“मैं विनायक दामोदर सावरकर बोल रहा हूँ”

8 जुलाई 1910, मार्सिले फ्रांस। एसएस मौर्य से छलांग लगाकर मैं पूरे मेघ से तैरता हुआ स्वाधीनता और न्याप्रियता की धरती फ्रांस तक आ ही गया था। 10 वर्ष से मैं डिटेक्टिव को गच्चा दे रहा था। लेकिन नियती की योजनाएं कुछ अलग थी। मैं विनायक दामोदर सावरकर इतिहासकारों ने मुझ पर हिंदुत्व को प्रसारित करने, कायर होने के आरोप लगाए है। विविध क्रांतिकारी में मुझे 25 वर्ष का एक और 25 वर्ष का दूसरा कारावास सुनाया गया कदाचित अंग्रेज भी पुनर्जन्म में विश्वास रखते थे। काले पानी से हज़ार में 10 कैदी भी जीवित नहीं लौट कर आते थे। अंडमान जाते हुए मुझे मेरी 16 वर्ष की आयु में ली गई प्रतिज्ञा आज भी याद की “अपनी मातृभूमि को दासत्व से मुक्त कराने की प्रतिज्ञा”। उस प्रतिज्ञा को पूरा करने का पहला कदम था “मित्र मेला” जो आगे चल कर अभिनव भारत के नाम से जानी गई। 1906 मैं उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए मैं इंग्लैंड आया।

पर मेरा मुख्या मंतव्य था अभिनव भारत के लिए सहयोग एकत्रित करना। मैं ये धारणा परचलित करना चाहता था की जैसे मज्जिनी ने इटली को सशक्त क्रांति कर एवं संगठित किया वैसे करना भारत में भी संभव है। और 1857 में इस दिशा में पहला प्रयास किया जा चुका था। ये स्वराज और स्वतंत्र भारत के लिए लड़ा गया पहला युद्ध था। 1857 की क्रांति को अपने वास्तविक रूप में स्तपिथ करने के लिए मैंने उसे अपनी “Indian War of Independence” पुस्तक लिखी। किसी भारतीय ने इसे पब्लिश नही किया। प्रकाशन के लिए हमने जर्मनी में प्रकाशक खोज निकाले। इंडिया हाउस में मेरी मुलाकात लेनिन से हुई और रूस से हमे बम मैनुअल प्राप्त हुई जिसे हमने आम की पेटी में छिपाकर भारत भिजवा दिया। इन्ही मैनुअल की मदद से अरबिंदो घोष ने बंगाल में बॉम्ब बना ने का कुटीर उद्योग शुरू कर दिया था जिसकी गूंज मैनिकटोला षड़यंत्र के रूप में सुनाई दी। यहां इंग्लैंड में लॉर्ड कर्जन विल्ली ने मुझे लॉ पढ़ने से प्रतिबंधित कर दिया था। खुफिया विभाग हम पर महीन दृष्टि जमाए हुए था पर अबकी बार झटका देने की बारी हमारी थी। 30 जून 1909 जहांगीर हाल कर्जन विल्ली को गोली मार दी गई।

और ये काम करने वाला विश्वसनीय क्रांतिकारी कोई और नहीं परंतु शहीद मदन लाल ढींगरा थे। पुलिस की लगातार बढ़ती दबिश से बचते हुए मैं पेरिस चला गया पर वहां जाकर सारे काम ठप्प पड़ गए थे। लंदन रहता तो आगे की रणनीति तय कर लेता ये सोच कर लंदन रेलवे स्टेशन पर पैर रखा ही था की पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। मुकदमा चलाने के लिए मुझे भारत पर्त्यपित कर दिया गया। फ्रांस मैं मैने स्वचंद होने का प्रयास किया जो वहां राष्ट्रीय संपरभुता का मामला बन गया की किस अधिकार पर लंदन पुलिस ने मुझे फ्रांस में गिरफ्तार कर लिया। फ्रांस तो राजनीतिक शरण देना चाहता था पर इंग्लैंड मुझे किसी तरीके से भी छोड़ने को त्यार नही था।

उस वक्त पर इंग्लैंड में एक बात परचलिती थी की “Savarkar Was Most Dangerous Man India Had Produced”। सेल्यूलर जेल में घुसते ही हिंदू कैदियों के जनेऊ तोड़ दिए जाते थे वही मुसलमान और सिख कैदीयो को दाढ़ी रखने की पूरी आजादी थी। सुबह से श्याम तक नारियल का खोल पीट कर रस्सी बनाते बनाते हाथ में छाले पड़ जाते और उनके फटने पर हाथ खून खून हो जाता। इसी बीच भोजन मिलता जिसमे पानी और चावल का घोल और दाल जिसमे कीड़े और पत्थर होते। कुछ समय बाद मुझे कोहलू में भेज दिया गया। आत्मा सुखा देने वाली धूप में, जूट की बोरी पहने हुए पसीने से लथपथ अर्धनग्न शरीर को ढोता हुआ मैं दिन बर दिन महीने भर महीने चलाता रहा एकेला गतिमन होना मतलब पठान के लात घुसो का आमंत्रण।

कभी कोई मानव दिखता भी तो फांसी को लटका हुआ कैदी जो किसी भी इंसान का हौसला तोड़ने के लिए काफी था। बेड़ियों में जकड़े रह कर थोड़ा थोड़ा मरने की कोशिश करता और सोचता अगर रिहा हुआ तो आंदोलन फिर खड़ा कर लेंगे। 1911 में दिल्ली दरबार में सुगबुगाहट थी की सरकार सद्भावना दिखाते हुए राजनीतिक कैदियों को रिहा कर सकती है। मैंने भी पेटिशन डाल दी सिर्फ मेरी ही पेटिशन का जवाब आया रिजेक्टेड। यातना से बचने के लिए कई राजनीतिक कैदी सरकारी जासूस बन गए थे और कई कैदियों ने आत्मघात कर लिया। मृत्यु से द्वंद में जीवित रहने की इच्छा विजय भी हो जाए तो खुद को पागल होते रौकना बड़ी चुनौती थी। बम बना ने में उस्ताद उलासकर दत्ता की चीख सारी जेल में गूंज रही थी। उसने अपनी मुक्ति के मार्ग का सृजन करना चाहा और उलासकर मेंटल हॉस्पिटल भेज दिया गाया। मन को शांत रखने के लिए मैंने कविता रचना शुरु किया। काटों से कलम बनी और दीवारे बनी स्लेट। मैं जिस डिवीजन मैं रहता वहां की दीवारें राजनीतिक चिंतन, कविता, शस्तरदर्शन आदि से भर देता था। ताकि आने वाले कैदियों की क्लास जारी रहे।

जेल के अधिकतर जमादार और वार्डन पठान थे काफ़िर कैदियों को पागल कर देने वाली यातना देना उनके लिए रोमाचकारी खेल था। बचने का एक मात्र उपाय था गौ मास खा कर धर्मान्तरण। अगर वो कैदी वापिस हिंदू होना चाहे तो अन्य हिंदू कैदी उसका बहिष्कार कर देते। मैं सोचता की एक भी हिंदू का काम होना मतलब शत्रु संख्य बल की वृद्धि। इनकी आने वाली पीढ़ियां अपने हिंदू पूर्वजों को भूल जायेंगी। इसीलिए जेल में ही मैंने उन्हें तुलसी पत्ता खिला कर और गीता श्लोक पढ़ कर उनका शुद्धिकरण शुरू किया। इसका दुष्परिणाम था की मेरे खाने में विष मिलाया गया। बाबा राव की चौकसी से मैं बच गया। फिर बाबा राव के सर पर प्रहार हुए उन्होंने भारी रक्त पात झेला।

जेल में हमने कई हड़ताल की और जेल दंड जेले। 1914 से बदलाव की हवा चली हमे कोहलू से मुक्त कर दिया गया पर मुझे अण्डमान में सोलेरिटी सेल में ही रखा गया। उस समय विश्व युद्ध में भारत भी खींचा जा चुका था। खबर थी की जर्मनी में मेरे साथी अंडमान में बम बारी कर मुझे छुड़ाना चाहते थे इसी के चलते मुझे कड़ी निगरानी में रखा जाने लगा। मेरे बाबा राव जेल में कोहलू पीसते पीसते बस 44 किलो के रह गए थे। मुझे मलेरिया होने से नस नस स्थिल हो गई थी। लगा मृत्यु निकल चुकी है मेरे देह का माप लेने के लिए। मैं एक बैरिस्टर था पेटिशन लिखना मेरे लिए स्वाभाविक था। 1921 बाबा राव और मुझे भारत स्थानांत्रित करने का निर्णय लिया गया केवल इसीलिए की अंग्रेज सेल्यूलर जेल को बंध करने वाले थे।

कैदियों को शिक्षित करने का वो कार्य सफल हुआ और साक्षरता 80 प्रतिशत हो गई थी। तत पश्चात मुझे भारत भेज दिया गया। जेल में गांधी वादी मिले जो सुदूर किसी खलीफा की पैरवी कर रहे थे। खिलाफत ने राष्ट्र को शक्ति हीन बना दिया। इसका मूल्य मोहपला के हिंदू लोगो को चुकाना पड़ा। जेल में संगठित होकर रहना हमारे लिए काम आया। साबरमती जेल में बाबा राव का समय निकट आन पड़ा अंग्रेज उन्हें जेल में नहीं मरने देना चाहते थे। 1922 को उन्हें रिहा कर दिया गया रत्नगिरी की जेल में बंद में भारत को सभ्यता पर चिंतन करने लगा जिसको मैंने हिंदुत्व और हिंदू कोन में लिखा।

1924 में मुझे इस शर्त पर रिहा किया गया कि मुझे केवल रत्नागिरी ही रहना होगा और वहां रह कर मैने अपना लेखन जारी रखा और 13 साल के बाद मुझे रत्नागिरी रहना पड़ा। 30 जनवरी 1948 को मुझ पर गांधी जी की हत्या का आरोप लगा और मुझे फिर जेल जाना पड़ा। उसके बाद मेरे घर पर पत्थर और बम से हमला हुआ और महाराष्ट्र में चितपाविन ब्राह्मणों को मारा गया। अपने पूरे जीवन में मैंने 40 से अधिक पुस्तक, लेख, कविताओं का लेखन किया। उम्र के साथ सावस्थ्य ने भी साथ छोड़ दिया और 26 फ़रवरी को मैं इस दुनिया को छोड़ के मां भारती मैं विलीन हो गया।

Chirag Dhankhar: Student of Foreign Language at Jawaharlal Nehru University. History Reading Writing
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