क्याआपको हिन्दी भाषी होने में शर्म आती है? क्या आप अपनी ही मातृभाषा के प्रति हीन भावना (Inferiority Complex) का अनुभव करते हैं? क्या आपको लगता है कि अंग्रेज़ी नहीं आने पर आपका कोई अस्तित्व नहीं होता है? क्या हिन्दी मीडियम विद्यालय में पढ़े होने पर स्वयं को गवार समझते हैं? क्या कोई आपसे अंग्रेज़ी में कुछ कहे तो आप घबरा जाते हैं और असहजता का अनुभव करते हैं?ये कुछ आवश्यक प्रश्न हैं जिनके विषय में हम कम ही बात करते हैं पर इनका अनुभव हम शायद हर दिन करते हैं। अगर आप उत्तर प्रदेश या बिहार से हों तो आपके विषय में यह धारणा रहती है कि आप अंधविश्वासी, अंग्रेज़ी सभ्यता के भक्त और गवार होंगे विशेषकर दक्षिणी राज्यों के अधिकतर लोग ऐसा ही मानते हैं।
यूं तो उनकी यह अवधारणा गलत है किन्तु इसके लिए हिन्दी भाषी स्वयं भी कम दोषी नहीं।हिन्दी भाषी अंग्रेज़ी के पीछे बावले से हुए रहते हैं, ऐसा नहीं है कि हिन्दी से चिढ़ है पर अंग्रेजी का ऐसा हव्वा बना रखा है कि पूछिए मत। कभी मार्च अप्रैल में किसी कान्वेंट स्कूल चले जाइये, नर्सरी कक्षा में दाखिले के लिए मारामारी मची रहती है दूसरी ओर हिन्दी मीडियम स्कूल खस्ताहाल पड़े रहते हैं वहां सामान्यतः गरीब परिवार के बच्चे दाखिल होते हैं। यह जो हिन्दी मीडियम और अंग्रेजी मीडियम की दीवार है यहीं होती है ‘Inferiority Complex’ की शुरुआत। क्योंकि लोगों को लगता है कि अंग्रेजी भाषा में हिंदी, राजस्थानी, मराठी या किसी अन्य प्रदेश की भाषा से रोजगार की तुलना में अधिक अवसर हैं। या रोजगार पाने के लिए अंग्रेजी तो आनी ही चाहिए।हालांकि सरकारी कामकाज हिन्दी अंग्रेज़ी दोनों में होता है पर प्राइवेट कम्पनियां अच्छे पद के लिए अंग्रेज़ी लिखना पढ़ना जानने वाले कर्मचारी चाहती हैं। हिन्दी में दक्षता होते हुए भी आप अंग्रेज़ी जानने वाले से थोड़ा पीछे ही रह जाते हैं।अब बात करते हैं उन लोगों की जो स्वयं को गर्वित हिन्दी भाषी कहते हैं पर किसी दस्तावेज पर हिन्दी में हस्ताक्षर तक करने में शर्म, नहीं तो हिचकिचाहट अनुभव करते हैं। ऐसे लोग मुझे या आपको नहीं, स्वयं अपने अस्तित्व अपने आत्मगौरव को छल रहे हैं।सोचने वाली बात यह भी है कि पुराने लेखकों के नाटक, उपन्यास आदि कॉपी करने वाले अंग्रेज़ी के महान लेखक विलियम शेक्सपियर को तो सब अद्वितीय मानते हैं पर महान कवि श्री सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ की रचनाओं के हम नाम तक भूल जाते हैं। हमें दूसरों कि भाषा संस्कृति तो आकर्षित करती है पर अपनी महान संस्कृति और भाषा को हम हल्का करके आंकते हैं।
अपनी भाषा, अपनी संस्कृति अपनी रचनात्मकता पर हमें संदेह होता है।क्या हिन्दी साहित्य व प्रेमचंद, महादेवी वर्मा, मैथलीशरण गुप्त, रामधारी सिंह दिनकर की रचनाएं आपको आकर्षित नहीं करती? या आपने कभी पढ़ने का कष्ट ही नहीं किया ?अब थोड़ी बात हिन्दी में उर्दू की अनावश्यक मिलावट कि की जाए। आपने कई बार हिन्दूओं को केवल ‘कूल’ लगने के लिए ‘इंशाल्लाह’ बोलते अवश्य सुना होगा, बॉलीवुड का तो क्या ही कहना, बॉलीवुड के गीत लेखकों को उर्दू के शब्द बहुत अधिक प्रिय हैं। ऐसा नहीं है कि मुझे उर्दू से विरोध है पर मिलावट उतनी अच्छी लगती है जितने में मुख्य भाषा का सौंदर्य बढे़ न कि वो मुख्य भाषा पर थोपी हुई लगे। पहले के गीतों में भगवान, मंदिर, समय, संगीत इत्यादि शब्द होते थे पर अब के गीतों में खुदा, मौला, इबादत, दुआ, मौसीकी और अंग्रेज़ी के अनेको अनावश्यक शब्द होते हैं।महानगरों में तो बहुत से युवा न तो ठीक से हिन्दी ही बोल पाते हैं न ही अंग्रेज़ी। बहुत हिन्दी भाषियों को वर्णमाला तक याद नहीं पर अंग्रेज़ी अल्फ़ाबेट गा के सुना देंगे।मेरा मानना है कि हिन्दी को उसका सही सम्मान मिलना चाहिए, पर यह तब ही संभव जब हम हिन्दी मीडियम व अंग्रेज़ी मीडियम की दीवार गिरा दें। जब हिन्दी मीडियम विद्यालय में अंग्रेज़ी भी पढ़ाई जाती है और अंग्रेज़ी माध्यम विद्यालय में हिन्दी पढाई जाती है तो यह मीडियम की चोंचलेबाजी़ क्यों?
जिस प्रकार विश्वविद्यालयों में पढ़ने और उत्तर पुस्तिका में लिखने का माध्यम छात्र छात्राऐं स्वयं चुन सकते हैं उसी प्रकार विद्यालयों में ऐसा क्यों नहीं किया जा सकता है?आप रास्ते में आते जाते अनेको साइन बोर्ड, दुकानों के नाम आदि देखते हैं, उनमें से अधिकतर अंग्रेज़ी में लिखे होते हैं फिर चाहे वह शब्द हिन्दी का हो। हिन्दी में बहुत कम। क्या हिन्दी की उपयोगिता समाप्त हो गई है या हम इंग्लैंड में रह रहे हैं?
अंग्रेज़ी से घ्रणा नहीं करनी चाहिए पर किसी भी भाषा का महिमामंडन करके अपनी मातृभाषा का अपमान करने में कौन सा गौरव प्राप्त होता है?
बहुत लोगों को यह पता ही नहीं कि हिन्दी विश्व की चौथी सबसे अधिक बोली जाने वाली भाषा है।
अगर हम अपनी भाषा के प्रति हीन भावना रखेंगे तो हमें क्या अधिकार कि स्वयं को गर्वित हिन्दी भाषी कहें या गर्वित भारतीय कहें, क्योंकि सच्चे भारतीय अपने देश की विभिन्न भाषाओं व संस्कृति की रक्षा और गर्व करेंगे न की लज्जित होंगे।
केवल भाषा हमारा अस्तित्व नहीं, पर भाषा अस्तित्व की अभिव्यक्ति अवश्य है।