सुभाष चंद्र बोस और वीर सावरकर के बीच का ऐतिहासिक संवाद

भारत कि आजादी के बाद से 2014 तक दरबारी पत्रकारों और इतिहासखोरों ने वही लिखा जो एक परिवार को सत्ता में बनाये रखने के लिये आवश्यक था। ये इतिहास ही स्कूलों में किताबों के माध्यम से हम तक पहुंचाया गया ऐसे अनेकों प्रसंगों और नोमों को इतिहास से गौण कर दिया जो उनके इस इतिहास लेखन के सांचे में फिट नही बैठ रहे थे। अगर किसी ऐसे नाम कि चर्चा हुई भी तो ऐसे प्रस्तुत किया गया जिससे उनके दरबारी हुजूरों कि सत्ता को नुकसान न हो। इस प्रकार कि इतिहास खोरी के बहुत सारे उदहारण है। परन्तु आज के इस लेख में चर्चा होगी सुभाष चंद्र बोस कि और उस खत की जो रास बिहारी बोस ने सावरकर को लिखा यही खत जो बुनियाद बना भारत कि पहली आजाद सेना और सरकार। वह सेना जिसके सेनानायक थे सुभाष चंद्र बोस और सरकार वह जिसके प्रधान थे सुभाष चंद्र बोस क्या था पूरा मसला?

दरसल तारीख थी, 21 जून 1940 सावरकर जेल से छुट कर अपने दादर के निवास स्थान पर थे। तभी उनके सहयोगी ने उनको आकर बताया कि बाहर सुभाष चंद्र बोस आये है और वह आपसे मिलना चाहते है। सावरकर ने कहा कि उनको सम्मान से अंदर लेकर आओ। बोस ने सावरकर को मिलने के बाद कहा कि यंहा आने से पहले मे मिस्टर जिन्हा से मिलकर आया हूँ। बोस ने बताया की वो कलकत्ता में होलवेल स्मारक में ब्रिटिश मूर्तियों को हटाने के लिए विरोध प्रदर्शन करने जा रहे जिसे वो हिंदू और मुस्लिम एकता के रूप में प्रस्तुत करना चाहते है। इस लिए वो जिन्हा से मिलने गये थे। परन्तु जिन्हा ने कहा कि, एकता का प्रस्ताव कोई हिन्दू नेता लेकर आता तो वह विचार करते ये फॉरवर्ड ब्लाक तो कांग्रेस के नेता का ही संघठन है हिन्दू के नेता तो सावरकर आप पहले उनसे बात कीजिये मे इसलिए आपसे मिलने आया हूँ।

सावरकर और बोस के बीच में हुई इस चर्चा को उस समय के अख़बार ‘टाइम्स ऑफ़ इण्डिया’ ने इस प्रकार लिखा-

“सुभाष चंद्र बोस 22 जून को बॉम्बे पहुंचे और वी डी सावरकर के साथ फॉरवर्ड ब्लॉक और हिंदू महासभा के बीच सहयोग की संभावनाओं की खोज करने के लिए चर्चा की।” (एमएसए, गृह विशेष विभाग, 1023, 1939-40, एसए दिनांक 29 जून, 1940, ‘फॉरवर्ड ब्लॉक’)”

सावरकर ने सुभाष को सुझाव दिया कि वह “कलकत्ता में होलवेल स्मारक जैसी ब्रिटिश मूर्तियों को हटाने के लिए विरोध प्रदर्शन आयोजित करने में समय बर्बाद न करें”, बल्कि देश से बाहर द्वितीय विश्व युद्ध में ब्रिटिश के खिलाफ खड़ी शक्तियों तक पहुंचें और प्रथम विश्व युद्ध में जर्मनी में बंद कैदियों कि मुक्ति करवाकर युद्ध के लिए एक भारतीय सेना का गठन करें।

इस पूरी घटना को जपानी लेखक एंव प्रकाशक युकिकाज़ु सकुरासावा ने अपनी किताब ‘द टू ग्रेट इंडियंस इन जापान’ में भी विस्तार से बताया है। वह उल्लेख करता है – “सावरकर सदन बॉम्बे में नेताजी सुभाष बाबू और सावरकर के बीच यह निजी और व्यक्तिगत बैठक थी सावरकर द्वारा सुभाष बाबू को सुझाव दिया गया कि उन्हें भारत छोड़ने और जर्मनी जाने का जोखिम उठाना चाहिए। वहाँ भारतीय सेनाएँ बंदी के रूप में जर्मन हाथों में पड़ गईं जर्मन से सहायता लेकर श्री रास बिहारी बोस के साथ जापान से हाथ मिलना चाहिए। इस बात को प्रभावित करने के लिए सावरकर जी ने सुभाष बाबू को ‘श्री रास बिहारी बोस’ द्वारा सावरकर जी को लिखा एक पत्र दिखाया।

इस प्रकार रास बिहारी बोस और नेता जी को जोड़ने कि कड़ी के रूप में सावरकर ने कार्य किया। परन्तु दरबारी पत्रकार, इतिहासकार और लेखक दोनों क्रन्तिकारो में भेद पैदा करते है कभी भी नेताजी और वीर सावरकर द्वारा साझा किए गए सौहार्दपूर्ण संबंध और एक-दूसरे के लिए की गई प्रशंसा को साँझा ही नही किया। बोस तो सावरकर कि पुस्तको से इतने प्रभावित थे कि उन्होंने सावरकर के 1857 के भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के तमिल संस्करण की हजारों प्रतियां छापीं और उन्हें जनता के बीच वितरित किया। 25 जून, 1937 को सावरकर के आजाद होने पर, सेलुलर जेल से रिहा होने पर सुभाष चंद्र बोस ने कहा- “मैं श्री सावरकर की रिहाई से बेहद खुश हूं। उनका भविष्य शानदार है। मेरी इच्छा है। 25 जून 1944 को आजाद हिंद रेडियो पर प्रसारित एक प्रसारण में नेताजी ने कहा- “जब गुमराह राजनीतिक सनक और दूरदृष्टि की कमी के कारण, कांग्रेस पार्टी के लगभग सभी नेता भारतीय सेना में सैनिकों को भाड़े के सैनिकों के रूप में निंदा कर रहे हैं, परंतु यह जानकर खुशी हो रही है कि वीर सावरकर निडर होकर भारत के युवाओं को सशस्त्र बलों में भर्ती होने का आह्वान कर रहे हैं। ये सूचीबद्ध युवा स्वयं हमें हमारे आईएनए के लिए प्रशिक्षित पुरुष और सैनिक होंगे।” मई 1952 में, अभिनव भारत उदघाटन के समारोह के दौरान, सावरकर ने तीन दिनों के लिए मंच पर नेताजी की प्रतिमा लगाकर नेताजी को श्रद्धांजलि दी। नेताजी की प्रशंसा करते हुए उन्होंने कहा–

“अमर अमर रहे सुभाष।”

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