कांग्रेस का गठन एक षड्यंत्र: भाग -२

1947 के बाद की कांग्रेस:-

जैसा की आप जानते हैं कि मैने पिछले आर्टिकल मे बताया था कि काग्रेस पार्टी का गठन २८  दिसंबर १८८५  को हुआ था। व्योमेश चंद्र बनर्जी पार्टी के पहले राष्ट्रीय अध्यक्ष थे। १९३८ व १९३९ मे नेताजी सुभाष चंद्र बोस जी ने गाँधी जी के उम्मीदवारो को भारी मतो से मटियामेट करके अध्यछ पद का चुनाव जुता था पर गाँधीजी ने उन्हे कार्य नही करने दिया और अंतत: उन्हे इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद १९४७ में जेबी कृपलानी को पार्टी का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाया गया था।

पर उससे पूर्व वर्ष १९४७ ई में कांग्रेस की १२ प्रान्त की इकाइयों ने सरदार वल्लभ भाई पटेल को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाने के लिए वोट किया था, नेहरू को १ और जे बी कृपलानी को २ वोट मिले थे परन्तु गाँधी जी की कृपा से उनके कृपा पात्र नेहरू को अध्यक्ष बनाने के लिए सरदार पटेल से अपनी उम्मीदवारी वापस दिलाई गई।

१९४८ में पट्टाभि सीतारमैया को इस पद की कमान मिली थी। वे दो साल तक इस पद पर थे। १९५० को पुरुषोत्तम दास टंडन को यह जिम्मेदारी मिली थी। १९५१ में जवाहर लाल नेहरू कांग्रेस पार्टी के अध्यछ बने वे १९५१  से १९५४ तक ईस पद पर बने रहे। १९५५ मे यू. एन. धेबर को कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया गया और वो भी चार साल तक इस पद पर थे। १९५९ में इंदिरा गांधी को पार्टी की जिम्मेदारी पहली बार मिली थी। १९६० में नीलम संजीवा रेड्डी को इस इस पद की कमान मिली। वो 1963 तक इस पद पर रहे।

१९६४ में के कामराज को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया था। ये बड़े कामयाब अध्यक्ष थे। इनकी ही अध्यक्षता में जवाहर लाल नेहरू के मरने के बाद  श्री लाल बहदुर शास्त्री जी को प्रधानमंत्री के पद के लिए चुना गया और वो हिंदुस्तान के सबसे महान प्रधानमंत्री सिद्ध हुए। इनकी चलायी गयी “कामराज योजना” ने कांग्रेस को संगठन के तौर पर बहुत मजबूत किया। वर्ष १९६८ में एल निजलिंगप्पा पार्टी के अध्यक्ष बने।

१९७१ के आम चुनाव से कोई डेढ़ साल पहले एक ऐसी घटना हुई जिससे कांग्रेस के विभाजन पर आधिकारिक मुहर लग गई। यह घटना थी अगस्त १९६९ में हुआ राष्ट्रपति चुनाव. इस चुनाव में इंदिरा गांधी बाबू जगजीवन राम को कांग्रेस का उम्मीदवार बनाना चाहती थीं लेकिन  कांग्रेस संसदीय बोर्ड की बैठक में उनकी नहीं चली| निजलिंगप्पा, एसके पाटिल, के कामराज और मोरारजी देसाई जैसे दिग्गज कांग्रेसी नेताओं की पहल पर नीलम संजीव रेड्डी राष्ट्रपति पद के लिए कांग्रेस के आधिकारिक उम्मीदवार बना दिए गए| यह एक तरह से इंदिरा गांधी की हार थी। संसदीय बोर्ड के फैसले के बाद इंदिरा गांधी भी नीलम संजीव रेड्‌डी की उम्मीदवारी की एक प्रस्तावक थीं लेकिन उन्हें रेड्डी का राष्ट्रपति बनना गंवारा नहीं था। इसी बीच तत्कालीन उपराष्ट्रपति वराहगिरी व्यंकट गिरि (वीवी गिरि) ने अपने पद से इस्तीफा देकर खुद को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार घोषित कर दिया।

स्वतंत्र_पार्टी (चक्रवर्ती राजगोपालाचारी (दिसम्बर १०, १८७८ – दिसम्बर २५, १९७२), राजाजी नाम से भी जाने जाते हैं। वे वकील, लेखक, राजनीतिज्ञ और दार्शनिक थे। वे स्वतन्त्र भारत के द्वितीय गवर्नर जनरल और प्रथम भारतीय गवर्नर जनरल थे। १० अप्रैल १९५२ से १३ अप्रैल १९५४ तक वे मद्रास प्रांत के मुख्यमंत्री रहे। वे दक्षिण भारत के कांग्रेस के प्रमुख नेता थे, किन्तु बाद में वे कांग्रेस के प्रखर विरोधी बन गए तथा स्वतंत्र पार्टी की स्थापना की। वे गांधीजी के समधी थे। (राजाजी की पुत्री लक्ष्मी का विवाह गांधीजी के सबसे छोटे पुत्र देवदास गांधी से हुआ था।) उन्होंने दक्षिण भारत में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए बहुत कार्य किया।) समाजवादियों, कम्युनिस्टों,जनसंघ आदि सभी विपक्षी दलों ने वीवी गिरि को समर्थन देने का एलान कर दिया।

चुनाव के ऐन पहले इंदिरा गांधी भी पलट गई और उन्होंने कांग्रेस में अपने समर्थक सांसदों-विधायकों को रेड्डी के बजाय गिरि के पक्ष में मतदान करने का फरमान जारी कर दिया| इंदिरा गांधी के इस पैंतरे से कांग्रेस में हड़कंप मच गया। वीवी गिरि जीत गए और कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार संजीव रेड्डी को दिग्गज कांग्रेसी नेताओं का समर्थन हासिल होने के बावजूद पराजय का मुंह देखना पड़ा। वीवी गिरि की जीत को इंदिरा गांधी की जीत माना गया।

निर्धारित समय से एक साल पहले हुए चुनाव:-

इस घटना के बाद औपचारिक तौर पर कांग्रेस दोफाड़ हो गई। इंदिरा गांधी ने पुरानी कांग्रेस से नाता तोड़े हुये अपनी नयी कांग्रेस बना ली जिसे कांग्रेस (आई) के नाम से जाना जाता है इसे कांग्रेस ईंडिकेट पार्टी भी कहते थे। जो ओरिजनल कांग्रेस थी जिसमे सभी बुजर्ग कांग्रेसी दिग्गज थे उसे कांग्रेस (संगठन) कहा जाने लगा इसका दूसरा नाम कांग्रेस सिंडीकेट भी कहते थे। वैसे ईंदिरा गाँधी के लिए यह बेहद मुश्किलों भरा दौर था, उनकी सरकार अल्पमत में आ गई थी। अपने समक्ष मौजूदा राजनीतिक चुनौतियां का सामना करने के लिए इंदिरा गांधी ने बैंकों का राष्ट्रीयकरण करने और पूर्व राजा-महाराजाओं के प्रिवीपर्स के खात्मे जैसे कदम उठाकर अपनी साहसिक और प्रगतिशील नेता की छवि बनाने की कोशिश की।

अपने इन कदमों से वे तात्कालिक तौर पर कम्युनिस्टों को रिझाने में भी कामयाब रहीं और उनकी मदद से ही वे अपनी सरकार के खिलाफ लोकसभा में आए अविश्वास प्रस्ताव को भी नाकाम करने में सफल हो गईं, लेकिन इसी दौरान उन्हें यह अहसास भी हो गया था कि बिना पर्याप्त बहुमत के वे ज्यादा समय तक न तो अपनी हुकूमत को बचाए रख सकेंगी और न ही अपने मनमाफिक कुछ काम कर सकेंगी, लिहाजा उन्होंने बिना वक्त गंवाए नया जनादेश लेने यानी निर्धारित समय से पहले ही चुनाव कराने का फैसला कर लिया।

दिसंबर, १९७० में उन्होंने लोकसभा को भंग करने का एलान कर दिया, इस प्रकार जो पांचवीं लोकसभा के लिए चुनाव १९७२ में होना था, वह एक साल पहले यानी १९७१  में ही हो गया। इस चुनाव में इंदिरा गांधी ने अपनी गरीब नवाज की छवि बनाने के लिए “गरीबी हटाओ” का नारा दिया। बैंकों के राष्ट्रीयकरण और प्रिवीपर्स के खात्मे के कारण उनकी एक समाजवादी छवि तो पहले ही बन चुकी थी।

विपक्षी दलों के पास इस सबकी कोई काट नहीं थी। गैर कांग्रेसवाद का नारा देने वाले डॉ. राममनोहर लोहिया के निधन के बाद इंदिरा गांधी का मुख्य मुकाबला बुजुर्ग संगठन कांग्रेसियों से था। चूंकि राज्यों में संविद सरकारों का प्रयोग लगभग असफल हो चुका था, लिहाजा देश ने इंदिरा गांधी में ही अपना भरोसा जताया, चुनाव में कम्युनिस्टों को छोड़कर संगठन कांग्रेस समेत तमाम विपक्षी दलों की बुरी तरह हार हुई। और यहीं से ईंदिरा ईज ईण्डिया एण्ड ईण्डीया ईज ईंदिरा का नारा बूलंद हुआ। ईंदिरा गाँधी की कांग्रेस अब उनकी अपनी मर्जी पर चलने लगी।

अब कांग्रेस के जिलाध्यक्ष स्तर के पदों पर ईंदिरा व संजय गाँधी के पसंद के उम्मिदवार चुने जाने लगे लोकतंत्र धिरे धिरे परिवारतंत्र की ओर बढ़ चला! ईंदिरा या ईंडिकेट कांग्रेस के लोगो ने मान लिया की अब परिवार की खुशामदगिरी मे ही राजनितिक भविष्य है और इस तरह लोकतंत्र लगभग खत्म हो गया! उधर ओरिजिनल कांग्रेस का सिंडिकेट कांग्रेस अपने अंतीम पड़ाव पर धिरे धिरे पहुँचने लगी।

ईंदिरा या ईंडिकेट कांग्रेस का जीवन

१९७० में दलित नेता बाबू जगजीवन राम को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया। वह दो साल तक इस पद पर रहे। १९७२ में डा शंकर दयाल शर्मा पार्टी को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया। १९७५ में देवकांत बरुआ पार्टी के अध्यक्ष बने। बरुआ १९७७ तक इस पद पर रहे।१९७८ में एक बार फिर इंदिरा गांधी को कांग्रेस पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया। इस बार वह ७ सालों तक इस पद पर रहीं। १९८५ में राजीव गांधी पार्टी अध्यक्ष बने। राजीव गांधी भी ७ सालों तक इस पद पर रहे। १९९२ एक बार फिर से थोड़े समय के लिये लोकतंत्र की आशा जगा जब पीवी नरसिम्हा राव को पार्टी का अध्यक्ष बनाया गया। वह १९९५ तक इस पर बने  रहे। १९९६ में सीताराम केसरी भारी मतो से जितकर पार्टी के अध्यक्ष बने, जो कि १९९७ तक इस पद पर रहे। १९९२ मे जो लोकतंत्र मार्ग भटक कर पि वी नरसिम्हा राव के प्रभाव मे आकर पार्टी मे लौटा था वो एक बार फिर सिर पर पैर रख के भाग गया जब असंवैधानिक तरिके से १९९८ में सोनिया गांधी कांग्रेस पार्टी की राष्ट्रीय अध्यक्ष बनीं। वो पिछले १९ साल से इस पद पर हैं। बिच मे कुछ समय के लिये उन्होंने अपने पुत्र राहुल गांधी को अध्यछ बनाया था।

ऊड़ीसा का BJD, बंगाल की TMC, करूणानिधी की DMK, जयललिता की AIDMK, शरदपवार की NCP, चंद्रबाबू नायडू की पार्टी TDP, उत्तर प्रदेश की कांग्रेस (ति) ईत्यादी जैसी पार्टीयाँ ईसी कांग्रेस से टूट कर बनी है।

आपको ईस तथ्य की जानकारी प्राप्त हो चुकी होगी और आप से सवाल कर रहे होंगे की क्या ये वही कांग्रेस है? तो आज की कांग्रेस वो कांग्रेस नहीं है।

ये लेख वेबदुनिया के शोधो व अनुसंधानो पर केंद्रीत है यदि आप इसे दुरूस्त कर सकते हैं तो आपका स्वागत है।

Nagendra Pratap Singh: An Advocate with 15+ years experience. A Social worker. Worked with WHO in its Intensive Pulse Polio immunisation movement at Uttar Pradesh and Bihar.
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