कर्नाटक हिजाब विवाद क्यों है संविधान को धमकी! धर्मनिरपेक्ष देश में कट्टर इस्लामिक आजादी की चाहत?

कर्नाटक के कुछ कालेजों में हिजाब पहनकर ही क्लास करने पर अड़ी कुछ मुस्लिम लड़कियों को क्लास करने से मना किया जा रहा है। एक कॉलेज प्रशासन का कहना है की वो इनके हिजाब पहनकर आने के खिलाफ नही है और ये लड़कियां स्कूल कैंपस में भी हिजाब पहनकर घूम सकती है लेकिन क्लास के दौरान उनको अपना हिजाब उतारना होगा।

लेकिन लड़कियों का कहना है कि चाहे कुछ हो जाए वो हिजाब नही उतारेगी क्योंकि क्लास में मर्द अध्यापक पढ़ाएंगे और उनको अपने शौहर के सिवा अन्य किसी मर्द के सामने बिना हिजाब के जाने से इस्लाम मना करता है। अब जब स्कूल ने मना कर दिया तो ये लोग विरोध प्रदर्शन कर रही हैं, उनका कहना है कि हिजाब पहन कर क्लास करना उनका संवैधानिक हक है और हिजाब पहने हुए क्लास करने से रोकना उनके संवैधानिक अधिकारों का हनन है।

इसके लिए उन लोगो ने कर्नाटक हाई कोर्ट ने एक याचिका भी दायर कर रखी है।

कालेज प्रशासन का कहना है कि कॉलेज का अपना एक ड्रेस कोड है और वो बिना किसी धार्मिक भेदभाव के सबके ऊपर लागू होता है और उसको सभी बच्चो को मानना पड़ेगा चाहे वो जिस धर्म के हो और जब सभी धर्म के बच्चे इसको मानते हैं तो मुस्लिम लड़कियां क्यों विशेषाधिकार चाहतीं हैं? उनका कहना है कि कॉलेज में किसी भी प्रकार के धार्मिक पहनावे के साथ आने की परमिशन किसी को नही होगी।

ताज्जुब होता है इस हद तक की हठ_धार्मिकता पर, वो भी पढ़े लिखे लोगो की और एक धर्मनिरपेक्ष देश में!

जहां दुनिया के कई इस्लाम शासित देशों में मुस्लिम महिलाए हिजाब और बुर्का आदि के खिलाफ जिंदगी और मौत की जंग लड़ रही हैं, जहां उनको बुर्का, हिजाब न पहनने पर बुरी तरह से मारा–पीटा, घसीटा जा रहा है, फिर भी अपनी जिंदगियों को दांव पर लगाकर महिलाएं इस लड़ाई को लड़ रही हैं, वो इस काले कपड़े से आजादी चाहती हैं, किसी भी कीमत पर!

वहीं दूसरी तरफ भारत, जहां ये सारी आजादी मुफ्त में जन्मजात मिल जाती है, वहां की पढ़ी लिखी मुस्लिम लड़कियां बुरके में कैद होने होने के लिए अपनी पढ़ाई–लिखाई, करियर सब कुछ दांव पर लगाने को तैयार है। ये कितने अफसोस की बात है कि ये लोग 1400 साल पुराने घोर पितृसत्तात्मक नियमों से बंधी रहना चाहती हैं।

उससे भी बड़े अफसोस की बात है कि कुछ लोग बस राजनीतिक लाभ की आशा में इस हठधर्मिता को समर्थन दे रहे हैं, जैसे 1986 में तीन तलाक जैसे घोर महिला विरोधी नियम को कानूनी अमलीजामा पहनाकर इनलोगो ने किया, और मुस्लिम महिलाओं को उनके पतियों के रहमो करम पर छोड़ दिया गया।

जिसकी वजह से देश ने एक ऐसी सांप्रदायिक राजनीति के दौर में प्रवेश किया जिससे आज तक नहीं निकल पाया है। ये एकदम सही है कि संविधान में सबको अपने धर्म को मानने की, प्रैक्टिस करने की आजादी है लेकिन अपने धर्म को सार्वजनिक जगहों पर थोपने की आजादी किसी को नही है और ये बात सभी को बेहद स्पष्ट होनी चाहिए।

और फिर जहां पर किसी के व्यक्तिगत धार्मिकता का टकराव सार्वजनिक नियम कानूनों से हो वहां पर सार्वजनिक नियमों को ही वरीयता दी जानी चाहिए वो भी बिना लाग लपेट के, तभी इस बहू पारंपरिक देश में एकता रह पाएगी।

प्रत्येक उस अतार्किक जिद का विरोध होना चाहिए जो सार्वजनिक व्यवस्था और शांति में खलल डालती हो फिर चाहे वो लगातार सड़क पर नमाज पढ़ने की जिद हो,
या फिर मैं हिजाब उतारूंगी ही नही वाली जिद। किसी के घूंघट नही हटाउंगी की जिद होने पर भी यहीं लागू होगा!

आखिर लोग अपने घरों/मंदिरो में घंटो पूजा पाठ करते है लेकिन अगर किसी सार्वजनिक वेटिंग हाल में यही करने लगे तो क्या ये स्वीकार्य होगा? और सबसे बड़ी बात क्या इसको स्वीकार्य होना चाहिए?

बिलकुल नहीं!

कुछ साल पहले की एक घटना याद आती है उमैया खान नाम की एक लड़की नेट की परीक्षा देने गई थी, काफी मेधावी छात्रा थी। सेंटर पर नकल रोकने हेतु सभी लड़कियों से उनके स्कार्फ/दुपट्टे/हिजाब/गहने आदि उतरवा कर ही परीक्षा कक्ष में प्रवेश दिया जा रहा था। उमैया ने हिजाब उतारने से मना कर दिया बोली मैं इस नियम को नही मानूंगी। मै हिजाब नहीं उतारूंगी उसको बताया गया कि अगर उन्होंने नियम नहीं माना तो परीक्षा कक्ष में प्रवेश नही दिया जाएगा लेकिन वो नही मानी।

उसने अपनी एक साल की पढ़ाई, सारी तैयारी को जाया जाने दिया बस इसलिए की उसको एक सामान्य प्रशासनिक नियम के तहत दो घंटे के लिए हिजाब उतारना था।
आखिर उसने परीक्षा छोड़ दी, उसके साथ की बहुत सारी अन्य मुस्लिम लड़कियों ने भी परीक्षा दी, उन्होंने हिजाब उतार दिये और करियर को प्राथमिकता दी। क्वालीफाई भी किया और आज रिसर्च कर रही होगी लेकिन उनकी तारीफ किसी ने नहीं की।…..कि इन लड़कियों ने वैज्ञानिक सोच का परिचय दिया है। तारीफ करी गई उमैया की कई हस्तियों द्वारा…. जबकि इस हठ धार्मिकता के लिए उसकी आलोचना की जानी चाहिए थी। लेकिन उसको मुस्लिम लड़कियों के लिए आदर्श बताया गया।

अब ये मुस्लिम लड़कियां सोचें कि ऐसा कहने वाले लोग उनको ज्यादा पढ़ा लिखा बनाना चाहते हैं या ज्यादा धार्मिक? आखिर स्कूल/कॉलेज आदि में धार्मिकता के ऐसे हठ भरे प्रदर्शन की क्या अनिवार्यता है? हिजाब को अपने अस्तित्व की लड़ाई वो भी एक सेकुलर देश में बना लेना कौन सी बुद्धिमानी वाली बात है? आखिरकार इससे अव्यवस्था ही तो फैल रही है?

अब सुनने में आ रहा है कि प्रतिक्रिया स्वरूप हिंदू लड़के/लड़किया भी भगवा गमछा/शाल लेकर स्कूल में आने लगे हैं! जैसे गुड़गांव में सड़क पर नमाज पढ़ने के विरुद्ध बहुत सारे लोग सड़क पर ही पूजा पाठ करने लगे थे!

मेरा मानना है कि इस तरह की हठधार्मिकताये अनेक सामाजिक समस्याएं पैदा करके सामाजिक अलगाव को ही जन्म देंगी।

इसलिए बेहतर होगा कि हम अपने धर्म /आस्था/मजहब को अपने घरों/धर्मस्थलों तक ही सीमित रखें उनको सार्वजनिक रूप से थोपने की कोशिश कभी न करे, खासकर तब जब उससे सार्वजनिक व्यवस्था में अड़चन उत्पन्न हो (धार्मिक पर्व/त्योहार आदि अपवाद हो सकते है)।

एक धर्म के अनुयाई के रूप में हम अलग हो सकते है, लेकिन एक भारतीय के रूप में हमको एक होना चाहिए तभी जाकर देश में एक स्वस्थ सामाजिक एकता स्थापित हो पाएगी!

हम सभी को देश के कानूनों को धार्मिक कानूनों पर हमेशा प्राथनिकता देनी चाहिए!

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