदद ली गई थी और याचिकाकर्ता पुलिस को सहयोग करने में मददगार था इसलिए उसे हिरासत में लेने का सवाल ही नहीं उठता। सर्वोच्च न्यायालय ने पाया की उपरोक्त परिस्थितियों के अंतर्गत, आज की स्थिति में बंदी प्रत्यक्षीकरण याचिका में राहत नहीं दी जा सकती है, फिर भी यह न्यायालय इस आधार पर रिट याचिका को समाप्त नहीं कर सकता है।

इसलिए,सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि “हम जिला न्यायाधीश, गाजियाबाद को विस्तृत जांच करने और इस आदेश की प्राप्ति की तारीख से चार सप्ताह के भीतर अपनी रिपोर्ट प्रस्तुत करने का निर्देश देते हैं।”

सर्वोच्च न्यायालय ने गंभीरता से विचार करते हुए स्पष्ट किया कि “कोई गिरफ्तारी नहीं की जा सकती क्योंकि ऐसा करना पुलिस अधिकारी के लिए कानून सम्मत है। गिरफ्तार करने की शक्ति का अस्तित्व एक बात है और इसके प्रयोग का औचित्य बिलकुल दूसरा है। पुलिस अधिकारी को ऐसा करने की अपनी शक्ति के अलावा गिरफ्तारी को सही ठहराने में सक्षम होना चाहिए। किसी व्यक्ति की गिरफ्तारी और पुलिस हिरासत में रखने से व्यक्ति की प्रतिष्ठा और आत्मसम्मान को अपूरणीय क्षति हो सकती है। किसी व्यक्ति के खिलाफ किए गए अपराध के आरोप मात्र पर नियमित तरीके से कोई गिरफ्तारी नहीं की जा सकती है।”

किसी अपराध में मिलीभगत के संदेह पर ही किसी व्यक्ति को गिरफ्तार नहीं किया जा सकता है। गिरफ्तारी करने वाले अधिकारी की राय में कुछ उचित औचित्य होना चाहिए कि ऐसी गिरफ्तारी आवश्यक और न्यायोचित है। जघन्य अपराधों को छोड़कर, अगर कोई पुलिस अधिकारी किसी व्यक्ति को स्टेशन हाउस में उपस्थित होने और अनुमति के बिना स्टेशन छोड़ने के लिए नोटिस जारी करता है, तो उसे उस व्यक्ति की गिरफ्तारी से बचना चाहिए।ये अधिकार संविधान के अनुच्छेद २१ और २२ (१) में निहित हैं और इन्हें मान्यता देने और सावधानीपूर्वक संरक्षित करने की आवश्यकता है। इन मौलिक अधिकारों के प्रभावी प्रवर्तन के लिए, हम निम्नलिखित GUIDE LINES  जारी करते हैं:-

1. हिरासत में रखे गए एक गिरफ्तार व्यक्ति को यह अधिकार है कि उसके अनुरोध पर उसके किसी एक दोस्त, रिश्तेदार या कोई अन्य व्यक्ति जो उसे जनता है और उसके कल्याण की कामना करता है, उसे सुको गिरफ्तारी के बारे में बता दिया जाये और साथ में यह भी बताया जाये की उसे कंहा हिरासत में लिया जा रहा है और रखा जा रहा है।

2. पुलिस अधिकारी गिरफ्तार व्यक्ति को थाने लाए जाने पर उस व्यक्ति को उसके  इस अधिकार की सूचना देगा।

3. डायरी में यह प्रविष्टि करनी होगी कि गिरफ्तारी की सूचना किसे दी गई थी। सत्ता से इन सुरक्षाओं को अनुच्छेद २१ और २२ (१) से प्रवाहित होना चाहिए और सख्ती से लागू किया जाना चाहिए।

यह मजिस्ट्रेट का कर्तव्य होगा, जिसके समक्ष गिरफ्तार व्यक्ति को पेश किया जाता है, वह खुद को संतुष्ट करे कि इन आवश्यकताओं का अनुपालन किया गया है।

अब मित्रों लगे हाथों संविधान के अनुच्छेद २१ और २२ (१) को भी पढ़ते चले:-

अनुच्छेद २१ स्पष्ट रूप से कहता ही कि “कानून द्वारा स्थापित प्रक्रिया के अलावा किसी भी व्यक्ति को उसके जीवन या व्यक्तिगत स्वतंत्रता से वंचित नहीं किया जाएगा” अत: अनावश्यक रूप से की गयी गिरफ्तारी किसी भी व्यक्ति (प्रकृति हो या पुरुष) के जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को बाधित करती है, जो निश्चय ही अनुच्छेद २१ की आत्मा को छलने वाला है।

मित्रों  महाभारत के  आदिपर्व, के अध्याय ४१ के २८ वें श्लोक में कुछ इस प्रकार से कहा गया है:

दण्डात् प्रतिभयं भूयः शान्तिरुत्पद्यते तदा।
नोद्विग्नश्चरते धर्मं नोद्विग्नश्चरते क्रियाम् ॥२८॥

अर्थात दण्ड यानी सजा की व्यवस्था अधिकांशतः भय पैदा करता है और तब शान्ति स्थापित होती है। उद्विग्न या बेचैन व्यक्ति धर्माचरण नहीं करता है, और न ही ऐसा व्यक्ति अपने कर्तव्य का निर्वाह कर पाता है। परन्तु इस दंड को प्रदान करने की प्रक्रिया भी सुदृढ़ और निरपराध को प्रताड़ना देने वाली नहीं होनी चाहिए।

दण्डये यः पातयेद् दण्डं दण्डयो यश्चापि दण्डयते।

कार्यकारणसिद्धार्थावुभौ तौ नावसीदतः।।४।१८।६१।। श्रीमद्वाल्मीकिरामायण

दण्डनीय व्यक्ति को दण्ड देता है तथा जो दण्ड का अधिकारी होकर दण्ड भोगता है उनमे से दण्डनीय व्यक्ति अपने अपराध के फलस्वरूप शासक का दिया हुआ दण्ड भोग कर तथा शासक उसके उस फलभोग मे कारण निमित्त बनकर कृतार्थ हो जाते हैं और अपना अपना कर्तव्य पूरा कर लेने के कारण कर्म रूप ऋण से मुक्त हो जाते हैं और दुःख को प्राप्त नहीं होते। यही दण्डशास्त्र का विधान होना चाहिए।

अनुच्छेद २२ (१) के अनुसार: गिरफ्तार किए गए किसी भी व्यक्ति को ऐसी गिरफ्तारी के कारणों के बारे में यथाशीघ्र सूचित किए बिना हिरासत में नहीं रखा जाएगा और न ही उसे अपने कानूनी व्यवसायी से परामर्श करने और बचाव करने के अधिकार से वंचित किया जाएगा।

अनुच्छेद 22(2) गिरफ्तार किए गए और हिरासत में लिए गए प्रत्येक व्यक्ति को गिरफ्तारी के स्थान से मजिस्ट्रेट की अदालत तक यात्रा के लिए आवश्यक समय को छोड़कर ऐसी गिरफ्तारी के चौबीस घंटे की अवधि के भीतर निकटतम मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया जाएगा और ऐसा नहीं व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के अधिकार के बिना उक्त अवधि के बाद हिरासत में रखा जाएगा।

तो इस प्रकार हम देखते हैं मित्रों की ये (guidelines) निर्देश अत्यंत ही महत्वपूर्ण हैं, जो एक सामान्य व्यक्ति की प्रतिष्ठा को सुरक्षित रखने में अत्यधिक कारगर साबित होंगे।

Nagendra Pratap Singh: An Advocate with 15+ years experience. A Social worker. Worked with WHO in its Intensive Pulse Polio immunisation movement at Uttar Pradesh and Bihar.
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